Santosh (2024) फिल्म समीक्षा: एक विधवा कांस्टेबल की संघर्षमय यात्रा


सिनेमा हो या साहित्य जब उसका जुड़ाव समाज से होता है तो उसे तटस्थता ज्यादा बहुलता की ओर देखने की भी जरूरत होती है। इस दृष्टि को लेकर ही हिन्दी फिचर फिल्म 'संतोष' आगे बढ़ती है। Santosh (2024) फिल्म सिर्फ एक क्राइम-ड्रामा नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था की उन' परतों को उधेड़ने वाली फिल्म है जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।' 'संध्या सूरी' द्वारा लिखित और निर्देशित यह फिल्म यूनाइटेड किंगडम, भारत, जर्मनी और फ्रांस का अंतर्राष्ट्रीय सह-उत्पादन है, जिसे 77वें कान्स फिल्म फेस्टिवल में Un Certain Regard सेक्शन में प्रदर्शित किया गया और आलोचकों से प्रशंसा प्राप्त हुई।
संतोष की भूमिका में शहाना गोस्वामी 


यह फिल्म' शहाना गोस्वामी' के सशक्त अभिनय से सजी है, जिन्होंने एक ऐसी विधवा महिला की भूमिका निभाई है जिसे पति की मौत के बाद उसकी पुलिस की नौकरी 'विरासत' में मिलती है। यह केवल नौकरी नहीं, बल्कि एक सामाजिक जाल है जिसमें वह फंस जाती है — जाति, पितृसत्ता और सत्ता के खेल के बीच।


कहानी का सार

भारतीय समाज जाति संरचना के भीतर ही सांस लेता है। गाँव में उसकी जड़ें और भी गहरी होती हैं। गरीब, अशिक्षा और बेरोजगारी के भीतर पीस रहा वंचित समाज केवल जिन्दा रहने के लिए ही अभिशप्त है। 
उत्तर भारत के एक ग्रामीण क्षेत्र में स्थापित यह फिल्म संतोष की कहानी कहती है - एक ऐसी महिला की, जो न तो अपने दुख को खुलकर जी पाती है और न ही नई ज़िम्मेदारी को सहजता से निभा पाती है। पुलिस की वर्दी पहनते ही वह एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है, जहां उसका लिंग, उसकी जाति और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि लगातार उसे रोकती है।
कहानी का पहला दृश्य एक लड़की के अपने प्रेमी द्वारा झांसा दिये जाने से होता है। संतोष सैनी पिछड़े समाज की महिला है। जिसे थाने में भी दोयम दर्जे का माना जाता है। हर उपेक्षित काम उससे ही करवाया जाता है। थानाध्यक्ष आरबी ठाकुर उसकी सहायता तो करता है लेकिन अपने घरेलू काम भी उससे लेता है। जैसे पालतू कुत्ते को टहलना आदि। 

एक दृश्य में कहानी का प्लाट दलित लड़की के बलात्कार और सांप्रदायिकता को लेकर खुलता है। कांस्टेबल संतोष सैनी जूता बनवाने के लिए थाने के बाहर मोची के पास जाती है। जहां, गरीब पीड़ित लोग मोची से दरख़ास्त लिखवाने आते रहते हैं। वहीं राम पिप्पल अपनी बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने आता है। संतोष उसे थाने में रिपोर्ट दर्ज करने के बारे में पूछती है, तो वह कहता है कि मैडम गये थे, थानेदार ने भगा दिया। उसके बाद उसे अपने साथ लेकर जाती है, जहाँ थानेदार अपने बिरादरी के लोगों के साथ गप्पे हांक रहा होता है। थानेदार बहुत ही गलत लहजे में राम पिपल से पेश आता है। जाति पूछता है तो वह 'चमार' बताता है।
फिर कहता है, देखो कहीं नहर तालाब, खेत की तरफ टट्टी पेशाब करने गई होगी। 
राम कहता है, साहब लैट्रिन है घर में। 
जोर के ठहाके के साथ, थानेदार साथ बैठे जमीदार टाइप लोगों से कहता है, 
देखा त्यागी जी, लोग कहते हैं नेता और सरकार काम ही नहीं करती, अब इन लोगों के घरों में भी लैट्रिन बन गया है। यहां फिल्म में भारतीय पुलिस थानों के असल वातावरण और कार्य शैली का दृश्यांकन कायदे से किया गया। 
महिला थानेदार के साथ कांस्टेबल संतोष 


दूसरे दृश्य में देविका पिप्पल (15-16) की लाश कुंए से मिलती है। गांव के दलित समाज के लोग लाश के साथ थाने का घेराव करते हैं। पुलिस द्वारा मार-पीट कर उनकों भगा दिया जाता है। संतोष जब एक महिला को जबरदस्ती बाहर करती है तो वह कहती है कि, भगवान न करे तेरे बेटी के साथ भी ऐसा हो! इस पर संतोष एक चाटा मारती है। यहां उसका पुलिसिया रूवाब सामने आता है, लेकिन फिर भी आत्मग्लानि से भर जाती है। 

