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संतोष कुमार |
"रोहिणी घावरी ने 8 अगस्त, 2024 को अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा है कि -" हम भी चाहते हैं देश में बहुजन एकता कायम हो!!
सालों से हमने आपका नेतृत्व स्वीकार किया आपको नेता बनाया अब आप हमें बहुजन नेतृत्व दो!!सालों से हम आप के पीछे खड़े हुए अब आप हमारे पीछे खड़े हो!!
दिनाभाना वाल्मीकि जी से लेकर आज तक सब ने बहुजन आंदोलन में पूरी ईमानदारी से अपना सहयोग दिया!! अब आप हमें आगे बढ़ाने में साथ दो भाईचारा कायम रखो!!
और अगर हमारा नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते तो बहुजन एकता के आप खराब कर रहे हो हम नहीं!!
बहुजन एकता के नाम से सालों मेरी समाज को भीड़ का हिस्सा बनाये रखा उनके हक अधिकार के लिए कोई आंदोलन नहीं किया!!
वाल्मीकि समाज का राष्ट्रीय नेतृत्व सिर्फ इसलिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि हम आपके पीछे खड़े रहे और सामाजिक एकता चाहते थे!!"
अनुसूचित जाति वर्ग में भंगी जाति की एक लड़की के यह बोल हैं, जो विदेश से उच्च शिक्षा हासिल करी है। उन्हें इतना भी नहीं मालूम कि नेतृत्व करने के लिए जमीनी संघर्ष करना पड़ता है, त्याग और बलिदान करना पड़ता है और कार्य करने की योग्यता तथा दिशा तय करना पड़ता है। हवा में कोई आपको अपना नेता नहीं मान लेता है! स्विट्जरलैंड में जब से भाजपा के नेताओं से मिली हैं तब से इनके तेवर सियासी हो गये हैं! लोकसभा चुनाव से पहले चमार जाति और चंद्रशेखर आजाद रावण विशेष के प्रति सोशल मीडिया पर इन्होंने हमलावर रुख अख्तियार किया था। यही इनका भंगी के रूप में संघर्ष और आंदोलन है! चंद्रशेखर के सांसद बनने उपरांत इनके सुर बदल गये। और इनका कहना था कि 'मेरा सपना था संसद में आप को देखना' उसके बाद ब्राम्हणों के विशेष दल और पार्टी के बहकावे में आकर पंजाब और हरियाणा से आरक्षण पर भंगी आदि लोगों के सहयोग से सुप्रीम कोर्ट ने विभाजन की नींव डाल कर हमला किया। फिर रोहिणी जी के विषवमन का दौर शुरू हुआ। इनके उक्त पोस्ट का विश्लेषण करें तो बात स्पष्ट हो सकेगी!
1. इनकी मांग है कि भंगी जाति ने सालों से चमारों का सहयोग किया है, इसलिए बहुजन समाज की राजनीति का नेतृत्व सीधे इन्हें दे दो।
2. इनकी दूसरी मांग है कि भंगी जाति सालों से चमारों के पीछे रही है, इसलिए चमार भंगी जाति के लोगों के अब पीछे खड़े हों। दिनाभाना जी और भंगियों ने चमारों के आंदोलन में साथ दिया इसलिए अब आप लोग साथ दो।
3. तीसरी बात चमार भंगियों का नेतृत्व यदि स्वीकार नहीं कर सकते तो बहुजन एकता खराब करने के जिम्मेदार होंगे! और भंगी जाति के लोग निर्दोष।
4. चौथी बात बहुजन एकता के नाम पर सालों तक चमारों ने भंगियों को भीड़ का हिस्सा बनाये रखा और उनके लिए कोई आंदोलन नहीं किया और राष्ट्रीय नेतृत्व भी नहीं उभरा!
