किसी भी कौम के लिए सांस्कृतिक जड़ें उनकी पहचान, इतिहास और मूल्यों का आधार होती हैं। ये जड़ें उस समुदाय को एकजुट करती हैं और उन्हें यह समझने में मदद करती हैं कि वे कहां से आए हैं और उनकी विरासत क्या है? सांस्कृतिक जड़ों में भाषा, परंपराएं, रीति-रिवाज, कला, संगीत, भोजन और धार्मिक विश्वास शामिल होते हैं, जिसे एक शब्द में 'धर्म' भी कहा जाता है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। पुरखों का ज्ञान और भाव-वेदनाओं संचार भी शामिल होता है।
ये जड़ें न केवल अतीत से हमें जुड़ाव प्रदान करती हैं, बल्कि वर्तमान में आत्म-सम्मान और समुदायिक भावना को भी मजबूत करती हैं।
इसे और सरल तरीके से समझने के लिए यह जाना जाए कि, -किसी कौम के त्योहार या लोक कथाएं उनके जीवन के मूल्य और दर्शन को दर्शाते हैं। साथ ही, ये जड़ें बदलते समय में भी लचीलापन और अनुकूलन की क्षमता देती हैं, ताकि वे अपनी पहचान को बनाए रखते हुए आधुनिक परिस्थितियों के साथ परिवर्तित और विकसित होकर तालमेल बिठा सकें।
कुल मिलाकर, सांस्कृतिक जड़ें एक कौम के लिए वह नींव हैं, जो उन्हें अपनी विशिष्टता और गौरव का एहसास कराती हैं।
13 मार्च, 2025 को कवि-आलोचक कैलाश दहिया ने अपने फेसबुक वाल एक पोस्ट लिखा था कि,
"काश मान्यवर कांशीराम जी ने महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर को पढ़ लिया होता तो दलित राजनीति आज यूं अंधेरे में ना भटक रही होती।"
इसके बाद लोगों ने नकारात्मक प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। दलित राजनीति करने वाले अपढ़ लोगों ने यह समझने की कोशिश नहीं करी कि आखिर यह कयास लेखक ने क्यों लगाई? आज देश में स्वतंत्र दलित राजनीति की दुर्दशा देखी जा सकती है। भाजपा और संघ द्वारा हिन्दुत्व के सांस्कृतिक अभियान सामने सब नतमस्तक हैं। किसी के पास इसका विकल्प नहीं है। तीन दशक पहले डा. धर्मवीर ने दलित कौम की सांस्कृतिक जड़ों को खोज लिया था। उसे विकसित करने और आधुनिकता के साथ व्याख्यायित करने में लंबा समय बिता। 2006 में कांशीराम साहब का देहांत हुआ लेकिन 1987 से ही डा. धर्मवीर दलित धर्म, दर्शन, संस्कृति और इतिहास पर लिख रहे थे। सांस्कृतिक जड़ों को लेकर साहब कांशीराम बेहद चिंतित थे। एक साक्षात्कार के वीडियो में खुद ही कह रहे थे कि,
- "जिस समाज की गैर राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं होतीं उस समाज की राजनीति कामयाब नहीं हो सकती। और जब मैं जड़ें देखने लगा तो मुझे जड़ें ही नज़र नहीं आईं। तो मुझे लगा यह समाज ही Rootless है।"
आज जो दलित समाज और राजनीति की दुर्दशा है, वह अपनी मौलिक आजीवक संस्कृति के जड़ों से कट जाने की वजह से है। डा. धर्मवीर अपनी आखिर पुस्तक 'महान आजीवक :कबीर, रैदास और गोसाल' में एक अध्याय लिखे हैं, - 'डा. अम्बेडकर : जडों से दूर' उसमें उन्होंने धर्म यानी जड़ की पहचान करी है। एक अन्य पुस्तक 'दलित चिन्तन का विकास: अभिशप्त चिन्तन से इतिहास चिन्तन की ओर' में उन्होंने लिखा है कि, - 'बाबा साहेब डा. अम्बेडकर दलित चिन्तन में जरूर पड़ते हैं और गहराई से पड़ते हैं। उन्होंने दलितों के लिए बहुत सोचा और किया है। लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म को ग्रहण कर के मूल चिन्तन को बीच में छोड़ा है।'
