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मुजीबुर्हमान की स्टैच्यू को ध्वस्त करते आंदोलनकारी |
एशिया का एक ऐसा देश जिसका जन्म 1971 में हुआ, उसे बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। 7वीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति से लबरेज इस अविभाज्य क्षेत्र में विदेशी व्यापारियों का आगमन 13 वीं शताब्दी में प्रारंभ हो गया था। बौद्ध, ब्राह्मण और आम जनता आजीवक धर्म बहुल इस इलाके में धीरे-धीरे मुसलमानों का प्रभाव होता गया। 1947 में हिन्दुस्तान के आजाद होने में उस क्षेत्र के जन आंदोलनों का भी योगदान रहा। किन्तु देश के बटवारे के समय मुस्लिम बहुल इलाकों को दो हिस्सों में फटना पड़ा। एक पूर्वी पाकिस्तान बना, दूसरा पश्चिमी। पूर्वी पाकिस्तान ही बांग्लादेश के नाम से सामने आया। क्योंकि इस क्षेत्र की एक अलग भाषा और संस्कृति थी। जिसको बदल कर पाकिस्तान इस्लामिक कल्चर और भाषा लादना चाहता था। 'बांग्ला भाषा आन्दोलन (1952) तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में संघटित एक सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आन्दोलन था। इसे 'भाषा आन्दोलन' भी कहते हैं। आन्दोलन की मांग थी कि बांग्ला भाषा को पूर्वी पाकिस्तान की एक आधिकारिक भाषा की मान्यता दी जाय तथा इसका उपयोग सरकारी कामकाज में, शिक्षा के माध्यम के रूप में, संचार माध्यमों में, मुद्रा तथा मुहर आदि पर जारी रखी जाय। इसके अलावा यह भी मांग थी कि बांग्ला भाषा को "बांग्ला लिपि" में ही लिखना जारी रखा जाय। 21 फ़रवरी 1952 को ढाका में आयोजित विशाल प्रदर्शन 21 फरवरी 1953 को हुआ। उसमें ढाका विश्वविद्यालय की छात्राएँ बांग्ला भाषा के लिये शान्तिपूर्ण मार्च करते हुए आगे बढ़ रही थीं। जिसको सेना द्वारा रोकने की कोशिश हुई। यह आन्दोलन अन्ततः बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में परिणित हो गया। 1971में इसी के चलते भारत और पाकिस्तान में युद्ध हुआ और बांग्लादेश मुक्त हुआ। बांग्लादेश में 21 फ़रवरी को 'भाषा आन्दोलन दिवस' के रूप में याद किया जाता है तथा इस दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है। इस आन्दोलन तथा इसके शहीदों की स्मृति में ढाका मेडिकल कॉलेज के निकट 'शहीद मिनार' का निर्माण किया गया है।'(Wikipedia) मुजीबुर्हमान भारतीय सेना की मदद से अपने मुल्क को पाकिस्तान से आजाद कराने में सफल तो हो गये। किन्तु सैन्य विद्रोह ने उनके पूरे परिवार को रााष्ट्रपति बनने के तीन वर्ष के भीतर ही हत्या कर दी। शेख हसीना और उनकी बहन जर्मनी में अपनी तालीम पूरी कर रही थींं, वे बच गईं। और भारत में आकर शरण लीं। लगभग आठ वर्षों में बांग्लादेश का माहौल जब शांत हुआ तब शेख हसीना अपने वालिद की "आवाम लीग" पार्टी ज्वाइन किया। 1996 में प्रधानमंत्री बनीं। फिर सैन्य तख्तापलट के बाद वह बाहर हो गईं। 