धर्म, दर्शन और इतिहास किसी भी स्वतंत्र कौम के सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठाधार को निर्मित करने के लिए आवश्यक तत्व हैं। इन्हीं मूल्यों से समाज का संचालन सुचारू रूप से होता है। गतिशीलता और भविष्य की संभावना भी यहीं से तय होते हैं।
आजीवक धर्म भारतीय उपमहाद्वीप का एक प्राचीन परम्परा का धर्म था, जिसकी स्थापना मक्खली गोसाल ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व में की थी। यह परंपरा के समकालीन बौद्ध और जैन धर्म भी थे, लेकिन धीरे-धीरे मुख्यधारा के इतिहास में इसे भुला दिया गया। आजीवक दर्शन "नियतिवाद (Non Determinism and Non fatalism) पर आधारित था, जिसमें यह माना जाता था कि सभी जीवों की जन्म और मृत्यु "नियति" के अधीन है। इस पर किसी का नियंत्रण नहीं है और कोई भी इसे बदल नहीं सकता। आजीवक धर्म के आधुनिक दार्शनिक डॉ. धर्मवीर ने इस धर्म दर्शन को आधुनिक परिवेश के अनुकूल वृहत्तर आयाम के साथ प्रस्तुत किया है। उन्होंने ने नियति की व्याख्या में लिखा है कि, - 'भारत के ब्राह्मणों, बौद्धों और जैनियों के तीन दर्शन जन्मान्तर में विश्वास करते हैं। तब इनके लिए बंधन क्या है? इनके लिए जन्म लेना बंधन है। तब इनके लिए स्वतंत्रता के रूप में मुक्ति क्या है? इनकी मुक्ति जन्म लेने के बन्धन से छुटकारे की है। ये मृत्यु से डरे हुए लोग हैं और मानते हैं कि मृत्यु दुख है। इनके दुख का कारण मृत्यु है और इन के लिए मृत्यु का मूल कारण जन्म है। इसीलिए इन्हें दुख को रोकने के लिए मृत्यु को रोकना है और मृत्यु को रोकने के लिए उस मूल कारण जन्म को रोकना है। दुबारा जन्म न हो यही इन की मुक्ति है। इस मुक्ति के, छुटकारे के, इन्होंने अपनी-अपनी शब्दावली में तीन नाम दे रखे हैं - ब्राह्मणों ने मोक्ष कहा है, बौद्धों ने इसे निर्वाण कहा है और जैनियों ने इसे कैवल्य कहा है। ये संन्यासी, भिक्षु और मुनि बन कर इन्हीं की प्राप्तियों में लगे रहते हैं। इधर, आजीवकों ने जन्म को 'नियति' से जोड़ा है तो मृत्य को भी उसी नियति से जोड़ है। जन्म और मरण पर मनुष्य का वश नहीं है - यही नियतिवादी कहते हैं। तब आजीवकों की स्वतंत्रता क्या है? एक उत्तर साफ है कि परलोक, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म से उस स्वतंत्रता का कोई संबंध नहीं है। दूसरा उत्तर यह है कि भूख, गरीबी, अपमान, अन्याय और दासता को मिटाने में मनुष्य की स्वतंत्रता नहीं है, उस पर तो अंकुश लगाना है, बल्कि राज्य के प्रति भले काम करने की स्वतंत्रता है। राज्य उसी स्वतंत्रता को पाने का माध्यम है।"(महान आजीवक : कबीर, रैदास औ गोसाल, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 197-98)
आजीवक धर्म और दलित-आदिवासी समाज
आजीवक परंपरा ने सामाजिक भेदभाव और जाति व्यवस्था को नकारते हुए एक समतावादी दृष्टिकोण अपनाया। इतिहासकारों के अनुसार, यह धर्म उन तबकों में लोकप्रिय था जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था से बाहर थे, जिनमें दलित और आदिवासी समुदाय प्रमुख रूप से शामिल थे। क्योंकि गोसाल दास थे और अपनी दासता के खिलाफ उनका खुला विद्रोह था। प्रेम, सदाचार और श्रम के सौंदर्यबोध को समाज में तिरोहित करने के लिए गोसाल ने तमाम सिद्धांत की रचना करी। उनका उदात्त विचार श्रमण-संन्यासियों को रास नहीं आया इसीलिए महावीर ने गोसाल का साथ छोड़ दिया। फिर, समाज में आजीवकों की ही प्रासंगिकता बनी रही। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्म से अधिक गोसाल के आजीवक धर्म के अनुयायी थे। इसलिए इन तीनों के गठजोड़ ने आजीवक दर्शन के खिलाफ बयान बाजी की।
वर्ण व्यवस्था का विरोध:
आजीवकों ने वेदों की सत्ता को अस्वीकार किया और जाति आधारित भेदभाव के विरोध में खड़े रहे। यह दृष्टिकोण ही दलित-बहुजन विचारधारा के मूल में है, जो द्विजों की वर्णव्यवस्था से मुक्ति की बात करता है। आजीवक समाज अवण्णवादी व्यवस्था पर आधारित है, जिसे मध्य काल में सद्गुरु रैदास और कबीर ने संचालित किया था। आर्यों के आगमन ने ही वर्ण व्यवस्था को मूल आजीवकों पर अपना विचार थोपा।
