संतोष कुमार //मैंने दलित साहित्य में 'आत्मकथाओं' पर शोधकार्य किया है। जिसमें समस्त दलित जातियों के आत्मकथाओं अध्ययन किया। कहीं भी भंगी, खटिक, चमार और पासी में विभेद नहीं पाया। उनका दर्द और उत्पीड़न द्विज जातियों ने किया है, ऐसा दर्ज है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा "जूठन" में त्यागी ठाकुर अक्सर 'चूहडे-चमार' की गाली दे ही देते थे। श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर' में चमार और भंगियों के पेशों में कहीं भेद नहीं है। वह एक जगह लिखते हैं 'भंगन की हाथ की रोटी में और मेरी माँ के हाथ की रोटी में कोई फर्क महसूस नहीं हुआ।' जहाँ चमार नहीं होते थे वहाँ भंगी चमारों का काम करते थे और जहाँ भंगी नहीं होते थे वहां चमार भंगियों का काम करते थे। दोनों ने व्यवस्था से बराबर मुठभेड़ किया है। डब्ल्यू जी ब्रिक्स अपनी पुस्तक "द चमार्स" में सभी दलित जातियों को चमार रेश का मानते हैं। ऐसे में भंगी और चमार को अलग देखना कहाँ इंसाफ है।
ब्रिटिश कालीन, एक गांव में भंगी |
सबसे बड़ी बात यह है कि 1920 के दशक में आर्य समाज दलित जातियों के धर्मांतरण को रोकने के लिए उनका हिन्दुकरण करना शुरू किया। उनकी मंशा को जानकर स्वामी अछूतानंद ने अलग और स्वतंत्र आंदोलन शुरू किया। लेकिन कुछ भंगी अमीचंद शर्मा को अपना मानकर उसके द्वारा पैदा 'वाल्मीकि' को अपना भगवान मान लिए और सफाई को "सेवा" के संस्कार के रूप में स्वीकार कर लिए। प्रत्यक्ष मैला उठाने की प्रथा का तो अंत हुआ लेकिन समय के बदलते स्वरूप में आधुनिक शौचालय, सार्वजनिक शौचालयों की सफाई का जिम्मा फिर भंगियों के ऊपर लाद दी गई। किन्तु आज भंगियों के पास ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वे शौचालयों की सफाई को ही अपना मौलिक पेशा माने। चमारों ने मरे हुए पशुओं की चमड़ी उतारने और अन्य घृणित कार्यों को करने से इंकार कर दिया। और जीवन जीने के अन्य पेशों को करना स्वीकार कर लिया। इससे उनमें थोड़ी जागरूकता आई। समाज द्वंद्वात्मक विकास प्रक्रिया के तहत ही आगे बढ़ता है। आजादी के बाद से ही आरक्षण की वजह से दलित और आदिवासी वर्ग के सभी जातियों ने कुछ न कुछ विकास किया है। शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है। जिसे डा. अम्बेडकर भी स्वीकार करते हैं और उसे शेरनी की दूध की तरह मानते हैं।
लेकिन इस आरक्षण को खत्म करने के लिए भंगी जाति के कुछ लोग ब्राह्मणों के उकसावे में आकर वर्गीकरण करना चाहते हैं। इसे एक कहानी के माध्यम से भी समझा जा सकता है -
