मराठा साम्राज्य और विशेष रूप से शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज को भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम युग के रूप में देखा जाता है। उन्हें "हिंदू पातशाह" (हिंदू सम्राट) कहा जाता है, जो कि उनके शासन की धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को दर्शाता है। लेकिन अगर हम इसे दलित दृष्टिकोण से देखें, तो सवाल उठता है कि क्या मराठा शासन वास्तव में समानता और न्याय पर आधारित था, या यह भी एक जातिगत संरचना को बनाए रखने का ही एक तरीका था?
'हिंदू पातशाही' और जाति व्यवस्था
शिवाजी महाराज को उनके न्यायपूर्ण शासन और सभी वर्गों के प्रति उनकी सहिष्णुता के लिए सराहा जाता है। लेकिन उनके शासन में जाति व्यवस्था की मौजूदगी को नकारा नहीं जा सकता।
शिवाजी महाराज ने अपने प्रशासन में ब्राह्मणों को महत्वपूर्ण स्थान दिया, जबकि निचली जातियों के लोगों को सैन्य या श्रमिक भूमिकाओं तक सीमित रखा गया।
मराठा प्रशासन में ज्यादातर उच्च जाति के लोगों का वर्चस्व था, और सत्ता की संरचना में दलित समुदायों को बहुत सीमित अधिकार दिए गए थे।
उनके राज्य में दलितों को सामाजिक और धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता था, और मंदिरों, सार्वजनिक जलाशयों से पानी लेना और विद्यालय जैसी मूलभूत स्वतंत्रताओं पर भी प्रतिबंध था। और प्राय: नगर से बाहर इनके बसावट का इंतजाम था। लोग मातंग, मांग और महार जातियों को हेय दृष्टि से देखते थे। और नगर के पुजारी, सेठ या द्विज लोगों को लिए रास्ता छोड़ कर अलग खड़े होकर जाने देना पड़ता था। दलित के मानवीय मूल्यों को अनदेखी की जाती थी। उनकी स्वायत्त दुनिया के अंधेरी गुफा में कहीं समाहित हो गये थे। बेगारी और शोषण चरम पर था। दलितों को न मुगलों से राहत थी और न ही हिन्दू पातशाही से। इसीलिए आधुनिक भारत में दलितों ने खुद अपना इतिहास गढ़ना शुरू किया। हालांकि 'भीमाकोरे गांव' में ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर 500 महार सैनिकों ने पेशवाई को उखाड़ फेंका।
महाराष्ट्र की भूमि पठार और जंगलों से आच्छादित उखड़-खाबड़ है। उन्हीं कृषि योग्य बनाने में अन्न उपजाने में दलितों की भूमिका ही प्रमुख है। किन्तु, संभाजी महाराज के समय भी यह सामाजिक ढांचा बहुत अधिक नहीं बदला। हालांकि वे अपने पिता की तुलना में अधिक खुले विचारों वाले माने जाते हैं, लेकिन उनके शासनकाल में कोई भी ऐसा सामाजिक सुधार देखने को नहीं मिलता जिससे जातिगत ऊँच-नीच को चुनौती दी गई हो।
दलितों की भागीदारी और हाशिए पर रहना
मराठा सेना में कई निचली जातियों के लोग थे, लेकिन वे आम तौर पर पैदल सैनिक या श्रमिक भूमिकाओं में सीमित थे। महार और मातंग समुदाय को सेना में जगह मिली, लेकिन वे अधिकारी पदों तक नहीं पहुँच सके।
कुनबी और शूद्र जातियों को कुछ हद तक प्रशासन में भागीदारी मिली, लेकिन दलित समुदायों को मुख्य रूप से श्रम आधारित कार्यों तक सीमित रखा गया।
सेना में शामिल होने के बावजूद, दलितों को समान सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं दी गई और युद्ध के बाद भी वे अपने पारंपरिक पेशों तक सीमित रहे।
मंदिर प्रवेश और धार्मिक भेदभाव