आजीवकों पर दमन:
बौद्ध और जैन ग्रंथों में आजीवकों को एक विरोधी संप्रदाय के रूप में चित्रित किया गया है। बाद में, इन्हीं द्विज धर्मों के गठजोड़ और षड्यंत्र से आजीवक परंपरा लुप्त होती चली गई। इतिहास में दर्ज है कि अशोक ने अपने शासनकाल में बौद्ध धर्म को बढ़ावा देते हुए आजीवकों के मठों को नष्ट करवा दिया था। सीधे-सीधे विरोधियों ने मुकाबला नहीं कर सके तो आजीवकों में फुट डालकर उनको आपस में लड़ाई करवाने की कुत्सित चाल चली गई है। कलिंग युद्ध में बहुत से आजीवक मारे गए थे। अशोक आजीवक माता-पिता की संतान थे। लेकिन बौद्ध धर्म में धर्मांतरण होकर अपने ही आजीवक कौम के खिलाफ हो गये किन्तु उनके प्रपौत्र दशरथ ने आजीवक धर्म को आगे बढ़ाया। दूसरा धक्का बीसवीं शताब्दी के इतिहास में डा. अम्बेडकर द्वारा 1956 नागपुर में लगा, जब उन्होंने बौद्ध धर्मांतरण कर लिया। दलित अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर हो गया।
दलित-आदिवासी संघर्ष और आजीवक विचारधारा
कई विद्वान मानते हैं कि आजीवक परंपरा के विचार दलित और आदिवासी समाज की जीवनशैली से मेल खाते थे। प्रकृति के साथ संतुलन, भाग्यवाद और कर्मकांडों का विरोध—ये सभी आज भी आदिवासी समाज की सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। रहन-सहन, खान-पान, बोली-भाषा सब अलग और स्वतंत्र है। वैवाहिक अनुष्ठान और त्यौहार भी आजीवकों का अलग ही है। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले दलित और आदिवासी समाज का लोकजीवन आजीवक परम्परा के अनुकूल ही है। लम्बे समय तक गुलामी में रहने की वजह से इन्हें अगल-अलग नामों से जाना जाता था। लेकिन डा. धर्मवीर ने इन्हें आजीवक पहचान के साथ चिन्तन और दर्शन का विराट महल खड़ा कर दिया है। आज भी, जब दलित और आदिवासी समाज सामाजिक न्याय और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं, तो आजीवक दर्शन के कई सिद्धांत प्रेरणा देते हैं।
ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध: आजीवकों ने जिस प्रकार वेदों और जाति व्यवस्था को खारिज किया, उसी तरह आज के दलित-बहुजन आंदोलन भी ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दे रहे हैं। इसमें बौद्धों और जैनियों का भी विरोध शामिल है। ब्राह्मणों के वेद-पुराण, जैनियों के आगम और बौद्धों के त्रिपीटक आजीवकों के विरोध से भरे पड़े हैं।
आर्थिक आत्मनिर्भरता: आजीवक साधु मुख्य रूप से व्यापार और श्रम कार्यों में संलग्न रहते थे। इस समाज के लोग भुख्य रुप से शिल्पकार थे। दलित-आदिवासी समुदाय के लिए भी आत्मनिर्भरता और शिक्षा आज सबसे महत्वपूर्ण हथियार हैं। शंकराचार्य, महावीर और बुद्ध एक ही परम्परा के हैं। इनमें संन्यास और भिक्षाटन जरूरी है। जबकि आजीवक श्रम कर के अपना उदर भरते हैं। जबकि उक्त तीनों आजीवकों पर ही निर्भर रहने को विवश थे। किन्तु बुद्ध की मांगने की परम्परा चरम परिणति को प्राप्त हो गई। राजाओं खजाने तक बुद्ध के लिए खाली कर दिये।
निष्कर्ष
आजीवक धर्म केवल एक पुरानी विचारधारा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक भी है। दलित और आदिवासी समाज, जो सदियों से हाशिए पर रहे हैं, उनके लिए यह दर्शन अतीत से सबक लेकर भविष्य के संघर्षों को दिशा देने का कार्य कर सकता है।बशर्ते इसे आधुनिक परिवेश के साथ आत्मसात कर के संघर्ष करना होगा। और डा. धर्मवीर के लिटरेचर को पढ़ना होगा।
आप क्या सोचते हैं? क्या आजीवक परंपरा को आधुनिक दलित-आदिवासी आंदोलन में एक नई दृष्टि के रूप में अपनाया जा सकता है?
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डा. संतोष कुमार
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