"सामाजिक अन्याय की जड़ अस्पृश्यता है। इससे बड़ा सामाजिक अन्याय दूसरा नहीं हो सकता कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को घृणा की वजह से न छुए। डा. धर्मवीर
"सभी नागरिकों को कानून की नजर में समानता का अधिकार है" — यह भारतीय संविधान का बुनियादी वादा है। लेकिन जब बात दलित समाज की आती है, तो यह वादा अक्सर खोखला दिखाई देता है। आज़ादी के दशकों बाद भी जब दलित समुदाय अपने अधिकारों के लिए खड़ा होता है, तो उसे केवल सामाजिक बहिष्कार ही नहीं, बल्कि बर्बर हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के देहुली (1981) और पनवारी (1990) जैसे हत्याकांड केवल घटनाएं नहीं, बल्कि दलित जीवन की हाशियागिरी, सत्ता की निष्ठुरता और न्याय की सुस्त चाल के भयानक दस्तावेज़ हैं। इसमें एक सुनियोजित साजिश काम करती है, जातिवादी वर्चस्ववादियों की वे नहीं चाहते की न्याय हो। दशहत और वहशत दोनों दलित समाज में कायम कर उनके मनोविज्ञान को क्षत-विक्षत करने के लिए इस तरह की बर्बरता और न्याय में देरी की जाती है।
जातीय हिंसा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय समाज के जातिवादी संरचना में दलित का शोषण उसके जाति के आधार पर ही होता है। हिंसा के इस स्वरूप में उसक बहन-बेटियों के साथ बलात्कार, हत्या आम बात है। जब कभी प्रतिवाद करता है तो वही न्याय व्यवस्था उसपर त्वरित कार्यवाही करते हैं।
भारत में जातिगत हिंसा, विशेष रूप से दलितों के विरुद्ध, कोई आकस्मिक घटनाएं नहीं हैं। यह एक लंबी परंपरा का हिस्सा है, जहाँ दलितों की सामाजिक चुप्पी को तोड़ने की हर कोशिश को दमन से कुचला गया। ज़मींदारी, मंदिर प्रवेश, शिक्षा और भूमि के अधिकार जैसे सवालों ने अक्सर सवर्ण हिंसा को जन्म दिया है। देहुली और पनवारी इन हिंसात्मक प्रतिक्रियाओं की चरम अभिव्यक्ति हैं।
देहुली हत्याकांड (1981, उत्तर प्रदेश)
21 मई 1981 को उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद ज़िले के इगलास तहसील के देहुली गाँव में सवर्ण ठाकुरों ने दलित (चमार) समुदाय पर सुनियोजित हमला किया। हमला इतना क्रूर था कि महिलाओं और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया। कुल 15 दलितों को जिंदा जलाकर मार डाला गया, जिनमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। इसमें कुल 24 हत्याओं को अंजाम दिया गया था। जातिवादी वर्चस्व और नफरत द्विजों के मन में कुंठाग्रस्त था। लूट, हत्या और बलात्कार तीनों इस घटना में किया गया। इस जनसंहार की पृष्ठभूमि में ज़मीनी विवाद और दलितों का सामाजिक उन्नयन मुख्य कारण था। दलितों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया था, और वे गाँव में स्वतंत्रता से रहना चाहते थे—यह बात सवर्ण मानसिकता को नागवार गुज़री। एक कारण यह भी था कि ठाकुरों का एक गिरोह था। पुलिस के मुताबिक कुंवरपाल नाम के दलित व्यक्ति का प्रभाव था, उसका प्रेम संबंध ठाकुर जाति की एक महिला के साथ था, इससे गिरोह के राधे और संतोष को नागवार गुजरी और वे कुंवरपाल की हत्या कर दिये। उसके बाद इनके गिरोह के कुछ लोग हथियारों के साथ पकड़े गए, इसका कारण चमारों को माना गया।
फिर, दिहुली गांव में 1981 में 24 दलितों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। अब घटना के 44 साल बाद मैनपुरी की एक अदालत ने मामले में तीनों दोषियों को मौत की सज़ा सुनाई है। दिहुली फिरोज़ाबाद ज़िला मुख्यालय से तकरीबन 30 किलोमीटर का दूरी पर है। पहले ये मैनपुरी ज़िले का हिस्सा हुआ करता था। इससे पहले, अदालत ने इस मामले में कुल 17 अभियुक्तों में से 3 को दोषी करार दिया था। 13 अभियुक्तों की मौत हो चुकी है, जबकि एक अभियुक्त भगोड़ा घोषित है। दोषी ठहराए जाने के दौरान दिहुली गांव के रहने वाले पीड़ित पक्ष के संजय चौधरी ने कहा, ''न्याय हुआ है, लेकिन बहुत देर से अभियुक्त अपना जीवन जी चुके हैं। अगर ये फ़ैसला पहले आता तो अच्छा रहता।''
