'छावा' फिल्म और मराठा साम्राज्य: एक ऐतिहासिक विश्लेषण

 


साहित्य और सिनेमा का निश्चित उद्देश्य से होता है। साहित्य उद्योग या सिनेमा उद्योग कारोबारी नजरिए से भी होते रहे हैं। लेकिन सत्ता के हस्तछेप से सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति और समाज के सामने ऐतिहासिकता के नाम पर सांप्रदायिकता का बीज बोने का जब उपक्रम होने लगता है तो उसमें जन स्वीकृति की गिरावट आने लगती है। 


'छावा' फिल्म, जो शिवाजी महराज के पुत्र संभाजी महाराज के जीवन पर आधारित है, न केवल ऐतिहासिक गौरव को दर्शाती है बल्कि इसे आलोचनात्मक दृष्टिकोण से भी देखने की भी जरूरत है। मराठा साम्राज्य को अक्सर हिंदू स्वराज्य और राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन इसके सामाजिक, राजनीतिक और जातिगत पहलुओं की गहराई से समीक्षा करना आवश्यक है। क्योंकि पिछले एक दशक से सिनेमा में राजनीति की तरह हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष को चित्रित किया जा रहा है। इसके निश्चय राजनीतिक लाभ भी एक पार्टी और विचार धारा को हो रही है और इतिहास को तोड़ मरोड़कर "पुराण" की शैली में दर्शकों तक परोसा जा रहा है। इससे न केवल एक नैरेटिव गढ़ा जा रहा है बल्कि हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा प्रोपेगेंडा भी फैलाया जा रहा है। यह "पद्मावत", "जोधा अकबर" फिल्म रिलीज के समय उठे विरोध में देखा जा सकता है। 'कश्मीर फाइल' फिल्म को भी उसी सांप्रदायिक नैरेटिव के साथ सेट किया गया था। और अब यह उग्र राष्ट्रवाद को स्वराज या हिन्दू राज के लिए उठे युद्ध संग्राम के रूप में चित्रित किया गया है। 


 'छावा' फिल्म: ऐतिहासिक संदर्भ और चुनौतियाँ


संभाजी महाराज एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे—एक वीर योद्धा, कुशल प्रशासक और विद्वान। लेकिन इतिहास को फिल्मी पर्दे पर उतारते समय अक्सर अतिरंजना, नायकत्व और पक्षपात आ ही  जाता है। वही अतिरंजना इस फिल्म में भी दिखाया गया है। कोई तीरों से छलनी होने बाद भी लड़ रहा है तो कोई एक धक्के में सैकड़ों को हवा में उछाल दे रहा। घोड़ों को हवा में उड़ाना। यह एक मजाक की तरह लगता है। 



क्या 'छावा' फिल्म ऐतिहासिक तथ्यों को सही तरीके से प्रस्तुत करती है, या इसे एक धार्मिक और राष्ट्रवादी एजेंडे के तहत ढाला गया है? यह उक्त फिल्म को देख कर स्वत: ही आपको अंदाजा लगा जाएगा। इतिहासकारों ने औरंगजेब को कुशल प्रशासक माना है। मुगल सल्तनत में अकबर के बाद सबसे ज्यादा शासन करने वाला शासक था। मराठा साम्राज्य की तुलना में कर ठीक ही था। यदुनाथ सरकार ने तो लिखा है, शिवाजी मुगल सल्तनत के मनसबदार भी थे। बुरहानपुर को संभाजी ने लूटा था और पूरे नगर को जला कर राख कर दिया था। इस बर्बरता का बदला लेने के लिए ही इस मुगलिया सल्तनत के सरदार को संभाजी को सबक सिखाने के लिए। भेजा गया था। 


संभाजी की छवि: उन्हें क्रूर मुगलों के खिलाफ एक वीर हिंदू योद्धा के रूप में दिखाया गया है, लेकिन क्या यह उनके जटिल व्यक्तित्व को पूरी तरह से पकड़ पाएगा? इतिहास को एक खास मकसद के लिए चरित्र को विकृत करना या अपने मनोनुकूलित गढ़ना कहाँ तक न्यायिक है? और एक खास परगना के सरदार को राजा से महाराजा चित्रित करना अतिरंजना नहीं तो क्या है? जिसके खुद के बहनोई और सौतेली मां तक विरोधी थे, ऐसे में उसे कैसे प्रजापालक और न्यायिक चरित्र को माना जा सकता है? 


