जब कोई किसी गुलाम कौम की परम्परा, संस्कृति, धर्म, दर्शन और साहित्य पर विचार करता है, लिखता है तो उसे बहुत सी किताबों, लोगों से होकर गुजरना पड़ता है। इसमें उसकी रातों की नींदे और भूख तक खत्म हो जाती हैं। दिमाग की नशों में लगातार तनाव होने से असहनीय पीड़ा तक उत्पन्न हो जाती है। ऐसे में कई नासमझ लोग उनका मजाक उड़ाते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भूरेलाल जी की यह बातें ध्यान देने योग्य है,
"जब भी दलितों को अपनी खुद की परंपरा में आने की बात कही जाती है या अपनी मूल परंपरा के आधार पर अपनी पहचान बनाने की बात की जाती है, उन्हें यह बात ज़हर जैसी क्यों लगती है..? क्या इसे मानसिक ग़ुलामी नहीं कहेंगे..?"
परम्परा को लेकर मैंने एक पोस्ट किया था,
"परम्परा क्या होती है? परम्पराओं का निर्माण कैसे होता है? दलितों की कोई स्वतंत्र परम्परा रही है या फिर धर्मांतरण के द्वारा दूसरों की परम्पराएं ही उसकी नियति है?"
इस पोस्ट पर तमाम लोगों ने विमत टिप्पणी दर्ज करी क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं है कि परम्परा क्या होती है। उनका केवल यही कहना था, बाबा साहब ने बुद्ध की राह दिखाई है वही हमारी परम्परा है!
जब मैंने उनकी सोच का आकलन करने के लिए दूसरा पोस्ट लिखा किया,
"दलितों की समस्या यह है कि वे जीवे हैं गृहस्थ आजीवक मूल्यों को और चादर ओढ़ रहे हैं संन्यास परम्परा के बौद्ध धर्म का! इनमें आंख होते हुए भी कैसी भटकन? क्या इनके आंखों पर मांड़ा छा गया है, धर्मांतरण की गुलामी का? ले दे के इनके पास डा. अम्बेडकर ही सामने आते हैं। तब भी मैं वही सवाल कर रहा था, अब भी मैं वही सवाल कर रहा हूं...
यदि बाबा साहब डा. अम्बेडकर इस्लाम, ईसाईयत और सिख में से कोई एक धर्म अपना लेते तो क्या दलितों की परम्परा और पहचान इस्लाम, ईसाईयत और सिख की हो जाती?
तब, क्या ईसा मसीह, मोहम्मद साहब और गुरुनानक दलितों के पुरखे हो जाते है?"
तो उन को कोई जवाब नहीं सूझा, कुछ लोग इसे सीधा डा. अम्बेडकर पर सवाल खड़ा करना मान गये। ऐसे लोग चिन्तन करेंगे? विचारधारा को विकसित और परिवर्धन करेंगे? इसीलिए इन्हें हर युग में कोई भी भेंड़ की तरह हांक ले जाता है। सदियों में कोई थिंकर दार्शनिक पैदा होता है तो उसको ऐ लोग जीते जी मार देते हैं। क्योंकि इन्हें गुलामी की ऐसी आदत पड़ गयी है कि उससे निकलना ही नहीं चाहते हैं। दर्द हो रहा है, उत्पीड़न की मार पड़ रही है, बलात्कार और हत्या में हर रोज मर रहे हैं और राजनीतिक पतन का क्या ही कहना लेकिन करुणा ऐसी है कि सब सहन करा रही है! इतनी प्रतिक्रिया वादी जहरीली सोच धर्मान्तरित दलित ईसाईय, दलित मुसलमान, दलित सिखों की नहीं होती है जितनी इन नव-बौद्धों की है। जबकि धर्मांतरण की समस्याओं को लेकर हम उनको भी कटघरे में खड़ा करते हैं।
परम्परा बोध की सैद्धांतिकी (principal of tradition talent)
किसी भी स्वतंत्र कौम की परम्परा उसकी सामाजिक जड़ों में उत्तरोत्तर प्रवाहित होकर जीवन मूल्यों में समाहित होती है। इसे दुनिया के विद्वानों ने अपने सामाजिक हैसियत और उसकी बनावट के अनुसार अलग-अलग तरीके से परिभाषित और व्याख्यायित किया है।
