बहुजन राजनीति का भविष्य (भाग - दो)

संतोष कुमार 

कि
सी भी समाज की राजनीति उस समाज की स्वतंत्र चिन्तन और दर्शन निर्मित होती है। यदि समाज सशक्त और कमजोर है तो उसकी राजनीति मजबूत नहीं हो सकती। बाबा साहब डा. अम्बेडकर ने लोकतांत्रिक भारत के निर्माण अहम भूमिका अदा की लेकिन स्वतंत्र राजनीति में उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा। लेकिन उनसे पहले स्वामी अछूता नंद हरिहर और बाबू मंगूराम मुग्गोंवालिया के नेतृत्व में आदिधर्मी आंदोलन ने पंजाब एसेंबली में अपने कुछ प्रतिनिधियों को जीता कर भेजा था। क्योंकि वहाँ जमीन आंदोलन को एक नई दिशा दे रही थी। और समाज मजबूत हो रहा था। इसलिए वर्चस्व मानसिकता के सवर्ण समाज वहीं फूट डालने की चाल चली। दुश्मन सबसे कमजोर कड़ी पर ही निशाना साधता है। जहां से उसे सफलता की उम्मीद होती है। पंजाबी ब्राह्मण अमींचद शर्मा ने भंगियों के मन चमारों के प्रति खासकर स्वामीजी अछूतानंद हरिहर के खिलाफ अपनी पुस्तक 'वाल्मीकि प्रकाश' में लिखा। इससे प्रभावित होकर कुछ भंगी जाति के लोग आदि धर्मी आंदोलन अलग होकर वाल्मीकि को पूजने के कार्यक्रम में शामिल हो गए। जबकि उन्हें अपने लोगों के संघर्ष करने की जरूरत थी।

डा. अम्बेडकर पार्क लखनऊ, बसपा के शासन काल में निर्मित 


          01 अगस्त, 2024 को माननीय सुप्रीम कोर्ट में बैठे ब्राह्मण जजों की टीम ने संवैधानिक प्रतिनिधि को कमजोर करने के लिए राज्यों को र्गीकरण करने इजाजत दे दी। इससे पहले दलितों के संरक्षण के कानून पर 02 अप्रैल, 2018 को "भारत बंदी" का जनान्दोलन हुआ जिसमें दर्जनों युवाओं की जान चली गई और सरकार को बैकफुट होना पड़ा। उसके छ वर्ष बाद भागीदारी के प्रावधान पर कोर्ट द्वारा हमला किया गया। जिसमें बहुजन समाज के लोगों में आक्रोश तो हुआ लेकिन भविष्य के हिंसक आंदोलन से सबक लेते हुए, 21, अप्रैल 2024 को बसपा द्वारा "अहिंसक आंदोलन" हुआ। इस आंदोलन का मुख्य ऐजेंडा 'भारत बंद' न होकर जिले स्तर राष्ट्रपति को ज्ञापन देना था जो कि सफल रहा। लेकिन इसका असर सरकार और उसकी व्यवस्था पर पड़ने के कारण नतीज़ असफल रहा। कांग्रेस का लोकसभा के चुनाव में 'संविधान बचाने' को मुद्दा बनाना लेकिन दलित और आदिवासी आरक्षण के मुद्दे पर आंदोलन न्यूट्रल रहना। यह सुनियोजित गैर-बहुजन राजनीति का षडयंत्र भी साबित होता है। बसपा के बैनर तले तमाम दलित और आदिवासी संगठनों यह आंदोलन जमीन स्तर प्रभावकारी तो रहा लेकिन क्रांतिकारी नहीं। क्योंकि भाजपा और आरएसएस के सामने सबसे बड़ी चुनौती बसपा थी। दोनों सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना की राजनीति करते हैं। जहाँ भाजपा और आरएसएस आर्थिक और सामाजिक विभाजन को बरकरार रखते हुए राष्ट्रवाद की लहर और हिन्दुत्व के उग्र स्वरूप के साथ भारतीय संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वहीं सदियों से दमित बेबस और लाचार अधिसंख्य जनता के मन में आजादी की चेतना का अलख जगा कर सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की राजनीति कांशीराम साहब के जनान्दोलन के मुख्य ऐजेंडा में रहा है। लेकिन पिछले दो दशक में बसपा की पराजय और सांस्कृतिक चेतना की मुहिम मंधम सी पड़ जाने के कारण उदासीनता का भाव व्याप्त था।