सामाजिक आयाम: यह फिल्म मराठा समाज की जातिगत संरचना और दलितों की भूमिका को भी उजागर करने में असमर्थ है। ऐसा कोई दृश्य नहीं है जो मराठा साम्राज्य के जातिगत संरचना और हिन्दू समाज के वास्तविक पहलू को प्रदर्शित करे। इसे केवल वीरता की कथा तक सीमित रखा गया है? वीर क्षत्रिय महाराजा की ध्वनि राज महल से ध्वनित करना ही इस फिल्म का खास आयाम रहा है। जबकि उसी महाराष्ट्र में दलितों की स्थिति बदत्तर थी। अस्पृश्यता और वर्णव्यवस्था का अनुपालन समाज समाज व्यवस्था में करना पड़ता था। फूले-अम्बेडकर मराठा साम्राज्य की आलोचना करते हैं। क्योंकि पेशवाई की शुरुआत यही से हुई थी। 


 मराठा साम्राज्य की सामाजिक संरचना: केवल स्वराज्य या जातिवादी सत्ता?


मराठा शासन को अक्सर "हिंदू पातशाही" कहा जाता है, लेकिन इसका मतलब क्या था? क्या यह केवल मुगलों का विरोध करने वाला एक हिंदू साम्राज्य था, या इसके भीतर भी जातिगत भेदभाव मौजूद था? इस सवाल को फिल्म में नजरअंदाज कर दिया गया है। फिर किस ऐतिहासिकता का दावा उक्त फिल्म में किया जा रहा है। किस का स्वराज? किसके लिए? क्या दलित उनके साम्राज्य के अंग नहीं थे? फिर उनको फिल्म से गायब क्यों कर दिया गया है? इस सवाल के साथ दलित फिल्म को देंखे तो फिल्म उनके मस्तिष्क पर सांप्रदायिक दांव चलने में असफल हो जाएगी। 


ब्राह्मणवादी प्रभाव: शिवाजी महाराज की प्रशासनिक नीतियाँ ब्राह्मण मंत्रियों द्वारा नियंत्रित थीं, जैसे कि गगाभट्ट, जिन्होंने उन्हें "क्षत्रिय" घोषित किया। यानी शिवाजी की लड़ाई वर्णव्यवस्था में उच्च पायदान हासिल कर उन्हे बनाये रखने की थी। इसीलिए भाजपा और आरएसएस अपने राजनीतिक और धार्मिक दांव पिछड़ी जातियों पर लगाते हैं और शिवाजी को हिन्दुत्व का रक्षक बना कर राष्टवादी खांचे में पेश करते हैं ताकि पिछड़े उनको हीरो मान कर हिन्दुत्व की रक्षा ही अपने जीवन का ध्येय मानें। 


दलितों की स्थिति: मराठा सेना में दलित योद्धा थे, लेकिन उन्हें समान अधिकार नहीं मिले। वे मुख्यतः श्रमिक भूमिकाओं में थे और उच्च पदों तक नहीं पहुँच सके।


मंदिर प्रवेश और सामाजिक भेदभाव: मराठा शासन के दौरान भी दलितों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी, जो बताता है कि सामाजिक सुधार इस काल में प्राथमिकता नहीं था। यह काल हिन्दू पातशाही के लिए ही प्रतिबद्ध था। और ब्राम्हणों के प्रभाव से राज्य-व्यवस्था संचालित होती थी। शिवाजी को खुद गंगोपंत ने क्षत्रिय बनाया था। इसी कारण शिवाजी हिन्दू स्वराज के लिए लड़ रहे थे और उस काम को उनके बेटे संभाजी ने आगे बढ़ाया ऐसा ही इस फिल्म में दिखाया गया है। 

'छावा' फिल्म उनन पहलुओं को नजरअंदाज करती है और केवल एक हिंदू राष्ट्रवादी कथा प्रस्तुत करती है, इसलिए ऐतिहासिक सच्चाई से यह दूर हो जाती है। 


गंभीर सवाल है, मराठा-मुगल संघर्ष केवल धर्म का मुद्दा या सत्ता की लड़ाई?

