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लेखक- संतोष कुमार |
"प्रशासनिक भाषा में दलितों को अनुसूचित जाति कहा जाता है लेकिन इस बारे में मेरे सोचने का ढंग दूसरा है। मैं चमारों को 'गोल्ड' और 'भंगियों' को 'डायमंड' कहता हूं। सामान्य श्रेणी के अधिकारियों और कर्मचारियों को इनके मुकाबले में कांसा और ताम्बा कहा जाना चाहिए। सरकारी दफ्तरों में भंगियों और चमारों का मिलना सबसे मंहगी चीज का मिलना है। संविधान आरक्षण की व्यवस्था से इन बहुमूल्य खानों की खोज में और खुदाई में लगा हुआ है।" - डा. धर्मवीर
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 1 अगस्त, 2024 को लखविन्दर बनाम पंजाब और हरियाणा स्टेट के केश को आधार बनाते हुए। अनुसूचित जाति /जनजाति को मिलने वाले संवैधानिक रिप्रेजेंटेशन/आरक्षण के अधिकार में संसोधन करते हुए राज्य को सब-कटेगरी विभाजन की अनुमति दे दी है। इससे दिल्ली और हरियाणा, पंजाब के कुछ भंगी /खटिक जातियों के संगठन और लोग खुश हैं। जबकि 95% प्रतिशत दलित-आदिवासी लोगों में आक्रोश है। Representation (प्रतिनिधित्व) के निर्णय के दिन से सवर्ण हिन्दुओं में असंतोष विद्यमान था। जिसे Reservation (आरक्षण) का नाम देकर तरह-तरह से परिभाषित कर विरोध जताया जाता रहा है। इसी के फलस्वरूप इस न्यायिक व्यवस्था को निष्प्रभावि बनाने के लिए NFS, 13point Roster इत्यादि युक्ती अपनाते रहे हैं। इससे भी बुरी बात यह सामने आई कि सवर्ण खासकर ब्राह्मण जातियाँ अनुसूचित जाति और जनजातियों के कास्ट सर्टिफिकेट बनवाकर उनकी जगह सरकारी नौकरी हासिल कर रहे हैं। इसके बावजूद जब उन का सामना सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र दलित जातियों से होने लगा तो वे इसे खत्म करने के लिए तरह-तरह की तरकीब ईजाद करने लगे।
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इस अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट निर्णय नहीं दे सकता |
दलित-आदिवासियों की सामाजिक और राजनीतिक अखंडता को विभक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में बैठ ब्राह्मण जजो ने 6-1 से अपना निर्णय सुना दिया। आरक्षण के अधिकार और आंदोलन की इतिहास की जड़ें पुरानी हैं। जिसे प्राप्त करने के लिए स्वामी अछूता नंद की अगुवाई में अखिल भारतीय स्तर पर संघर्ष करना पड़ा था। दिल्ली में प्रिंस आफ वेल्स के समक्ष दस हजार चमारों ने अपनी दुर्दशा के बारे में अवगत कराया और समूची दलित जाति के लोगों के हक-अधिकार को 17 सूत्रीय मांग पत्र सौंपा। इस के विरोध में गांधीजी और कांग्रेस ने तरह-तरह से दलित नेतृत्व को प्रताड़ित और अपमानित किया। लेकिन अंग्रेज़ न्याय पसंद लोग थे। उन्होंने एक कमीशन गठित कर उनकी मांगों को अमल में लाने का आदेश पारित किया। उसके बाद इतिहास के पटल पर डा. अम्बेडकर का आगमन होता है। गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी और डा. अम्बेडकर के बीच दलित नेतृत्व को लेकर जमकर बहस होती है। अब आधुनिक भारत के इतिहास में दलित, आदिवासी आंदोलन का सूत्रपात होता है। संघर्ष की आवाजें अखिल भारतीय स्तर उठने लगती हैं। अंग्रेज़ दलितों के हकों को वाजिब मान कर Sepret Electoret का अधिकार दे देती है। ताकि कार्यपालिका और विधायिका में दलितों का रिप्रेजेंटेशन सुनिश्चित हो सके। 