बिल्कुल, धर्मांतरण करना अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट जाना ही होता है। पोस्ट-अम्बेडकर थिंकर प्रो. भूरेलाल संस्कृति और परम्परा पर लिखते हैं, - "हम दैत्य,दानव, राक्षस, असुर, रावण, शुद्र, अतिशूद्र, महाशूद्र, अन्त्यज, अछूत, हिन्दू आदि बिल्कुल नहीं हैं। हम इस देश के मूलनिवासी आजीवक धर्म के हैं। हमारा दर्शन आजीवक दर्शन है। हमारी परंपरा और संस्कृति आजीवक सँस्कृति और परंपरा है। ....आप श्रमिक सँस्कृति के अनुरूप उत्सव और त्योहार मनाइए। होलिका-दहन यह सब ब्राह्मण धर्म का प्रक्षिप्त है। हिंसक आख्यान और मिथक है। स्त्री को जलाना कोई उत्सव नहीं, वर्णवादी राजनीति है। भारत में वर्णवादी परजीवियों के पास कोई उत्सव और त्योहार नहीं हैं, इनके पास केवल हिंसा और दूसरों के श्रम पर अवैध कब्जे हैं। दूसरी तरफ कमा कर खाने वाले श्रमिकों और किसानों के उत्सवों और त्योहारों की भरमार है। ब्राह्मणवाद ने इन त्योहारों में अपनी हिंसा और नफरत का कचरा भर कर इन्हें विकृत कर दिया है। इन त्योहारों का उद्धार करने के लिए इन के भीतर ब्राह्मण और श्रमिक तत्वों की अलग-अलग पहचान करनी होगी। होलिका-दहन ब्राह्मण तत्व है, इससे अपने को अलग कर लेना है। ब्राह्मणवाद के यहाँ हिंसा और खून-खराबा ही उत्सव है। चाहे होली हो, दीवाली हो और चाहे दशहरा हो। हिंसा और प्रेम साथ-साथ नहीं चल सकते। जहाँ हिंसा और घृणा होंगे, वहाँ प्रेम और सद्भाव नहीं हो सकते। दरअसल, वर्तमान द्विजों के पुरखे आर्य मार-काट कर के भारत पर कब्ज़ा किए हैं और यही इनके लिए असत्य पर सत्य की विजय, अन्याय पर न्याय की जीत, अच्छाई पर बुराई की जीत आदि कह कर उत्सव और त्योहार मनाते हैं। इन्होंने अपनी जीत को हमारी जीत बता कर अपने इतिहास को हमारा इतिहास बनाने की करगुज़ारी की है। इनके हिंसा का इतिहास हमारे प्रेम के इतिहास में मिल कर हमारे प्रेम को ज़हर बना दिया है। प्रेम और हिंसा दोनों मिल कर अमृत नहीं ज़हर ही बनते हैं।
चिंतक व कवि आदरणीय कैलाश दहिया के अनुसार होली वर्णवादियों और अवर्णवादियों (विदेशी आर्य वंशजों और भारत के मूलनिवासी आजीवकों) बीच संघर्ष की स्मृति का त्योहार है।"
कांशीराम साहब 'अम्बेडकरवाद' की राजनीति करते थे इसलिए वे धर्म को लेकर बुद्ध का यदा-कदा जिक्र कर लेते थे। लेकिन अम्बेडकरवाद से आगे की उनकी राजनीतिक रणनीति और वैचारिक उद्बोधन सद्गुरु रैदास और कबीर से अभिप्रेरित प्रतीत होती है। उन्होंने 'पूना पैक्ट' का विरोध किया 'पूना धिक्कार दिवस' मनाया और डा. अम्बेडकर की 'Annihilation of caste' के खिलाफ जातिय मजबूती और गठजोड़ पर ध्यान दिया। दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय में जन्में संतो, गुरुओं और ऐतिहासिक महापुरुषों की शिनाख़्त कर नयी 'सांस्कृतिक पहचान' 'बहुजन' बनाई। वे लगातार प्रोग्रेसिव एप्रोच के साथ आगे बढ़ते रहे। उनके बैनर से बुद्ध को निकाल दें तो विशुद्ध रूप से कांशीराम साहब 'आजीवक कौम' के महान योद्धा साबित होते हैं।
कांशीराम साहब केवल राजनेता ही नहीं थे, एक विचारक, लेखक और संपादक भी थे। लगभग दो दर्जन प्रकाशनों का कार्य भी देख चुके थे। पूरे देश में प्रिंट मीडिया का उनका स्वतंत्र नेटवर्क तैयार था। 'बहुजन संगठक' (हिन्दी साप्ताहिक) और 'आप्रैस्ड एक्सप्रेस' (अंग्रेजी) वे खुद संभालते थे। उनकी तुलना भारत के किसी भी राजनेता से नहीं की जा सकती, वे जिन परिस्थितियों में अपने सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत सत्ता प्राप्त करी, उसका उदाहरण दुनिया में विरले ही मिलती है।
डा. संतोष कुमार
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