2006 के बाद वे लगातार प्रधानमंत्री बनीं रहीं। अपने पांच बार के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उन्होंने बांग्लादेश की आर्थिक और सामाजिक ढांचे को बहुत हद तक सुदृढ़ किया। किन्तु जन आक्रोश की सुलगती चिंगारी को वे पहचान पाने में बिफल रही हैं। किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक व्यक्ति का पद पर बने रहने से लोकतांत्रिक मूल्यों पर स्वत:ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। तथा वह तानाशाही की ओर उन्मुख होने लगता है। भारत में भाजपा के दूसरे कार्यकाल से ही तानाशाही का आरोप लगने लगा था। तीसरे कार्यकाल में जनाक्रोश के कोपभाजन को नियंत्रित करने में भाजपा सफल रही लेकिन जनाधार किसी हिंसक उकसावे का शिकार नहीं हुईं। यह सहनशीलता भारतीयता मूल्य हो सकता है लेकिन परिवर्तनशीलता का घोतक नहीं! क्योंकि भारत का आम जनमानस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा ही परिवर्तन में विश्वास का आकांक्षी है। हालांकि यही प्रवृति उसे यथास्थिति की ओर भी ले जाती है। लेकिन हिंसा की आग से उसे बचती भी है। बांग्लादेश में बेरोजगारी, मंहगाई और लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास ने वहां के छात्र आंदोलन को हवा दे दी। क्योंकि पाकिस्तानी सेना से जिन लोगों ने लड़ कर बांग्लादेश को आजाद कराया था, उनके परिजनों के लिए सरकारी नौकरी में 30 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलने का विरोध हो रहा था। लेकिन इसके पीछे की हवा कहीं और से भी बहने की संभावना हो कतई, इंकाा नहीं किया जा सकता। क्योंकि पिछले दिनों पाकिस्तान में सैन्य शासन का होना फिर श्रीलंका उसके बाद बांग्लादेश की लोकशाही का ध्वस्त होना। भारत के आगे - पीछे अस्थिरता पनपने का खतरा ही तो है। और राष्ट्रीयता की सतर्कता का सबब भी है। बांग्लादेश के राष्ट्रपति मुजीबुर्हमान के प्रति जनता की नफरती गुस्सा, उनकी मूर्ति का अपमान सोचने पर मजबूर करता है कि यह भी दौर राष्ट्र नायकों के लिए देखने को मिल रहा है। भारत में कट्टरवादी मानसिकता ने ही राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गाँधी की हत्या की थी। आज भी उस मानसिकता के लोग राष्ट्र नायकों के प्रति अनादार प्रवृति रखते हैं। दुनिया में उथल-पुथल की राजनीतिक व्यवस्था कायम है। चाहे रशिया और उक्रेन वार हो या फिर इजराइल और फिलीस्तीन के मध्य अस्तित्व की जंग। हर जगह नीरी मानवता का दमन और लोकतांत्रिक मूल्यों का खात्मा नजर होता आ रहा है। लोग एशिया में भारतीय लोकतांत्रिक प्रकिया की ओर देखते हुए सराहना कर रहे हैं किन्तु उन्हे नहीं पता कि केन्द्रीय सता हमेशा कैप्टलिज्म, रिलीजन और सामंती ताकतों के हाथों में रहा है। उदार और कट्टर के रूप में वे दो चेहरों के साथ बारी बारी से से राज कर रहा है। सर्वहारा वर्ग के दलित, आदिवासी और पिछड़े गरीब मजदूर राज्य सत्ता तक ही मदूद रहे हैं। क्या स्टेट वार ही सेंट्रल पावर को अपदस्थ कर सकती है? सवाल गहरे हैं और उसके बहुतेरे घतरे भी हैं। लेकिन बांग्लादेश ने परिवर्तन के जिस आंदोलन का आगाज किया है। वह अतीत की हिंसा से बहुत कम लेकिन ज्यादा सफल है। शेख हसीना का परिवार शाही राज्य सत्ता का अंग बन गया था। ब्रिटेन की सरकार में भी इनके परिवार के लोग मंत्री हैं। लेकिन दूसरे किसी को सत्ता तक नहीं पहुंच ने देना। कई मामलों में जन आंदोलन को हवा देने के लिए काफी था।
संतोष कुमार
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