लाश को पोस्टमार्टम के लिए कोई ले जाने के लिए तैयार नहीं होता है क्योंकि लाश छूना पडेगा और लाश की जाति चमार है और वह लड़की भी है। ऐसे में यह काम संतोष को करना पड़ता है। थानेदार द्वारा पुलिस थाने में 'शुद्धिकरण पाठ' किया जाता है क्योंकि थाने में एक अछूत लड़की की लाश रखी गई थी! 
हंगामे के बीच दलित नेताओं के दबाव के वजह से थानेदार का ट्रांसफर हो जाता है और उसकी जगह एक महिला एसएचओ आती है। शर्मा टाइटल रहता है, उसका। वह प्रो नारीवादी होती है। थानों में महिला नियुक्ति को लेकर सवाल करती है। मैडम शर्मा और संतोष में स्त्री सुलभ संवेदना की वजह से अच्छा बनने लगता है। लेकिन थानों में पुरुष पुलिस की अधिकता के वजह से भेदभाव और हूटिंग का भी सामना करना पड़ता है। 
एक दौरे पर जाते पुलिस वाले अश्लील बात करने लगते हैं जहां, दोनों को सर्मींदगी का भी सामना करना पड़ता है। 
वरिष्ठ कांस्टेबल कहता है, मैंने अपने साढूं को 80 हजार दिया था। उसने नहीं लौटाया तो उसकी दूधारु भैंस खोल लाया। घर लाया तो वह विसुक गई, डा. बुलाया तो उसने कहा थन की मालिश करनी होगी। फिर, क्या खूब मालिश करी अब दूध ही दूध है। अब तो दो भैंस रख लिया हूँ बड़ी थनों वाली। 
इस तरह की बातें जहां महिलाओं के स्त्री प्रतीकों को लेकर असहज करते हैं वहीं, लैंगिक शोषण भी होने की संभावना होती है। कुत्सित मानसिकता को दर्शाता यह फिल्म पुलिस थानों में दलित और महिला को लेकर भेदभाव की माहौल को भी दिखाता हैं। 



मर्डर इन्वेस्टिगेशन की पृष्ठभूमि में यह फिल्म सत्ता के वास्तविक ढांचे को दर्शाती है — जहां कानून से अधिक असर जाति और लिंग की पहचान का होता है। कांस्टेबल संतोष को देविका का फोन मिलता है, जिसमें देविका से सलीम अंसारी के चैटिंग का क्लू मिलता है। सलीम को पकड़ कर SHO शर्मा और कांस्टेबल संतोष लेकर आती हैं। जहाँ उसको पीटा जाता है और देविका के मर्डर का आरोपी बना दिया जाता है। 
कांस्टेबल संतोष के मन में अपने पति की मेरठ दंगे में हत्या की कुंठा और मुस्लिम से नफरत जमी रहती है। जिसको महिला थानेदार हवा देकर उकसा देती है। संतोष उसको पीटकर मार देती है। सब मिलकर, थाने में समीर अंसारी को फांसी पर लटका देत हैं और उसे आत्महत्या करार देकर केस क्लोज कर देते हैं। 

कुछ दिन पहले एक दलित युवक को मामूली केश में थाने में इसी तरह से फांसी पर लटका दिया गया था। वाराणसी कारागार में सहायक दलित महिला जेलर ने ठाकुर जेलर पर भेदभाव और लैगिंक शोषण का आरोप लगया था। इससे फिल्म की सार्थकता सिद्ध होती है कि इसने यथार्थवादी वस्तुस्थिति को लेकर ही बनाया गया है। 

कांस्टेबल संतोष प्रधान के घर इन्वेस्टीगेशन के लिए एक बार गई होती है। जहां महिला प्रधान से उसका सामना होता है वह भावना शून्य या पितृसत्ता के बीच मौनता वातावरण लिये होती है। वहां उसे संदेह होता है। दूबारा जाती है तो वहां एक छोटी लड़की मिलती है जो देविका को हवेली में गायब होने वाले दिन देखने की बात करती है। तभी प्रधान पति अपने लोगों के साथ आता है और संतोष के आने का कारण पूछता है। वह जब पूछताछ करती है तो वे सब बड़े ही ढिठाई से बात करते हैं और उसके नाम में पुरुष वाचक होने को लेकर हुटिंक करते हैं। 
वह कहती है कि उस दिन देविका कुंवे से पानी के लिए आई थी तो तुम लोगों ने उसके साथ क्या किया? 
एक व्यक्ति कहता है,  कुछ नहीं किया था, हम राजकुमार का जन्मदिन मना रहे थे थोड़े पिये-पाये थे। तो प्रधान का देवर कहता है, देख नहीं रहे हो मैडम सिरियस हैं। हमने कुछ नहीं किया था। बस पार्टी किये थे। जोर देकर पूछती है तो वह कहते हैं, हाँ हमने किया भी है तो क्या कर लोगे? 
फिल्म का अंतिम दृश्य प्रधान के हवेली पर