"एक गांव में ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर और दलित जातियां निवास करती थीं। जिसमें गैर-दलित सम्पन्न थे, जिविका के अधिकांश संसाधनों पर उनका कब्जा था। इसलिए दलित को वे मजबूर करते थे गुलामी करने के लिए। हर तरह से उनका दमन और उत्पीड़न इन तीनों ने गठजोड़ कर के करना जारी कर दिया था। फिर आजादी के बाद उस गांव में संविधान और उसके प्राविधान पता चला! समानता का अधिकार, भेदभाव के उन्मूलन के विरोध में तीनों वर्गों ने संगठित होकर दलितों पर खूब जुल्म ढाया। इस हिंसक उत्पीड़न से कुछ दलितों ने गांव से पलायन कर लिया। शहरों में आये, यहाँ भी वे मजदूरी करने के लिए अभिशप्त हुए लेकिन शिक्षा के महत्व को समझने लगे। इसलिए अपने आने वाली पीढियों को स्कूल में भेजना शुरू किया। दूसरी पीढ़ी ने शिक्षा प्राप्त कर के छोटी सरकारी नौकरियों को प्राप्त करना शुरू किया। इससे उनकी आर्थिक दशा सुधरने लगी। वे अपने गांव में जाते तो वहां भी अपने लोगों में शिक्षा के महत्व को बताते। इस तरह से उनमें भी जागरूक आने लगी। वे मान-स्वाभिमान से जीने के लिए लालायित होने लगे। इससे गैर-दलितों में गुस्सा आता और वे गाहे-बगाहे इनकी बहू-बेटियों पर जुल्म ढाते। भय के महौल से गांव पर शासन करते। लेकिन संविधान में प्रदत्त दलित अधिकारों से मन मसो कर रह जाते। फिर उनके मन में षड्यंत्र सूझा। वे दलित जातियों को उकसाते और लड़ाई करा देते। इससे आपसी वैमनस्य का महौल दलितों में पनपने लगा। अब वे आसानी से दलितों पर नियंत्रण कर लेते थे। लेकिन इसके बावजूद भी कुछ जातियाँ उनसे बराबर संघर्ष करती रही। यह शिक्षा और नौकरी के बदौलत हो सका। भंगी और चमार ही उस गांव की मजबूत और जुझारू जाति थी। इससे पार पाना ब्राह्मणों को दुश्कर था। इसलिए चमारों को नियंत्रित करने के लिए "चंवर पुराण" लिखा तो वे दुत्कार दिये और अपना स्वतंत्र इतिहास खुद खोजने और लिखने लगे। इससे ब्राह्मणों और डर व्यापने लगा कि उनका मल मूत्र कौन साफ करेगा और कौन उनके खेत-खलिहान में मजदूरी करेगा? उन्होंने षड्यंत्र के तहत भंगियों को अपने पाले में करने के लिए अमीचंद शर्मा को नियुक्त किया। और उसने "श्री बाल्मीकि प्रकाश" लिखकर भंगियों को वाल्मीकि भगवान दे दिया। सदियों से भगवान के भूखे भंगियों ने वाल्मीकि का ऐसा रसपान किया कि ब्राह्मण उनके सगे और अपने सगे भाई दुश्मन नजर आने लगे। ब्राह्मण दलितों को मिले कानूनी हथियार आरक्षण और एसीएसटी एक्ट को सीधे हटा नहीं सकता था। इसलिए कुछ दलित जातियों का सहारा लिया। और भंगियों के मन में यह बात भरने लगा कि देखो तुम्हारा संवैधानिक अधिकार अकेले चमार खा रहा है। तुम उससे इसमें बंटवारा मांगो! इससे पहले ब्राह्मण यह विधिक नियम बना रखा था कि दलितों के बचे हुए पद सामान्य वर्ग में समाहित कर लिए जाएंगे। इसलिए उसने NFS का मनुवादी चाल चला। फिर भी दलितों ने कठिन मेहनत से प्रतियोगिता पार कर ही लेते थे। ऐसे में ब्राह्मण को पहले ही पता था कि भंगी उससे तो लड़ नहीं सकता। उसे केवल सफाई, चपरासी और क्लर्क तक ही रहना है और यह व्यवस्था