पाश्चात्य विद्वानों टी. एस. इलियट ने अपने निबंध 'Tradition and individual Talent' (परम्परा और वैयक्तिक प्रज्ञा) में लिखा है कि, -
"परम्परा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अलग अस्तित्व नहीं होता।" कविता कर्म पर ही इलियट का कथन लागू नहीं होता है इसके सामाजिक आयाम भी होते हैं। इसे उन्होंने अपनी पुस्तक, 'After strange god' में व्याख्यायित करते हुए लिखा है, "परम्परा अत्यंत महत्वपूर्ण वस्तु है। परम्परा को छोड़ देने से हम वर्तमान को भी छोड़ बैठेंगे।"
इलियट यहाँ साहित्य और समाज दोनों की बात कर रहे हैं। जिस साहित्यकार में अपनी परम्परा का बोध नहीं होता है, वह अपने समाज को लक्ष्य करके कोई प्रेरक साहित्य नहीं लिख सकता है। दलित अपनी पीड़ा, दर्द और उत्पीड़न को लेकर शिकायती काव्य रचता रहा और कभी-कभी प्रतिक्रिया और विरोध का भी स्वर अपनाया लेकिन परम्परा बोध और ऐतिहासिकता उसके चिन्तन से नदारद थे। 1990 के दशक में डा. धर्मवीर के आगमन ने दलित चिन्तन में गतिशीलता और ऐतिहासिकता को जगह दी। पहली बार दलित चिन्तन को अभिशप्त चिन्तन से मुक्त कर ऐतिहासिक चिन्तन की ओर उसे उन्मुख किया। दलित परम्परा को लेकर उन्होंने अपने अतीत के ऐतिहासिक जड़ों की पड़ताल करी और आजीवक परम्परा का सूत्रपात किया। इसे प्राप्त करने में उन्हें कई कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। टी. एस. इलियट परम्परा की प्राप्ति के बारे में अपनी उक्त पुस्तक में लिखते हैं,
"परम्परा सामान्य वस्तु नहीं है जो आसानी से प्राप्त किया जा सकता है बल्कि परम्परा का व्यापक अर्थ है। उसे दान या विरासत के रूप में नहीं प्राप्त किया जा सकता ; उसकी प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम ऐतिहासिक बोध की आवश्यकता है। ऐतिहासिक बोध का अर्थ न केवल अतीत के उसके अस्तित्व में देखना, अपितु उसके वर्तमान में भी देखना है।"(After strange god)
डा. धर्मवीर अपनी पुस्तक 'दलित चिन्तन का विकास :अभिशप्त चिन्तन से इतिहास चिन्तन की ओर' में परम्परा(Tradition) के बारे में लिखते हैं, -"दुर्भाग्य से, दलित चिन्तन में कभी निरंतरता नहीं रही है। एक विचार में से दूसरा विचार नहीं निकल सका है। पहला विचार ही एक जगह रुका पड़ा है। ऐसा शिक्षा के अभाव के कारण भी रहा है। इसे जान बूझकर अच्छर ज्ञान से वंचित रखा गया था। लेकिन यह ज्ञान की एक मौखिक परम्परा चला सकता था।"
परम्परा की तारतम्यता न होने के अनेक कारण हैं। गुलामी भी उसमें से एक है लेकिन कंठ तो गुलाम नहीं रही है। श्रुत परम्परा भी रही है समाज में, दलितों की भी परम्परा रही होगी लेकिन लोगों ने उसके अतीत के जड़ों की पहचान नहीं की। काफी जद्दोजहद के बाद डा. धर्मवीर उन जड़ों को पहचान सके और उसे ऐतिहासिक तत्वों के आलोक में व्याख्यायित किये। दलितों की परम्परा की पड़ताल करते हुए लिखते हैं, - "एक जगह खड़े होने के कुछ फायदे हो सकते थे लेकिन वे भी दलित के हिस्से में नहीं आए हैं। वे फायदे तब होते जब इसका कोई अपना अलग धर्म होता। संसार