संभाजी महाराज की सबसे बड़ी टकराहट औरंगजेब से हुई, लेकिन इसे सिर्फ "हिंदू बनाम मुस्लिम" संघर्ष के रूप में दिखाना एक सरलीकरण हो जाता है।

राजनीतिक रणनीति: यह संघर्ष मुख्य रूप से सत्ता, संसाधनों और प्रशासनिक नियंत्रण के लिए था, न कि सिर्फ धार्मिक युद्ध।

मराठा-मुगल संबंध: शिवाजी महाराज खुद मुगलों के साथ संधियाँ कर चुके थे, और मराठा सेनाओं में कई मुस्लिम सरदार भी थे।

संभाजी की हत्या: औरंगजेब ने उन्हें क्रूरता से मारा, लेकिन यह केवल धार्मिक कट्टरता नहीं थी, बल्कि एक राजनीतिक संदेश भी था।

लेखक और निर्देश लगता है भाजपा और आरएसएस के दिशा निर्देश में इस फिल्म को खास नरैटिव सेट करने के लिए बनाये हैं। 'छावा' फिल्म इसे सिर्फ "हिंदू वीर बनाम मुस्लिम अत्याचारी" के रूप में दिखाएगी,और यह एकतरफा नैरेटिव तय करता है, जो इतिहास की बहुआयामी सच्चाई को धुंधला कर रहा है।

सवाल है, क्या 'छावा' एक निष्पक्ष ऐतिहासिक फिल्म होगी? 

उत्तर है, नहीं! 

भारत में ऐतिहासिक फिल्मों का इस्तेमाल अक्सर राजनीतिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इसलिए फिल्म पर विश्वास कर के अपना दृष्टिकोण नहीं बनाना चाहिए। यदि दर्शक फिल्मों को देख कर ही सच मान लेंगे और सेट नैरेटिव की तरह ही आचरण करने लगेंगे तो उनकी मानसिक चेतना पर गहरा प्रश्न चिह्न लग जाएगा। 


राष्ट्रवादी एजेंडा: इस तरह की अन्य मराठों पर बनी फिल्में मराठाओं को आधुनिक राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में पेश करने के साथ हिन्दू धर्म के लिए लड़ने वाले साम्राज्य के रूप में पेश करती हैं। जो कि 17वीं शताब्दी की वास्तविकताओं से मेल नहीं खाता?


विरोधियों का चित्रण:  मुगलों को सिर्फ दुष्ट और क्रूर दिखाया जाना, और उनकी शासन नीति और प्रशासनिक क्षमता का भी जिक्र भी न करना, इतिहास से मुंह मोड़ना और एकतरफा दृश्यावली ही कही जाएगी! 


दलित और वंचितों की भूमिका: सवाल था, क्या यह फिल्म मराठा शासन के भीतर दलितों की स्थिति और सामाजिक भेदभाव को दिखाएगी, या इसे नजरअंदाज कर देगी? फिल्म देखने पर अनुमान सच ही साबित हुआ है। 


निष्कर्ष: इतिहास या कल्पना?

'छावा' फिल्म में अगर संभाजी महाराज की वीरता और संघर्ष को सही संदर्भों में दिखाया जाता, तो यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फिल्म बन सकती थी। लेकिन यह सिर्फ एक धर्मनिरपेक्ष बनाम सांप्रदायिक, हिंदू बनाम मुस्लिम और राष्ट्रवादी कथा के रूप में पेश की गई है, जो एक प्रोपेगैंडा फिल्म बनकर प्रदर्शित हो रही है।

सवाल यह है कि, क्या हम सच में इतिहास को जानना चाहते हैं, या केवल वही कहानी देखना चाहते हैं जो हमारे पूर्वनिर्धारित विचारों को पुष्ट करे?

डा. संतोष कुमार 

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