मतलब, देविका का मर्डर ठाकुरों ने सामूहिक बलात्कार कर के किया था और उसकी हत्या कर के कुये में उसकी लाश डाल दी थी। जब उसकी लाश को अंतिम संस्कार को लेकर जा रहे थे तो मुख्य मार्ग से जाने से भी उन लोगों ने रोक दिया था। एक साथ कई मुद्दों प सोचने के लिए विवश कर देती है। जातिवाद की बर्बरता का चित्रण इस फिल्म में बड़ी ही बारीक ढंग से किया गया है। 

जब इस बात को थानेदार से संतोष करती है तो वह कहती है, 

संतोष, इस देश में दो तरह की छुआछूत है 
एक वो जिसे कोई छूना नहीं चाहता, दूसरा वो जिसे कोई छू नहीं सकता 
हैं तो नौकर ही न उसकी मौत से क्या हो जाता है? अब उसकी मौत से दस मर्द इस तरह के काम करने से डरेंगे। 



निर्देशन: संध्या सूरी की गहन दृष्टि

संध्या सूरी का निर्देशन इस फिल्म को एक गहरी संवेदनशीलता देता है। उन्होंने एक महिला के भीतर के द्वंद्व, समाज से उसके टकराव और वर्दी की झूठी सत्ता को बेहद सूक्ष्मता से दिखाया है। यह फिल्म कहीं भी भावुकता या नाटकीयता का सहारा नहीं लेती — इसके बजाय यथार्थ की सादगी और सच्चाई से गूंजती है।

उनकी शैली "observational cinema" की याद दिलाती है — जहां कैमरा किरदार के साथ चलता है, न कि उसके आगे या पीछे।



अभिनय: शहाना गोस्वामी का उत्कृष्ट प्रदर्शन

शहाना गोस्वामी ने संतोष की भूमिका में जान फूंक दी है। उनकी आंखों में डर, उलझन, जिज्ञासा और चुपचाप बढ़ता आत्मविश्वास — सब एक साथ दिखता है। उन्होंने पूरी फिल्म में संवादों से अधिक मौन में अभिनय किया है, जो इस किरदार की स्थिति को और गहराई देता है।



तकनीकी पक्ष: यथार्थ की सजीवता

सिनेमैटोग्राफी: कैमरे का उपयोग बहुत संवेदनशील ढंग से हुआ है। ग्रामीण भारत के दृश्य, पुलिस चौकियों की सादगी, और किरदारों की देहभाषा — सब कुछ फिल्म को गहराई देता है।

साउंड डिज़ाइन: कोई भारी-भरकम बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं — सिर्फ ज़मीनी आवाज़ें, जिससे फिल्म का यथार्थ और भी जीवंत होता है।

एडिटिंग: फिल्म की धीमी रफ्तार ही इसकी शक्ति है। यह दर्शकों को सोचने का अवसर देती है।



सांस्कृतिक और अंतर्राष्ट्रीय पहचान

Santosh को केवल भारत में ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली है। इसे नेशनल बोर्ड ऑफ रिव्यू द्वारा वर्ष की शीर्ष 5 अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में स्थान मिला, और 78वें बाफ्टा अवार्ड्स में "Outstanding Debut" श्रेणी में नामांकन प्राप्त हुआ।

साथ ही, यह यूके की ओर से 97वें अकादमी पुरस्कारों (ऑस्कर) में Best International Feature Film श्रेणी में आधिकारिक प्रविष्टि रही, और डिसेंबर की शॉर्टलिस्ट तक पहुंची — जो इसकी वैश्विक गुणवत्ता और विषय की गहराई का प्रमाण है।



निष्कर्ष: एक जरूरी फिल्म, जरूरी समय पर

Santosh उस सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती है जो समाज से टकराता है, सवाल करता है और जवाब नहीं — चिंतन मांगता है। यह फिल्म हर उस दर्शक के लिए ज़रूरी है जो भारतीय व्यवस्था में ‘पावर’ और ‘पहचान’ की परतों को समझना चाहता है।
Santosh फिल्म एक साथ कई मुद्दों को लेकर चलती है। दलित के साथ भेदभाव, बलात्कार, हत्या और स्त्रियों को लेकर पुरुष मानसिकता, लैगिंक शोषण तथा सांप्रदायिकता को बखूबी दिखाया गया है। पारिवारिक ढांचे में स्त्री को लेकर भेदभाव को भी दिखाया गया है। यह स्लोगन 'इस देश में दो तरह की छुआछूत है, एक वो जिसे कोई छूना नहीं चाहता, दूसरा वो जिसे कोई छू नहीं सकता।' गहरे सवाल पैदा करता है। न्याय का केवल छद्म रुप दलितों के लिए रचा जाता है, जहाँ असली मुजरिम को सजा नहीं हो पाता है। कोई उनके गिरेबान को छू नहीं सकता। सत्ता और सरकार में वही लोग विराजमान हैं। पूरी व्यवस्था को वे ही संचालित करते हैं। यह फिल्म उदारवादी नजरिए से सहानुभूति नजर आती है। जहां दलित के चरित्र को सशक्त न दिखा कर दिन हीन दिखाया गया है। 


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