दरख़्त से आजीवक अभी अंकुरण ही तो हुआ है,
इतनी बेचैनी क्यों?
इसने अपनी भाषा के इतिहास को जान लिया है,
अपने नेतृत्व को पहचान लिया है।
जाति यदि सच्चाई है तो उससे गुरेज क्यों?
जाति की पहचान को आजीवक ने एक आयाम दिया है।
दलित और आदिवासी कौम का इतिहास बुद्ध और अम्बेडकर तक नहीं महदूद है, हाँ इतिहास में इसके कर्णधारों ने विचलन जरूर पैदा किया है लेकिन स्वामी अछूता नंद हरिहर सरीखे महापुरुषों ने अपने ही नेक नेतृत्व को महत्व दिया है, अपना ईश्वर, अपना धर्म और अपनी पहचान की नींव डाली है। सद्गुरु रैदास और कबीर के पदों में ज्ञान और आध्यात्म ही नहीं बल्कि समाज और इतिहास का युगबोध है, जिसे मोटी बुद्धि के लोग नहीं समझ सकते। यदि आजीवक पर लिखना है तो डा. धर्मवीर को पढें फिर ऐथोरिटी के साथ बहस में तथ्य और संदर्भ के साथ आयें। हम जब कभी बुद्ध का मूल्यांकन करते हैं तो उससे पहले उन तथ्यों की पड़ताल कर लेते हैं। लेकिन दलित समाज लिखाड़ ऐसे हैं कि - यूं ही मन में जो कुछ भी आये लिख मारते हैं!
आजीवक धर्म पर एक संदर्भ दे रहा हूँ, इसके असल ऐतिहासिक स्रोत अंग्रेजी में है जिसको जानने के लिए आजीवक दार्शनिक डा. धर्मवीर को पढ़ना होगा, इसलिए मैं केवल डा. धर्मवीर के लिखे को रख रहा हूँ, -
"इस पुस्तक में माना गया है कि आजीवक धर्म के अनुयायी आम आदमियों में से थे। वे कारीगर, व्यापारी थे और इसी तरह के अन्य लोग थे। उनकी संख्या भी बौद्धों से ज्यादा थी। कारण यही था कि आजीवकों द्वारा समाज सुधार पर अत्यधिक बल दिया जाता था। बौद्ध लोग मक्खली गोसाल की आलोचना किया करते थे। समय-समय पर बौद्धों और आजीवकों के बीच खुली मुठभेड़ हुआ करती थी।...
यह पूर्वी उत्तर प्रदेश की बात और बिहार के इतिहास की बात है। इस क्षेत्र में ब्राह्मणों को कड़ी टक्कर मिली थी। गोसाल, महावीर और बुद्ध - ये तीनों धर्मपुरुष ब्राह्मणों का विरोध कर रहे थे। एक तरह से ब्राह्मण इन तीनों से लड़ रहा था। इसी वजह से कई लोगों को लगता है कि गोसाल, महावीर और बुद्ध एक धारा के थे। लेकिन यह अर्द्ध सत्य ही है। चूंकि ये तीनों धर्मपुरुष ब्राह्मणों के विरोध में थे, इसलिए केवल एक सीमा तक ये एक थे, इस सीमा से आगे नहीं। इसी सीमा तक ब्राह्मण इन तीनों को एक श्रेणी में रख लेते थे। ब्राह्मणों ने जैनियों, बौद्धों और आजीवकों पर विशेष कर लगाए थे। 'द्रविड़ियन एनसाइक्लोपीडिया' ने इस बारे में लिखा है कि जो कोई आजीवकों और बौद्धों को भोजन खिलाता है उस पर 100 पणों का जुर्माना लगाना चाहिए। 'द्रविड़ियन एनसाक्लोपीडिया' ने इस अंतर को उभारा है कि जबकि जैनियों और बौद्धों से प्रति परिवार के हिसाब से कर लिया जाता था, आजीवकों से यह प्रति व्यक्ति के हिसाब से लिया जाता था।" (डा. धर्मवीर, महान आजीवक :कबीर, रैदास और गोसाल, वाणी प्रकाशन, 4695,21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 2017, पृष्ठ-49)