1936 के आम चुनाव से पहले इसका सफल प्रयोग होना था। लेकिन उससे पहले इस व्यवस्था की शक्ति का आकलन करते हुए जातिवादी सर्वणों ने गांधीजी जी के प्राण दाव पर लगा दिया। गांधीजी को भी दलितों को मिलने वाले इस अधिकार से चिढ़ थी। इसीलिए उन्होंने इस के खिलाफ 'आमरण अनशन' शुरू कर दिया। जाहिर है, एक बार सेपरेट इलेक्शन का स्वाद दलित-आदिवासी चख लेते तो उसके लिए अपना जीवन दाव पर लगा देते। उससे पहले गांधीजी ने वह दाव खेल दिया। इस सब से आसान शिकार 'डा. अम्बेडकर' हुए और दलित-आदिवासी को मिले 'सिपरेट इलेक्टोरेट' के अधिकार की जगह 'पूना-पैक्ट'(आरक्षण) कर लिए। इस खबर ने समूचे भारत में गांधी जी और कांग्रेस को दलितों का दुश्मन बना दिया। खास कर पंजाब में बाबू मंगूराम मुग्गोवालिया जो आदिधर्मी आंदोलन चला रहे थे, काफी नाराज हुए। उनका मानना था कि बाबा साहब को भी अपने लोगों को लिए गांधी के सामने प्राण की बाजी लगा देनी चाहिए थी। लेकिन जिस दिन 'सेपरेट इलेक्ट्रोड' का अधिकार दलितों से छिन कर 'पूना पैक्ट' में तब्दील हुआ, उसी दिन उस पर गैर-दलितों का नियंत्रण हो गया। वे इसे जिस तरह परिभाषित करना चाहे, जिस तरह लागू करना चाहे, करते रहे। इसे राजनीतिक टूल की तरह इस्तेमाल करते, समाज को उकसाते हुए मजे लिए। कमी दलित, आदिवासी और पिछड़ों की थी। उन्होंने अपने हक-अधिकार को नहीं समझा और नहीं एक राजनीति शक्ति में संगठित हो सके! सत्ता के निजी मद में चूर दलित, आदिवासी और पिछड़े अलग-थलग दल के सदस्य और बर्चस्व वादियों के हाथों का औजार बन कर रह गए। न्यायपालिका में कोलेजियम और सार्वजनिक संस्थाओं में निजीकरण की व्यवस्था ने 'प्रतिनिधित्व' (Representation) की बखिया उधेड़ कर 'आरक्षण' (Reservation) शब्दावली का प्रयोग कर उन्हें व्यवस्था से बाहर कर दिया। भाजपा के कट्टरवाद और कांग्रेस के उदारवादी नीति ने बारी-बारी से दलित, पिछड़े, आदिवासियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष राज्य किया। बढ़ती जनसंख्या और दलितों को मिलने वाले हक को NFS नामक दैत्य के द्वारा निगलने की नयी प्रवृत्ति का जन्म हुआ। क्रिमीलेयर की जो परिभाषा न्यायालय या राज्य तय करती है, उससे समाज के अंदर विभेद का जन्म होता है। क्रिमीलेयर जातियां सवर्ण मानसिकता की घोतक हो जाती हैं, उनको अपने समुदाय की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रह जाता है। पिछड़ी जातियों में आर्थिक क्रिमीलेयर जितनी तय है, उतनी दर से अगड़ी EWS को गरीब माना जाता है! न्यायपालिका में दलित, पिछड़े और आदिवासियों की उचित प्रतिनिधित्व न होने के कारण ही ऐसे अलोकतांत्रिक और अव्यवहारिक अवधारणा विकसित होती है। लेकिन कार्यपालिका में उक्त समुदायों के प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी चुप रहना, चिंता का विषय है! इसका एकमात्र कारण 'पूना पैक्ट' के चमचों का होना है। क्योंकि दलित अपने वास्तविक प्रतिनिधि को 100% भी वोट कर दे तो भी चमचों को सवर्ण समाज अपने रसूख से जीता कर अपने पाले कर लेता है और समाज के विपरीत निर्णय लेने में उसका समर्थन भी प्राप्त करता है।