मराठा शासन के दौरान भी, दलित समुदायों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। क्योंकि ब्रह्मण उन्हें अछूत और अपने से अलग समझते थे। इसलिए अपनी वर्णव्यवस्था में उनको सबसे नीचे शूद्र या वर्ण बाहर रखते थे। क्योंकि प्रशासन में उनका सीधा हस्तक्षेप था। आधुनिक काल में डा. अम्बेडकर को साहू जी महराज के रियासत में नौकरी करने पर भेदभाव का सामना करना पड़ा था। खुद साहू महराज भी उस व्यवस्था में दखलंदाजी करने में असमर्थ थे, ब्राम्हणों का इतना प्रभुत्व था।
भले ही यह "हिंदू पातशाही" थी, लेकिन यह सभी हिंदुओं को समान दर्जा देने वाली शासन व्यवस्था नहीं थी। पवित्र स्थलों और सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़े स्थानों पर केवल उच्च जातियों का अधिकार था। मराठा शासन ने जाति व्यवस्था को चुनौती देने की कोई ठोस नीति लागू नहीं की।
दलित प्रतिरोध और वैकल्पिक नायक
जब हम इतिहास को दलित दृष्टिकोण से देखते हैं, तो हमें यह समझना जरूरी है कि मराठा शासन भले ही मुगलों और बाहरी आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़ा हो, लेकिन यह खुद एक जातिगत सत्ता संरचना को बनाए रखने में मदद कर रहा था।
इसलिए दलित इतिहासकार अक्सर शिवाजी या संभाजी महाराज की तुलना में फुले, बाबासाहेब आंबेडकर और अन्य सुधारकों को अधिक महत्व देते हैं, जिन्होंने वास्तव में जातिवाद और ब्राह्मणवादी संरचना के खिलाफ संघर्ष किया।
ज्योतिराव फुले ने मराठा शासन की आलोचना करते हुए इसे उच्च जातियों के प्रभुत्व का एक और रूप बताया। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने शिवाजी महाराज की सैन्य नीतियों की सराहना की, लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मराठा शासन जातिवाद से मुक्त नहीं था।
दलित योद्धाओं की अपनी परंपरा थी, लेकिन उन्हें मराठा इतिहास में उतना महत्व नहीं दिया गया जितना उच्च जातियों के सेनानायकों को मिला।
क्या मराठा शासन को दलित-विरोधी कहना उचित है?
मराठा शासन पूरी तरह से दलित-विरोधी नहीं था, लेकिन यह जाति व्यवस्था को समाप्त करने का कोई ठोस प्रयास भी नहीं कर रहा था। यह ब्राह्मणवादी सत्ता से अलग था, लेकिन जातिविहीन समाज की ओर बढ़ने वाला कोई क्रांतिकारी कदम नहीं था। मराठा साम्राज्य ने धार्मिक स्वतंत्रता और सैन्य शक्ति पर ध्यान दिया, लेकिन सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए कोई विशेष नीति नहीं अपनाई। इसलिए, दलित दृष्टिकोण से, यह कहना उचित होगा कि मराठा शासन ब्राह्मणवादी सत्ता का विकल्प था, लेकिन यह जाति-आधारित भेदभाव से मुक्त नहीं था।
निष्कर्ष
मराठा साम्राज्य और 'हिंदू पातशाही' को दलित दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि यह शासन सामाजिक न्याय के मामले में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं ला सका। दलित समुदायों को सीमित अवसर मिले और वे मुख्यतः हाशिए पर ही रहे। सत्ता और प्रशासन में उच्च जातियों का वर्चस्व बना रहा। मंदिरों और सामाजिक प्रतिष्ठा वाले स्थानों पर दलितों की पहुंच नहीं थी। इसलिए, जबकि मराठा शासन को मुगलों के विरोध में एक 'राष्ट्रवादी' संघर्ष के रूप में देखा जाता है, यह जरूरी नहीं कि यह सभी वर्गों के लिए समान रूप से न्यायपूर्ण था। यह एक जातिवादी समाज की सत्ता संरचना का ही एक नया संस्करण था, जिसे असली चुनौती बाद में समाज सुधारकों और दलित आंदोलनों से मिली।
आपका क्या विचार है? क्या मराठा शासन को जातिविहीन समाज की ओर एक कदम माना जा सकता है, या यह केवल एक नई सत्ता संरचना थी जो उच्च जातियों के नियंत्रण में थी?
डा. संतोष कुमार
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