आशा है, शीलबोधि जी को श्रमण परम्परा और आजीवक के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाएगा। और उनकी शिकायत 'डा. धर्मवीर से आजीवक का कुछ पता नहीं चलता' की झूठी लिखत का अनावरण भी हो जाएगा कि उन्होंने डा. धर्मवीर को पढ़ा नहीं है, और यदि पढ़े हैं तो उनको नजरअंदाज कर रहे हैं। शीलबोधि जी डा. धर्मवीर ने आजीवक धर्मग्रंथ का निर्माण भी कर दिया है। इस पर आप क्या बोलेंगे? हमारे दलित साहित्य के यही लिखाड़ हैं! जो अपनों को छोड़ कर गैरों के लिये लड़ते हैं। दलित राजनीति की भी इसीलिए दुर्दशा है कि नेता तो वे अपना चाहते हैं लेकिन राजनीति दर्शन के लिए गैर - धर्म की शरण में चले जाते हैं। जब कोई द्विज आपका राजनैतिक नेतृत्व नहीं कर सकता तो धर्म के मामले में आप किसी गैर-दलित को क्यों अपना नेतृत्व सौंप देते हो? यह उल्टी बुद्धि कहाँ से पायी है, दोस्तों? हम आपकी धरोहर, इतिहास और धर्म के लिए लिख रहे हैं ताकि धार्मिक राजनीति के सामने आप खाली हांथ न जाओ, आपके पास भी सांस्कृतिक मूल्यों की एक स्वतंत्र विरासत हो जिस तरह से ईसाईयत और इस्लाम के पास है। दुनिया में आपकी अलग पहचान हो, लोकतंत्र में लोगों की अधिकता की शक्ति होती है और आप एक शक्ती हो। लेकिन किसी गैर के पीछे लग जाओगे तो कहीं के नहीं रहोगे, भेंड़ बन कर भीड़ में तब्दील हो जाओगे! इसलिए यदि लड़ना है तो अपनी पहचान के लिए लड़ो, मरना है तो अपनी 'जाति पर जान कुर्बान कर दो' फिर देखो तुम्हारी शक्ति का लोहा कौन लेता है? इतिहास यूं, धर्मांतरण के विभिन्न घटकों में भटकने से नहीं बनता है। इस्लाम के बुलंदियों पर लिखे डा. इक़बाल को पढो़ देखो उन्होंने अपने लोगों के इतिहास को किस तरह बुलंद किया है। खैर, उन को छोड़ अपनी चमार जाति के स्वामी अछूता नंद हरिहर और बाबू मंगूराम मुंग्गोवालिया को पढ़ो, अपने असली दुश्मन को पहचानों उनसे लड़ो अपने धर्म का पुनर्निर्माण करो यही तुम्हारा असली घर है।
डा. धर्मवीर ने लिखा है, - "संकट पहचान का है। आज दलित लोग अपनी पहचान खोने के लिए लड़ रहे हैं जबकि अन्यत्र संसार के लोग अपनी पहचान बनाए रखने के लिए लड़ते हैं। बिलकुल कहा जा सकता है कि जो अपनी पहचान खोने के लिए लड़ता है वह कभी जीत नहीं सकता। किसी भी धर्मांतरण में दलित समाज अपनी पहचान ही खोता है।" अब आप तय करें अपने धार्मिक और राजनीतिक वजूद के बजाय किसी गैर के पास क्यों जाना है? बसपा ही नहीं दलित राजनीति के लोग जब तक यह नहीं समझ पाएंगे कि उनका धार्मिक नेतृत्व कोई द्विज बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य नहीं कर सकते तब तक उनको यह समझ में नहीं आएगा कि राजनीति में उनके लोगों ने क्यों गैर-दलित राजनेता को अपने नेतृत्व सौंप देते हैं! यह चेतना धर्मांतरण से बनी है! इसे गहराई से सोचने-समझने, और समाधान खोजने की जरूरत है। हमें मालूम है, बुद्ध को छोड़ने में डा. अम्बेडकर आपके सामने खड़े हो जाते हैं और उनके सामने दलितों की आंखे नम हो जाती हैं। लेकिन यह युद्ध है इसे भाव संवेदना से टाल नहीं सकते। काल्पनिक महाभारत के युद्ध में राजनीतिक रणनीति ही कल्पित की गई है जिससे द्विज प्रेरणा लेते हैं, समाज के सामने व्यक्ति को वे कुर्बान कर देते हैं। लेकिन दलित समाज के लोग 'समाज' को कुर्बान कर के व्यक्ति को महान बनाते हैं, यह स्वाभाविक स्थिति नहीं है!
Dr. Santosh Kumar
17 फरवरी, 2025
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