बहुजन राजनीति का भविष्य

'दलित चिन्तन को उदारवाद से सब से बड़ा खतरा तब  पैदा होता है जब गाँधी जी जैसे लोग दलितों का प्रतिनिधित्व करने का दुस्साहसी दावा पेश कर जाते हैं। यह दलितों का नेतृत्व छीनने की बात है। इससे बड़ी वैचारिक डकैती दूसरी नहीं हो सकती' - डा. धर्मवीर

मान्यवर कांशीराम 


संतोष कुमार // 1970-80 के दशक में भारतीय राजनीति में बड़ा परिवर्तन देखने को मिला। इस ऊर्जा के पीछे इतिहास से निर्मित "बहुजन राजनीति" का उदय कांशीराम साहब के नेतृत्व में हुआ। इस सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन के आंदोलन में दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों की बहुसंख्यक आबादी ने योगदान दिया। 'बामसेफ', 'डीएस-4' से होते हुए 'बहुजन समाज पार्टी' तक कि यात्रा कई उतार-चढ़ाव और प्रयोग से होते हुए, मुख्य धारा की राजनीति के सामने चुनौती पेश करते हुए अपना स्वतंत्र राजनीति इतिहास लिखा। किन्तु शिथिल पड़ती वैचारिक प्रसार और चिन्तन का Inclusive testament' अम्बेडकर वाद से आगे नहीं बढ़ सका। द्विज राजनीति ने अपने जनाधार पर नियंत्रण के लिए हिन्दुत्व की राजनीति को जनान्दोलन में बदलकर 2014 में केन्द्रीय सत्ता पर आसीन हुई। आरएसएस ने बहुजन राजनीति की पैरोडी को भाजपा में प्रयोग कर के उसे Exclusive स्वरूप दिया। और 'बहुजन समाज' के भीतर से जातीय राजनीति को हवा देना शुरू किया। उसके बाद छोटे-छोटे दलों का उभार और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने बहुजन समाज पार्टी को पहली हानि पहुँचाई।  उ. प्र. में 2007-2012 के बीच पूर्ण बहुमत की बसपा ने अखिल भारतीय स्तर पर अपने राजनीतिक नेटवर्क को मजबूत करने में असफल रही और उसका झुकाव केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित रहा।

वहीं दूसरी तरफ पिछड़ों की राजनीति उभार ने द्विज राजनीति से गठजोड़ कर के दलित राजनीति के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया और हिंसक राजनीति का दौर शुरू हुआ। मुलायम सिंह यादव की सपा और बिहार में लालू प्रसाद तथा दक्षिण में स्टालिन की सरकार ने सत्ता हासिल तो किया लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की धार को कमजोर किया। बसपा को तोड़ने के लिए भीतरी और बाहरी तत्वों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। 2012 के विधानसभा चुनावों में बसपा को चौतरफा हमला झेलना पड़ा। मीडिया ने तो उसका पूरी तरह बायकाट कर दिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में एक्शन राजनीतिक दौर की शुरुआत हुई, नये वोटर और उनकी गतिशील मनोकांक्षा, धर्म और पूंजी के गठजोड़ ने पूरे भारतीय राजनीति को हिला कर रख दिया और केन्द्रीय पटल से अपने उदार राजनीति सहयोगी कांग्रेस को रिप्लेस कर के कट्टर भाजपा आसीन हुई। जातिवाद, भेदभाव, सांप्रदायिक हिंसा और उत्पीड़न का नया वर्जन देखने को मिला। लोकतंत्र और विपक्ष का नगण्य होना, बहुजन समाज को हताशा और निराशा की ओर ले गया। वहीं दूसरी तरफ समाज में विरोधियों द्वारा नैरेटिव तैयार किया गया कि 'बसपा चमारों की पार्टी है' और चमार तो अछूत होते हैं। इसलिए उनकी राजनीति को भी अछूत पन से गुजरना होगा। इस से अलग उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की स्पा, उनके पुत्र अखिलेश यादव के हाथों में आ गई थी। उन्होंने समाजवाद के उलट द्विजवाद की राजनीति का ऐसा समर्थन किया कि भाजपा 2017 में उत्तर प्रदेश में आ गई। सपा ने अपनी हार की भड़ास को बसपा को गाली देकर निकाला और कहा कि बसपा भाजपा की बी टीम है। इससे उलट बसपा ने कोई जवाब नहीं दिया और चुप्पी साध ली। इसी आवाज को 2024 में राहुल गांधी और अखिलेश यादव के द्वारा मुखरता से प्रसारित किया गया कि बसपा भाजपा को हराने के लिए हमारा सहयोग नहीं दे रही है, क्योंकि वह भाजपा की बी टीम है। इसका सीधा असर सामान्य जनता पर पड़ा और बसपा अपने कोर वोट से भी वंचित हो गई।