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दिहुली के हत्याकांड के पीड़ित दलित |
न्यायिक प्रतिक्रिया
दुनिया में इस तरह के न्याय के नमूने कहीं देखने को नहीं मिलेंगे! अभियुक्त अपराधियों को प्राकृतिक उम्र जमानत देकर जीने दिया जाता है और जब वे मरने वाले होते हैं तो उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाई जाती है और सत्ताधारी मीडिया द्वारा खबर प्रसारित किया जाता है कि दलितों के साथ न्याय हुआ! पीड़ित दलित कहते हैं कि - भाड़ में जाए, ऐसी न्याय और उसकी व्यवस्था! समाज में भेदभाव से दलित समाज संघर्ष कर ही रहा था लेकिन न्याय में भेदभाव का सामना कैसे करे? पुलिस भी उन्हीं सवर्णों का पक्ष लेती है। उक्त घटना में एफआईआर दर्ज हुई, कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं, लेकिन केस की सुनवाई वर्षों तक टलती रही। दो दशक से अधिक समय बाद भी अधिकांश दोषी या तो ज़मानत पर छूटे रहे या सबूतों के अभाव में बरी हो गए। यही भारतीय न्याय व्यवस्था है!
राजनीतिक और प्रशासनिक खामोशी
सरकारी तंत्र की उदासीनता इस बात से स्पष्ट है कि किसी बड़े नेता ने पीड़ितों के गाँव का दौरा तो किया लेकिन त्वरित न्याय नहीं मिला। राष्ट्रीय मीडिया में भी यह खबर सीमित रही। तब दलितों का क्रांति कारी उदय कांशीराम के नेतृत्व में उभरा और 1984 बसपा का गठन हुआ और सत्ता में आने के बाद प्रभावित जिलों को अपराध मुक्त किया गया। इसीलिए दलितों का सत्ता में बने रहना जरूरी है और न्यायपालिका में दलितों की हिस्सेदारी भी जरूरी ताकि न्याय त्वरित और निस्पक्ष हो।
पनवारी हत्याकांड (1990, आगरा)
'सिकंदरा के गांव पनवारी में 22 जून 1990 को अनुसूचित जाति के परिवार की बेटी की बरात चढ़ाने के विवाद में हिंसा भड़क गई थी। चोखेलाल जाटव की बेटी मुंद्रा की बरात आनी थी। 21 जून को जाट समाज के लोगों ने बरात चढ़ाने का विरोध किया। इस कारण बरात नहीं चढ़ सकी। दूसरे दिन पुलिस की मौजूदगी में बरात चढ़ाने पर हिंसा भड़क गई थी। आसपास के इलाके में फैल गई थी हिंसा में पुलिस फायरिंग के दौरान एक उपद्रवी जाट व्यक्ति को गोली लगी और उसकी मृत्यु हो गई।
फायरिंग में सोनीराम जाट की मौत के बाद आसपास के इलाके में हिंसा फैल गई थी। 24 जून 1990 को पनवारी की आग अकोला तक पहुंच गई। यहां अनुसूचित व जाट समाज के लोगों के बीच संघर्ष हुआ। इसमें एक दलित महिला की मौत हुई, जबकि 150 से अधिक लोग घायल हुए। हिंसा के मामले में कागारौल के तत्कालीन एसओ ओमप्रकाश राणा ने 200 से अधिक लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया।'(अमर उजाला, दैनिक अखबार)
यह भारत है और इसमें बसने वाले जातिवादी लोग दलितों के जीवन पर पाबंदी लगाना चाहते हैं।
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पनवारी कांड के समय |
न्याय की स्थिति
इस मामले में भी शुरुआती एफआईआर और गिरफ्तारी के बाद मामला लंबा खिंचता गया। न्यायालयीन प्रक्रिया वर्षों से अधिक चली, और अधिकतर आरोपी या तो छूट गए या सजा बहुत देर से हुई। पीड़ितों को मामूली मुआवज़ा दिया गया, लेकिन सामाजिक पुनर्वास या सम्मानजनक पुनर्स्थापना नहीं हो पाई। शुरूआती विवेचना के बाद वर्ष 1994 में 72 आरोपियों के खिलाफ आरोपपत्र अदालत में पेश किया गया। इस मामले में स्पेशल जज एससी-एसटी कोर्ट पुष्कर उपाध्याय ने 29 मई को 35 आरोपियों को दोष सिद्ध करार दिया था। इनमें से 32 अभियुक्त ही अदालत में हाजिर हुए, शेष तीन अभियुक्त अदालत में नहीं पहुंचे। अब 34 वर्ष बाद सजा सुनाई गई, जबकि अधिकतर अपनी प्राकृतिक मृत्यु को प्राप्त हुए और शेष इंतजार में हैं। इस तरह के न्यायिक उदाहरण पूरे भारत में और कहीं नहीं मिलेगा, मिलेगा तो उसमें पीड़ित पक्ष दलित ही होगा। वर्चस्वकारी समाज ने सत्ता, न्याय और मीडिया के गठजोड़ से दलितों को अपना उपनिवेश बनाया है।
इस न्याय को क्या नाम दूं? देर से मिला न्याय या अधूरा इंसाफ़?