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मायावती जी की टिप्पणी |
उच्च न्यायालय के फैसले से आने वाले समय में दलितों के भीतर एक नई ज़हरीली पौध का जन्म होगा जिसकी 'बीज' न्यायालय के द्वारा ब्राह्मणों ने डाली है।
इस विषय पर प्रो. भूरेलाल को उद्धृत करना समचीन होगा-"अनुसूचित जातियों के आरक्षण में कोटा के भीतर कोटा की व्यवस्था से सबसे पहले चमारों को आरक्षण से बाहर किया जाएगा।उपरांत इस्तेमाल करने के बाद बाकी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा।अभी आरक्षण से भर्ती के लिए योग्य उम्मीदवार मिलते नहीं हैं और पहले यह लिख कर कि 'suitable condidates are not available' आरक्षण का कोटा खाली रखा जाता था।उपरांत 'Not Fit For Service' (NFS) लिख कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।यह निर्णय न केवल असंवैधानिक है,बल्कि राजनीतिक निहितार्थ वाला भी है।इससे दलित कौम की पूरी बर्बादी का रास्ता प्रशस्त होता है।
'Seperate Electorate' को,जो स्वामी अछूतानंद और बाबू मंगूराम के 20 वीं शताब्दी के अखिल भारतीय 'आदिधर्मी'आंदोलन की उपलब्धि थी,उसे हिन्दू महासभा के नेताओं के साथ मिल कर 'पूना पैक्ट' यानि ग़ुलामी के पैक्ट में बदल दिया गया याने दलितों को द्विजों की कृपा पर निर्भर रहने के लिए अभिशप्त कर दिया गया।राजनीतिक आरक्षण का कोटा केवल 10 वर्षों (1950-60) के लिए था,उसे दलितों के विरोध के बावजूद 2025 तक के लिए कर दिया गया,ताकि 'चमचा-युग' (An Erra of Stoopes) बरकरार रहे।वहीं इसके विपरीत नौकरियों में आरक्षण का कोटा भरने की लगातार मांग और आंदोलन के बावजूद हमेशा खाली रखा गया।आज दलित द्विजों की कृपा से आरक्षण खाने के बावजूद ग़ुलाम के ग़ुलाम हैं।स्वतन्त्र चिंतक डा. धर्मवीर का कहना है कि 'आरक्षण तो वेंटीलेटर पर सांस ले रहे मरीज की तरह है,जिसमें मरीज तभी तक जिंदा है,जब तक वेंटीलेटर है।जब वेंटिलेटर हटा लिया जाएगा ,तब मरीज भी चल बसेगा।जब आरक्षण भी खत्म हो जाएगा,तब दलित क्या करेंगे..?' दलितों को अपना स्वतन्त्र आर्थिक और राजनीतिक रास्ता खोजना और ईजाद ही करना होगा।लेकिन तब तक आरक्षण को लेकर द्विजों की राजनीति उन्हें तबाह कर चुकी होगी।दलितों की राजनीतिक ग़ुलामी का रास्ता 'पूना पैक्ट' (24 सितंबर,1932)से प्रशस्त हुआ,तो साँस्कृतिक ग़ुलामी का मार्ग 'बौद्ध धर्मान्तरण' (14 अक्टूबर,1956) से बना।इसकी काली छाया से लाख संघर्ष के बावजूद मुक्ति नहीं मिल पा रही है।
यह निर्णय बीजेपी आरएसएस के पक्ष में है।बीजेपी उ.प्र. में राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री रहते यह प्रयोग कर चुकी है,जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इस सरकारी निर्णय को खत्म कर दिया था।अनुसूचित जातियों के बारे में भी बीजेपी आरएसएस ने लगातार 'कोटे के भीतर कोटे' और 'क्रीमी लेयर' की मांग करते आ रहे थे।छह जजों में से एक मी लार्ड ने 'क्रीमी लेयर' भी तय करने का निर्देश दिया है।