लेकिन जहां एक ओर उदारवादी द्विज पार्टी कांग्रेस अपनी पुरानी सत्ता प्राप्त करने लिए संघर्ष कर थी वहीं कट्टरवादी द्विज पार्टी भाजपा अपनी सत्ता बचाने के लिये लड़ रही थी। इस लड़ाई के वास्तविक किरदार को न समझ कर बसपा के अलावा सभी दलित, पिछड़े और आदिवासी राजनीतिक दलों ने दोनों धड़ों का सहयोग किया। इसे एक महायुद्ध की तरह महौल दिया गया और बसपा को फलक से बाहर कर दिया गया। ऐसी कठिन परिस्थितियों में बसपा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए दो महाशक्तियों से लड़ना था। और उसका सहयोगी न मीडिया थी, न कोई पूंजी और न ही कोई राजनीतिक दल! अपनी सारी ऊर्जा लगाकर भाजपा और कांग्रेस दोनों को कमजोर करके भारतीय राजनीति को पावर बैलेंस में ला दिया। हालांकि की इस लड़ाई में बसपा ने अपना सब कुछ गंवा दिया। लेकिन अपनी स्वतंत्र राजनीति को गिरवी नहीं रखा। अब जब भारतीय न्यायपालिका और विधायिका के द्वारा दलितों के राजनीतिक अधिकार पर हमला बोला गया तो बसपा एक्शन पालिटिक्स को समझ कर अपने पुराने तेवर के साथ जमीनी संघर्ष के लिए तैयार हुई है। आज के परिवेश में जिस सिद्दत और जिम्मेदारी के साथ मायावती ने दलित और आदिवासी मुद्दों को उठाया है, वह एक नयी राजनीतिक ऊर्जा का उभार है। सुप्रीम कोर्ट में बैठे ब्राह्मण न्यायाधीशों ने दलित और आदिवासी आरक्षण में वर्गीकरण के असंवैधानिक निर्णय पर जहाँ एक ओर जागरूक दलित आदिवासी लोगों में आक्रोश पनपा, वहीं भंगी जाति ने इसका स्वागत किया। संविधान बचाने का दंभ भरने वाली कांग्रेस गठबंधन ने भी इस पर चुप्पी साध लिया। हिन्दुत्व की राजनीति ने वंचित वर्गों के इस राजनीतिक हथियार के सहारे ही उन्हें दो भागों में विभाजित कर दिया गया। इससे न केवल बहुजन राजनीति की हानि हुई बल्कि सामाजिक एकजुटता और सौहार्द भी प्रभावित हुआ।

बसपा, कांशीराम की वैचारिकी "उत्तर-अम्बेडकर चिन्तन" को आत्मसात कर के यदि आगे बढ़ती है तो आने वाला भविष्य उसका होगा। लेकिन उसके सामने फिर वही चुनौती है छोटे दलों का राजनीतिक उभार और निजी हीत। मीडिया के वैकल्पिक साधन की तलाश करनी होगी। कांशीराम साहब पूरे भारत के लोगों से संवाद कायम करने के लिए कई भाषाओं में अखबार का प्रकाशन कराते थे। उनकी दृष्टि बिल्कुल सीधी और स्वतंत्र थी। वे मजबूत राजनीति करते थे, मजबूरी उनके चिन्तन में नहीं थी। महान आजीवक दार्शनिक डा. धर्मवीर ने बहुजन समाज के विखराव का कारण वैचारिक अपरिपक्वता  माना और धार्मिक राजनीतिक के सामने धर्म की राजनीति करने का सकारात्मक चिन्तन दिया। यह दृष्टिकोण इतिहास से अभिप्रेरित और मौलिक है। क्योंकि शासक धर्म के नाम पर ही लोगों को संगठित और आंदोलित करता है और उसी को राजनीति में इस्तेमाल करता है। लेकिन दलितों के सामने "धर्मांतरण" की समस्या है। जिस की वजह से वह कई धर्मों में बिखर जाता है। इस का समाधान डा. धर्मवीर ने 'आजीवक धर्म' खोज कर समाधान प्रस्तुत कर दिया है। किन्तु डा. अम्बेडकर का व्यमोह बहुजन समाज पार्टी की राजनीति को गतिशील होने से रोकता है। आज की आरक्षण की समस्या जिम्मेदार दो व्यक्ति थे एक गांधीजी और दूसरे बाबा साहब डा. अम्बेडकर। एक ने अपने लोगों के वर्चस्व के लिए मजबूर किया तो दूसरे महा पुरुष मजबूर हुए। स्वामी अछूतानंद हरिहर के अखिल भारतीय आदि हिन्दू आंदोलन ने 'सेपरेट इलेक्शन' की पावर हासिल कर ली थी। किन्तु 'पूना पैक्ट' ने आम चुनाव से पहले उस का चुना निकाल दिया। साहब कांशीराम इससे उपजने वाले द्विजों के पर-आश्रित चमचों से वाकिफ थे, इसलिए "पूना पैक्ट धिक्कार दिवस" के द्वारा अपने लोगों को जागरूक करते थे। लेकिन गत दो दशकों में बसपा के वैचारिक कैडर का रूक जाना नई पीढ़ी को गुमराह होने से नहीं रोक पाई।

दूसरे दलितों के भीतर से टूट कर निकलने वाले दलों ने केवल उत्तर प्रदेश को अपने राजनीतिक ऊर्वर भूमि के रूप में देखा। जिन्हें विरोधियों ने हवा देकर उकसाया भी। सोनेलाल पटेल, राजभर, संजय निषाद, चंद्रशेखर, मेश्राम, स्वामी प्रसाद मौर्य इत्यादि लोग जो कल तक बहुजन राजनीति के अंग थे, अलग होकर बसपा के खिलाफ राजनीति करनी शुरू की। इससे भी राजनीतिक परिवर्तन की धार कमजोर हुई। अंत में मायावती का अपने भतीजे आकाश आनंद को राजनीति वारिस घोषित कर देना उसे सपा, रालोद इत्यादि पार्टियों की श्रेणी में ला कर रख दिया। पुराने कांशीराम वादी लोगों ने इसे पार्टी संविधान के खिलाफ माना! बीच में जोड़-तोड़ की राजनीति ने भी बसपा को नुकसान पहुंचाया। आज की स्थिति यह है कि दलितों और आदिवासियों पर होने वाले उत्पीड़न पर कोई मजबूती से बोलने वाला नहीं है, संसद में। विरोधी दलों ने पूना पैक्ट को हथियार के रूप में आज दलित और आदिवासी समाज के खिलाफ प्रयोग करना शुरू कर दिया है। 

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