दिशाहीन और सामाजिक समझ के बगैर बात रखना निराधार पागलपन का घोतक होता है। चमारों ने दिनाभाना से पहले कब भंगियों को रोका शिक्षा ग्रहण करने से, आंदोलन खड़ा करने से। कांशीराम साहब केवल भंगियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक उत्थान के लिए आंदोलन तो कर नहीं रहे थे। शुरूआत में खापर्डे और दिनाभाना के साथ अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस के अवकाश के लिए मिलकर संघर्ष किया था। डा. अम्बेडकर के आरपीआई में उन्होंने एक कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू किया था। जहां उन्हें देखने को मिला आरपीआई में- आपसी फूट, राजनीतिक अल्पज्ञात, वैमनस्य और महत्वकांक्षा यह देखकर उन्होेंने अलग होकर स्वतंत्र आंदोलन की नीव रखी। उस समय तक दिनाभाना को किसने रोका था भंगियों के लिए स्वतंत्र आंदोलन तैयार करने से? दिनाभाना जी को सामाजिक समरसता और अपनी योग्यता का पता था। इसलिए साथ देने पर तैयार हुए थे। बाद के दिनों में कांशीराम साहब को किन लोगों ने धोखा दिया? दिनाभाना और खापर्डे गिरोह ने। ये लोग यहीं नहीं रूके। 1985 में पंजाबी चमार तजिदंर सिंह झल्ली को मोहरा बनाकर कांशीराम साहब के स्थान पर अध्यक्ष बनाया। बाद में खापर्डे खुद अध्यक्ष पद पर आसीन हुए। लेकिन उनकी महत्वकांक्षा का क्या हुआ? कांशीराम साहब ने अपने संगठन को उन लोगों के लिए त्याग कर के नया संगठन डीएस4, और बसपा गठन किया उसमें भी सफल रहे। कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे आप कितना भी बड़ा और मजबूत महल बना लें उसमें रहने वाले अयोग्य रहे तो वह भरभरा कर गिर जाएगा! कांशीराम साहब ने दलित, पिछड़े, आदिवासी और धर्मान्तरित अल्पसंख्यक लोगों के लिए स्वतंत्र सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के लिए अखिल भारतीय आंदोलन का सूत्रपात किया। इसमें भंगियों के साथ तीन वर्गों के लोगों ने साथ दिया। राजनीतिक चेतना के आ जाने से पिछड़े, आदिवासी और कुछ दलित जातियों ने राजनीतिक आंदोलन के द्वारा खुद का नेतृत्व भी तैयार किया। इसमें चमारों ने किसी को रोका हो तो सबूत दें, रोहिणी! बना बनाया खीर बुद्ध को सुजाता दे सकती सुजाता का समाज नहीं! आपको व्यक्तिगत स्तर पर भंगियों का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नेता बनना है तो जमीनी संघर्ष करें, अपने असली दुश्मन के खिलाफ। जिन्होंने आपके समाज को मैला उठाने पर मजबूर किया और आज भी सुलभ शौचालय के नाम पर उनसे मैला साफ करा रहेे हैं।
लडे़ उनसे जिन्होंने अपने धार्मिक ग्रंथों में भंगियों और चमारों के साथ अछूतपन का बना रखा है।
लडे़ उनसे जो आज भी आरक्षण को सही तरीके से इंप्लीमेंट नहीं होने दे रहे हैं।
लडे़ उनसे जो जातिगत दुर्भावना के आवेश में भंगियों और चमारों की बहू-बेटियों के साथ बलात्कार करते हैं।
लडे़ उनसे जो आपकी बहन के साथ आज के आधुनिक परिवेश में अस्पृश्यता का बर्ताव करते हैं।
लेकिन नहीं आपको तो चमारों से लड़ना है। जैसे इसी ने आपकी जाति के साथ अन्याय किया है? ब्राह्मण तो आपके समाज का सदा सहयोगी रहा है?
आपको यह बात कभी समझ में नहीं आएगी कि - "आरक्षण शुरू से ही विरोधियों के हाथ में राजनीतिक अस्त्र की तरह रहा है और आज तो धारदार हथियार बन गया है। अब इससे ज्यादे खतरनाक हथियार नहीं बन सकता। आरक्षण के इस वर्गीकरण से दलित कौम पहले से ही अलग-अलग उपजातियों में बंटी और बंट जाएगी और अलग-अलग लड़ने की स्थिति में होगीं ही नहीं, फलत: आरक्षण खत्म होगा। आरक्षण खत्म होने के साथ-साथ आरक्षण की आपसी लड़ाई में दलित उपजातियों के बीच इतनी कटुता पैदा कर दी जाएगी कि आगे वह संगठित हो कर वर्चस्वशाली राजनीति में लोकतांत्रिक राजनीति के साथ हस्तक्षेप करने की स्थिति में कभी आ ही नहीं पाएंगे। यह आरक्षण के राजनीतिक हथियार द्वारा दलित कौम को गुलामी के गड्ढे में गिराने की अब तक कि सबसे भयानक साजिश है।" (प्रोफेसर भूरेलाल, 6 अगस्त, 2024 फेसबुक से)