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प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड के अतार्किक बयान |
यह आरक्षण विरोधी भी जानते होंगे कि 'आरक्षण' एक संवैधानिक एवं प्रतिनिधित्व की व्यवस्था है,यह गरीबी दूर करने का (गरीबी हटाओ) कार्यक्रम नहीं है।लेकिन वह 'आर्थिक आधार पर आरक्षण' की मांग कर के या 'कोटा के भीतर कोटा' का नारा उछाल कर दलितों को आपस में विभाजित कर लड़ाना चाहते हैं,ताकि दलित सँगठित हो कर न तो कोई स्वतन्त्र सामाजिक व राजनीतिक रास्ता अख्तियार कर सकें और न ही सँगठित हो कर व्यवस्था की मार झेल सकें और हमेशा की तरह ग़ुलाम बन कर रह जाएं।दलितों को ग़ुलाम बनाने के लिए द्विजों के स्तर से जो भी प्रयोग किए जाते आ रहे हैं,उसमें दलितों के भितरघातियों का भी योग रहा है और ये भितरघाती औज़ार की तरह इस्तेमाल होते आए हैं।
अब समय आ गया है कि इन भितरघातियों से निर्णायक युद्ध लड़ा जाय, अन्यथा कौम कभी ग़ुलामी से उबर न सकेगी और न ही आगे लड़ने के लिए अगली स्वतन्त्र पीढ़ीतैयार ही कर पाएगी।इतिहास का यह दौर सबसे कठिन ही नहीं,सबसे निर्णायक भी है।अगर 'अब नहीं तो कभी नहीं' की रणनीति नहीं अपनाई गई ,तो दलित कौम इतिहास में हमेशा के लिए 'पराजित कौम' के तमगे के लिए अभिशप्त हो जाएगी।"
भंगी और खटिक जाति दलितों अलगाव क्यों चाहती हैं?
इस विभेद की नीव पुरानी है। ब्राह्मण अंग्रेजों से 'फुट डालो राज करो' की नीति सीखकर अपने दलित, पिछड़े, आदिवासियों गुलामों पर प्रयोग करती है। जब उन्हें लगता है कि उक्त समुदायों में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक चेतना और शक्ति का संगठन तैयार हो रहा है तो वे साम-दाम दंड-भेद की युक्ति द्वारा उनमें विभेद करा देते हैं। आज से लगभग 100 वर्ष पहले यही हुआ था। स्वामी अछूता नंद के नेतृत्व में दलित, पिछड़े, आदिवासियों की सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का उभार, आदिधर्मी, आदिद्रविण, आदि हिन्दू के रूप में तैयार होने लगा था। इस प्रभाव समुचे हिन्दुस्तान में था। 'हिन्दू' शब्द के भौगोलिक अर्थ के धार्मिक राजनीति को उन्होंने रिड्यूस कर दिया था। आर्य और मूलनिवासी यथार्थ की जमीन को अंगारा बना दिया था। तभी 'हिन्दू महासभा' और 'आर्य समाज' के लोगों ने षड्यंत्र के द्वारा भंगियों को अलग करने के लिए 1925 में 'श्री बाल्मीकि प्रकाश' पुस्तक लिख कर उनको अलगाना शुरू कर दिया। इस बात को हवा देने के लिए तत्कालीन राजनीतिक शक्तियाँ भी शामिल हो गईं। और स्वामी अछूता नंद के आंदोलन को भीतर से दो फाड़ कर दिया गया। डा. धर्मवीर अपनी ऐतिहासिक किताब 'प्रेमचंद की नीली आंखें' में अमीचंद शर्मा द्वारा लिखित भूमिका को उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है-
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निर्णय के दिन रमेश भंगी आधुनिक अमीचंद शर्मा डा. ओपी शुक्ला के साथ |
1 टिप्पणियाँ
समसामयिक बेहतरीन लेख
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