निजीकरण के द्वारा हमारे ही भाई - बंधुओं की ठेकेदारी से में आएगा। तब यदि आरक्षण में बंटवारे की लड़ाई भंगी जाति के लोग लड़ते हैं तो यह हमारे ही हीत में होगा इसलिए ब्राह्मणों को भंगियों का पक्ष लेना चाहिए। फिर क्या हुआ कोर्ट में बैठा ब्राह्मण भंगियों के पक्ष में राज्य को आरक्षण बंटवारे की अनुमति दे दी। अब भंगी और चमार अपने वास्तविक दुश्मन को छोड़कर एक दुसरे के जानी दुश्मन बन गए।"
ब्रिटिश कालीन भारत में, चमारों का एक परिवार चमड़े के फैक्ट्री में काम करता हुआ |
मेरे गाँव में कोई भंगी, खटिक और डोम नहीं हैं। मुसलमान और चमार अधिक संख्या में हैं। पड़ोसी गांव में दो घर डोयवम हैं। जो कभी-कभी छाज मांगने आते हैं। उनमें से अक्सर वे लोग चमारों के मोहल्लों में ही पानी या खाना मांग खाते हैं और अपने दुख-दर्द, खुशी को बुजूर्गों के साथ शेयर करते हैं। एक बार मैंने पूछ बैठा। तुम यह काम क्यों करते हो तो कहने लगा - भईया क्या करें, बडका बाऊ के गांव की जिम्मेदारी भी मुझे मिल गई है, इसलिए इसे करना पड़ता है वर्ना खर्चा पानी कैसे चलेगा। अब तो आपके गांव की सफाई की भी जिम्मेदारी हमें मिल गई है। इसलिए पति-पत्नी साथ आते हैं। फिर मैंने पूछा क्यों बड़े पिता के गांव और सफाई का काम तुम्हारे जिम्मे है? उसने कहा भैया हम पड़े नहीं थे इसलिए मायावती जी के शासन में सफाई कर्मी नहीं बन पाए। बड़का बाऊजी के दोनों लड़के आठ तक पढ़े थे तो उन दोनों का हो गया और भऊजी भी पढ़ाई करी थीं तो उनका लग गया। उन्हीं की जगह पर यहाँ सफाई का काम हम करेंगे। तो मैंने कहा यार एकही घर में तीन लोग सरकारी नौकरी में हो गए और तुम नहीं पढ़ सके इसलिए बंचित रह गए। तो कहने लगा क्या करें भईया किस्मत का खेल है। मैंने कहा - तकदीर वगैरह का कोई मामला नहीं है तुम पढ़े नहीं इसलिए रह गए। और तुम्हारे ही परिवार में पढ़ने वाली महिला तक सरकारी सेवारत है।
रमेश भंगी और रोहिणी भंगिन बताएं एक परिवार की इस असमानता के पीछे क्या कारण है?
इस समय मुझे आजीवक दार्शनिक डा. धर्मवीर जी कही बात याद आ रही है जिसे वे अपनी पुस्तक "दलित चिन्तन का विकास :अभिशप्त चिन्तन से इतिहास चिन्तन की ओर" में लिखे हैं -
"ब्राह्मण चिन्तक दलित दृष्टि पर दो तरह से आक्रमण करता है। पहले आक्रमण में वह भंगी और चमार से युद्ध करवाना चाहता है और दूसरे आक्रमण में वह दलित नारी को दलित पुरुष से घर में लड़वाना चाहता है। इस नीति पर ब्राह्मण चिन्तक तब आता है जब उस का कथनी और करनी के भेद का आक्रमण नाकाम हो जाता है। लेकिन जवाब में यही प्रश्न पूछा जाना हैं कि ब्राह्मण चिन्तन भंगी के पक्ष में कब से हो गया है और वह दलित नारी का हितैषी कब से बन गया है। कबीर की शैली में बोला जाए तो यही पूछा जा सकता है - 'पांडे, कब से हुए हितैषी', पांडे, कब से दोस्त भए हैं?'