की कई कौमें अपने अलग धर्म लेकर मजबूती से खड़ी हैं। उनकी संख्या छोटी हो सकती है लेकिन उनकी अलग पहचान में कोई कमी नहीं है। उन कौमों ने दुख उठाये हैं तो अपने लिए उठाये हैं जो उनके लिए गौरव की चीज़ है। लेकिन दलितों को यह भी मयस्सर नहीं हो सका। ये बेमतलब और धर्मांन्तरणों के कारण दूसरों के लिए भी पिटे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि किसी कौम के पास धर्म भी एक लम्बी वैचारिक यात्रा के बाद आता है। दलित ने यह वैचारिक यात्रा कभी पूरी नहीं की है। मुश्किल से वह समय अब आया है।"
इस आवाहन के साथ डा. धर्मवीर ने दलित धर्म और संस्कृति को लेकर बिगुल बजा दिये थे। दलित समाज के लोग अपनी परम्परा के मूल्यों को लेकर सजग नहीं हैं। राजनीति ने उन्हें पराई परम्परा के पराये धर्म की ओर उन्मुख कर दिया इससे पूरी एक कौम अपने अतीत की जड़ों से कट गई। आगे हुआ यह कि भविष्य में सामाजिक विसमता और राजनीतिक पतन होना शुरू हो गया। लोग को जोड़ने वाली उसकी परम्परा की जड़ें तो कभी की टूट चुकी थीं। धर्मांतरण की परम्परा से जुड़ने के उपरांत ही। ऐसे में, दलितों की सांस्कृतिक पुनरुद्धार की बात कैसे स्पष्ट हो?
इलियट के विचार से परम्परा का संबन्ध प्रत्येक जाति की संस्कृति, धर्म, दर्शन एवं जीवन दृष्टि से है। यह परम्परा कभी मरती नहीं अपितु सतत् विकासोन्मुख रहती है।' सच यही है डा. धर्मवीर ने अपनी जड़ों की परम्परा का जब अनुसंधान कर रहे थे तो उन्हें श्रमजीवी और गृहस्थ परम्परा की जड़ों का पता चला जो बुद्ध से पहले, महावीर के समय में मक्खली गोसाल के आजीवक परम्परा के रूप में मिला। मध्यकाल में वही मूल्य और दार्शनिक तत्व सद्गुरु रैदास और कबीर के दर्शन में आलोकित हुआ परम्परा की जड़ें गुरु घासीदास, स्वामी अछूतानंद नंद हरिहर तक आया डा. अम्बेडकर बौद्ध बनने से पहले आजीवक मूल्यों को लेकर ही संघर्ष कर रहे थे। अशोक आजीवक माता-पिता की संतान थे। इतिहास की यही जड़ें जब परम्परा के रूप में सामने आने लगीं तो किराये के पहचान मिटने लगे। दलित कौम के लोग जो पराई परम्परा में अपनी पहचान खोज रहे थे उन्हे असल पहचान आजीवक मिला।
निष्कर्ष - हम अपनी परम्परा के बोध से ही समाज में गतिशील हो सकते हैं। लेकिन पराई बौद्ध परम्परा का ढिंढोरा पीटने वाले भूल जाते हैं कि जिन गृहस्थ मूल्यों को लेकर कोलाहल कर रहे हैं, वे अतीत के इसी महान वृक्ष की शाखा का फल ही है जो जीवन में जी रहे हैं। जबकि बौद्ध तो संन्यास परम्परा का धर्म है। वे धर्मांतरण के नशे में भूल जाते हैं कि सद्गुरु रैदास और कबीर के दर्शन की महान वृक्ष अतीत की ही परम्पराओं पर जीवित है। भले ही नव-बौद्ध और अम्बेडकरवादी उसे जड़ कह कर उसे नकारने का प्रयास करें, पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि भविष्य की आने वाली पीढ़ियों की हरियाली आजीवक परम्परा के विशाल बरगद रूपी जड़ों की जीवन्तता पर ही आधारित होंगी। इसलिए अपनी परम्परा को छोड़ देना उच्छेद करना, अपने ही आधार को उच्छेदित करने के तुल्य है।
डा. संतोष कुमार
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