रोहिणी जी आप दलित साहित्य और इतिहास का अध्ययन करें तब चिन्तन की स्वायत्त दुनिया से वाकिफ होंगी अन्यथा महाराष्ट्र के स्वयंभू नेताओं सा आपका भी हस्र हो जाएगा। कोई भी समाज अपनी कौम से अलग-थलग होकर आगे नहीं बढ़ सकती। उसके सामाजिक सरोकार जुड़े होते हैं। आपके परिवार में और रमेश भंगी को सरकारी सेवा में आने से कौन चमार रोक सका? आपके उच्च शिक्षा हासिल करने के रास्तों में कितने चमारों ने कांटा बिछाया? आरएसएस और ब्राह्मणों की भाषा में बोलना बंद करें। आपमें इतनी ही ऊर्जा है तो जमीन पर उतर कर अपने लोगों का राष्ट्रीय नेतृत्व तैयार करें, चाहे संगठन बनाये या राजनीतिक पार्टी कौन चमार आप को रोक रहा है? आब आप यह सोच रही हैं कि चन्द्रशेखर अपनी पार्टी का आपको राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दें तो यह आपकी और उनके बीच की आपसी लड़ाई हो सकती है, पूरे भंगी या चमार समाज की नहीं। न पूरे भंगियों का नेतृत्व आप कर रही हैं और न हीं उनकी स्वायत्त आवाज ही आप हैं, उसी तरह चन्द्रशेखर भी पूरे चमारों के नेता और आवाज नहीं हैं। राजनीतिक महासंग्राम में उन्होंने आंदोलन और संघर्ष का रास्ता चुना, उनको उसका प्रतिफल मिला। आपके लिए मैदान खुला है, आएं संघर्ष का रास्ता अख्तियार करें? दुनिया में कोई नेता यह शर्त लिख कर आगे नहीं बढ़ता कि भला समाज उसके पीछे रहेगा, वही केवल आगे बढ़ेगा! इस तरह की बात पर लोग मानसिक दिवालिया घोषित कर देंगे! इस तरह की बात आपका भंगी समाज भी अस्वीकार कर देगा। आप समाज में उतर कर तो देंखे। हो सकता है आरएसएस या भाजपा आपको कहीं से चुनाव लड़ा दें या कोई पद दे दें, यह खैरात की बात है, अतीत में इस तरह के वाकाये होते रहे हैं। कौशल पवार इसकी उदाहरण हैं। साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, और अजय नावरिया गैर-दलितों के बहकावे में आकर इसी तरह डा. धर्मवीर पर हमलावर हुए थे। लेकिन उनका हस्र क्या हुआ सार्वजनिक है। मौलिक और सृजनात्मक लेखन, चिन्तन और आंदोलन ही आगे बढ़ते और सफल होते हैं बाकी अतीत के गर्द में कहीं खो जाते हैं। डा. धर्मवीर के मृत्यु के उपरांत सूरजपाल चौहान को अपनी गलतियों का एहसास हुआ, जिसे खत के लेखन द्वारा उन्होंने पश्चाताप किया! दिनाभाना से पहले 1920 के आसपास स्वामी अछूतानंद हरिहर ने समूची दलित, पिछड़े, आदिवासी जातियों के उत्थान के लिए आंदोलन कर रहे थे। उन्होंने हक अधिकार की लड़ाई में आंशिक सफलता भी हासिल कर ली थी। किन्तु हिन्दू महासभा, आर्यसमाज और कांग्रेस ने मिलकर उनके खिलाफ षडयंत्र करना शुरू किया। जिसमें ब्राह्मण अमीचंद शर्मा ने "श्री बाल्मीकि प्रकाश" लिखकर भंगियों को उनके आंदोलन से अलग होने को कहा। उस उक्त पुस्तक की भूमिका पढ़ी जा सकती है। तब से आज तक भंगियों का राष्ट्रीय नेतृत्व ब्राह्मणों नेे क्यों नहीं बनाया? जबकि उसके कहे अनुसार पंजाब में आदिधर्मी आंदोलन का भंगी और चमारों के मध्य विभाजन भी हुआ!
महाराष्ट्र में कांशीराम साहब के बामसेफ संगठन का विभाजन महाराष्ट्र के मांग, मातंग और महारों ने मिलकर किया, वे अपना राजनीतिक वजूद क्यों खो दिये?
आज बसपा यानी बहुजन समाज पार्टी के राजनीति का पतन केवल बाहरी कारणों से नहीं हो रहा है उसके पीछे आप जैसे भीतरी कारण भी जिम्मेदार हैं। अतीत में इस तरह उदाहरण मौजूद हैं। चमारों के नेतृत्व से अलग होकर भंगियों की कई जातियों ने खुद का ही नुकसान किया है। स्वतंत्र चिन्तन की जमीन से खुद का बगावत क्या कहलाता है? हर वक्त भंगियों ने ब्राह्मणों का सुना है। महावीर प्रसाद द्विवेदी 1914 में अपनी पत्रिका 'सरस्वती' हिराडोम के छद्म नाम से कविता लिख दी तो उसको अपना मान लिए। 1925 में अमीचंद शर्मा ने वाल्मीकि प्रकाश लिख दी तो वाल्मीकि को भंगी मान लिए! यानी खुद अपना इतिहास नहीं खोजना है, कोई और इनके हिस्से का काम करे। यही चाहत राजनीति में रोहिणी जी का है कि उनको चमार अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बना लें!
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