दलितों के घर में और बाहर आपस में लड़ाई करवाने वाला ब्राह्मण चिन्तन यह बताना भूल जाता है कि मनुष्य को समाज में इस स्तर पर मार - मार कर भंगी खुद उसने बनाया है और दलित नारी की जारकर्म और बलात्कार इज्जत खुद उसने लूटी है। आश्चर्य होता है कि भंगी को भंगी बनाने वाला 'दलितों में दलित' का सवाल उछालता है तथा दलित नारी के उदर में अवैध औलाद पैदा करने वाला दलित नारी की वेदना की बात करता है। वह दलित नारी का पक्ष दलित पति और दलित बच्चे के बिना लेता है। लेकिन दलित नारी से भी ज्यादा पीड़ित दलित बच्चा है - उस की फिक्र उसे नहीं सताती। दलित बच्चा इतना पीड़ित है कि वह बिना बाप का 'अक्करमाशी' है।
चमार और भंगी के बीच आर्थिक झगड़े हो सकते हैं लेकिन देखना यह है कि क्या उनके बीच के वे ब्राह्मण की तरह के धार्मिक झगड़े भी हैं। यूरोप और अरब समेत कोई भी समाज यह दावा कैसे कर सकता है कि उस ने अपने सामाजिक विकास को चरम और अन्तिम रूप से प्राप्त कर लिया है? फिर भंगी और चमार के बीच ऐसी अपेक्षा एकदम कैसे कर ली जाती है कि कल्पित स्वर्ग उतर जाना चाहिए? आश्चर्य है कि भंगी और ब्राह्मण के बीच के धार्मिक अंतर को भंगी और चमार के बीच की लड़ाई बना दिया जाता है। क्या मैथिली ब्राह्मणों और कन्नौजिया ब्राह्मणों में अंतर नहीं है? उस अंतर के बावजूद क्या वे चमार और भंगी के खिलाफ दोनों ब्राह्मण एक नहीं हैं? इसी तर्क के आधार पर कहा जा रहा है कि भंगी और चमार के बीच अन्तर रहते हुए भी वे दोनों ब्राह्मण विरोधी दलित हैं। वे दोनों आपस में सामाजिक विकास के लिए होड़ कर सकते हैं लेकिन दोनों को ब्राह्मण से अपने-अपने हिस्से की लड़ाई जरूर लड़नी चाहिए। समझना यह है कि तीन हजार साल की ऐतिहासिक लड़ाई में इन बातों को कितनी तूल दी जाए। भंगी और ब्राह्मण के बीच के धार्मिक भेद को भंगी और चमार के बीच के वर्गीय भेद से तुलना न की जाए। पता होना चाहिए कि जिस गांव में भंगी नहीं होते उस गांव में भंगी का काम चमार ने किया है। भंगी और चमार का अंतर भंगी और भंगी तथा चमार और चमार का अंतर भी हो सकता है। ब्राह्मण जिस बात से घबराता है वह दलित की उस पोशाक से है जिसमें छाती पर आगे 'जय भंगी' और पीठ पर पीछे 'जय चमार' लिखा हुआ होता है।
पुन: पूछा जाए कि मैथिली ब्राह्मण और कन्नौजिया ब्राह्मण की अपनी-अपनी पृथक पहचान रखते हुए भी क्या वे दोनों भंगी और चमार के खिलाफ मिल कर नहीं लड़ते। उन में से कौन-सा एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण के मुकाबले में वेद का संशोधन कर के भंगी के घर में जनमे लड़के को शंकराचार्य की पदवी दे रहा है? किस ब्राह्मण की संपत्ति उत्तराधिकार में आज तक मुसहर और डोम को मिली है जो आज ब्राह्मण विद्वानों द्वारा कबीर के उभार के कारण जुलाहे और भंगी के फर्क का सवाल जहरीले रूप में प्रमुखता से उठाया जा रहा है? दलितों में फांट डालने की भेदबुद्धी के इस विषवमन का मतलब क्या है? क्या ब्राह्मण भंगी को गोद लेने को तैयार है? क्या एक डा. अम्बेडकर को ब्राह्मणी देकर चमार उस का सगा नाती-गोती बन गया है?"
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