भारत का संविधान हर नागरिक को समानता, न्याय और गरिमा का अधिकार देता है। लेकिन क्या ये अधिकार वंचित तबकों, विशेषकर दलित समाज, को वास्तव में मिल पाए हैं? इतिहास गवाह है कि जब भी दलित समाज ने अपने आत्मसम्मान और अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई, तब-तब उसे बर्बर हिंसा और सामूहिक जनसंहारों का सामना करना पड़ा।
देहुली और पनवार जैसे कांड इस बात के जीवंत प्रमाण हैं कि सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त जातिगत असमानता और प्रशासनिक ढिलाई ने कैसे न्याय को कमजोर कर दिया है। इन घटनाओं ने न केवल अनेक मासूम जानें लीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में हुई देरी और राजनीतिक चुप्पी ने पीड़ितों के ज़ख्मों को और गहरा कर दिया।
न्यायिक प्रणाली की सुस्ती दोनों ही मामलों में मुकदमे वर्षों तक चले। पीड़ितों के पास महंगे वकील रखने के संसाधन नहीं थे। सरकारी अभियोजन पक्ष की ढिलाई ने भी दोषियों को फायदा पहुँचाया।
राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, न तो इन हत्याकांडों को लेकर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया, और न ही विधानसभा या संसद में इन्हें प्रमुखता से उठाया गया।
मुख्य धारा मीडिया की रिपोर्टिंग इन घटनाओं पर सतही रही, जिससे यह जनसंहार राष्ट्रीय बहस का हिस्सा नहीं बन पाए।
गंभीर प्रश्न जो उठते हैं-
. क्या भारत में दलितों का जीवन इतना सस्ता है कि सामूहिक हत्या के बाद भी सत्ता और समाज मौन रहते हैं?
. क्या न्याय केवल उस वर्ग के लिए है जो आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत है?
. दलितों पर हुए जनसंहारों को "लॉ एंड ऑर्डर" की सामान्य समस्या बताकर खारिज करना कब बंद होगा?
. क्या मीडिया केवल तब मुखर होगा जब पीड़ित "हाई-प्रोफाइल" होंगे?
निष्कर्ष और आगे की राह
देहुली और पनवारी कांड न केवल भारत की जातिवादी मानसिकता के भयानक उदाहरण हैं, बल्कि वे उस "संस्थागत अन्याय" की पहचान भी हैं जिसमें दलित केवल संख्या बनकर रह जाते हैं। जब तक समाज और राज्य न्याय के बुनियादी मूल्य—समानता, गरिमा और जवाबदेही—को लागू नहीं करेंगे, तब तक संविधान की आत्मा केवल किताबों में सीमित रहेगी।
हमें ज़रूरत है,
त्वरित और समयबद्ध न्याय प्रक्रिया की।
पीड़ितों के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्वास की।
जातिगत हिंसा के मामलों में निष्पक्ष जांच एजेंसियों की।
और सबसे ज़रूरी — सामूहिक सामाजिक चेतना की, जो ऐसे जनसंहारों को केवल दलित सवाल नहीं, मानवता का सवाल माने।
और सबसे जरूरी है, सामाजिक रूप से त्वरित प्रतिक्रिया की जब दलित समाज संगठित और मजबूत होगा तो दुश्मनों का सामना खुद कर लेगा। जब युद्ध स्तर पर इस काम को करने में सफल हो जाएगा तब उसके साथ अन्याय नहीं होगा। दलितों को एक कौम के रूप में मजबूत होकर उठना होगा। यह काम धार्मिक पहचान से होगा और दलितों को अपने आजीवक धर्म के पहचान के साथ उठना होगा।
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