दूसरी तरफ राजनीतिक चिन्तन के स्तर पर मायावती के नेतृत्व ने 'अम्बेडकरवाद' की यथास्थिति को बनाए रखा। न ही उसको विकसित कर के नई राजनीतिक चेतना का आगाज किया और न ही मीडिया और तकनीकी के नये स्रोतों का उपयोग किया। इससे अधिसंख्य दलित जातियों के बीच बसपा से सीधे संवाद बनाने में असफलता हाथ लगी। दलित लोगों में अशिक्षा और भावात्मक बहाव को हवा देने के लिए आरएसएस और बजरंग दल ने गांव-गांव हिन्दू उत्सव और त्यौहारों में ऐसा माहौल बनाया कि हिन्दुत्व के इस कल्चर का जुडाव सीधे भाजपा और मोदी से हो गया। यदि वे सत्ता से बाहर हुए तो हिन्दुत्व खतरे में पड़ जाएगा और देश में नक्सलवाद, आतंकवाद और सांप्रदायिकता जैसी समस्या का जन्म होगा। अयोध्या में "रामजन्मभूमि" पर कोर्ट के द्वारा एकतरफा फैसले से हिन्दू समाज की आस्था को उमंग से भर दिया और इसे अघोषित सरकारी खजाने ऐसा तमाशा बनाया गया कि यह एक धर्म का मंदिर मात्र न होकर "राष्ट्रीय धर्म का प्रतीक और स्थल" हो! कांग्रेस और सपा जैसे लोग भी मौन सर्मथन उसे दे दिये। क्योंकि हिन्दू धर्म की राजनीति के सामने वे अपने को अहिन्दू घोषित कर के राजनीति नहीं कर सकते थे। उनकी सामाजिक समस्या राजनीति बन गयी थी। ऐसी दशा में बेहतर और उदार हिन्दू की छवि के साथ राहुल गांधी के साथ कांग्रेस फलक पर सामने आ गई। उसके सामने वोट की समस्या थी। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश, बिहार तक दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीति पर पकड़ थी। शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग का पावर बैलेंस मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव में थी। आधे से अधिक पिछड़े वर्ग का वोट बीजेपी के पक्ष में था। लेकिन राहुल गांधी और सपा के मुलायम सिंह यादव ने दलित वोट खासकर बसपा के वोट की लूट करने की साजिश रची और उसे राजनीतिक मैदान से बाहर करने के भाजपा की बी टीम का तमगा देना शुरू करी।

कांग्रेस (INDIA) और भाजपा(NDA) ने गठबंधन का ऐसा माहौल तैयार किया कि यह राजनीति नहीं बल्कि महाभारत युद्ध की तरह महा युद्ध की राजनीति हो। एक तरह दलित वंचितों के हितैषी राहुल गांधी अर्जुन बने थे और अखिलेश यादव सारथी के रूप में कृष्ण तो दूसरी तरफ मोदी दुर्योधन की तरह सीने ताने कौरवों की भीड़ लेकर खड़े थे। जो स्वतंत्र था जैसे बसपा उसको नफरत की नजरों से देखा गया। सांप्रदायिक हिंसा से ऊपजी मुसलमानों की नफरत को कांग्रेस ने अपने पाले की राजनीति में उपयोग किया और बसपा के मुस्लिम समर्थकों को अपने पक्ष में कर लिया। जबकि हकीकत में न तो कांग्रेस के लिए संविधान खतरे में था और न ही भाजपा के लिए हिन्दुत्व खतरे में था। दोनों की वर्चस्व की राजनीति खतरे में थी। दोनों सत्ता पाने के लिए लड़ रहे थे। जिसमें दलित आदिवासी और पिछड़े समाज की हानि हुई जिसे बहुजन राजनीति के नाम से जाना जाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश यादव वोट कांग्रेस में करने के बावज़ूद वे सत्ता से बाहर रहे जबकि विपक्ष के रूप और मरती कांग्रेस में दलित, पिछड़े और आदिवासियों ने जान डालने काम किया।


इसमें मायावती की राजनीति विफलता यह रही कि उन्होंने किसी तीसरे फ्रंट का नेतृत्व तैयार करने का प्रयास नहीं किया। लेकिन इसके सामाजिक कारण भी रहे हैं। जहाँ समाज में एक तरह दलित मतलब चमार के प्रति अछूत जैसा विषैला महौल तैयार किया गया, वहीं "आरक्षण" के जिन्न को "बाबरी मस्जिद" की तरह राजनीतिक टूल्स बना दिया गया। आरएसएस और बीजेपी ने दलितों में दो फाड़ करने के लिए गैर-चमारों में हिन्दू कल्चराइजेशन का सेंस तैयार किया और बसपा के पुराने नेताओं को खरीदना शुरू किया। लगातार पराजय से पस्त, सत्ता के चमचों ने समाज और अपनी स्वतंत्र राजनीति को तिलांजलि देकर भाजपा को मजबूत करने का काम किया।

                आज के संकट के समय में अर्स पर से फर्स पर पहुंची बसपा का क्षैतिज पतन देखने को मिल रहा है। स्वतंत्र बहुजन राजनीति का संकट समाज के कमजोर होने से पैदा होता है। जिसमें राजनीतिक दल देखना नहीं चाहते। वे सामाजिक आंदोलन की धार को मजबूत भी नहीं करना चाहते। बसपा बीस वर्ष ग्राउंड लेबल पर काम करे और सांस्कृतिक चेतना का नया माहौल तैयार करे तो कुछ हो सकता है। लेकिन बुद्ध और अम्बेडकर की राजनीति से उसे मुक्त होना होगा और अपने ऐतिहासिक चिन्तन के साथ आगे बढ़ना होगा।

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