मैं जब दलित राजनीति का मूल्यांकन करता हूँ तो कुछ लोग नाराज हो जाते हैं कि, मैं विरोधियों की आलोचना क्यों नहीं करता हूँ!
भाई, मुझे गैर-दलित राजनीति से कोई सरोकार नहीं है। मैं प्रतिक्रिया और प्रतिरोध का स्वर भी नहीं बनना चाहता, मुझे आत्म मूल्यांकन की प्रक्रिया से गुजरना है। मुझे अपने अंदर झांकने और अपनी कमियों को दूर कर, आंतरिक मजबूती पर कार्य करना है। यहीं से मेरी मौलिकता और रचनात्मक पहलू का विकास होता है। दलित समाज का कोई व्यक्ति समाज से अलग होकर व्यक्तिगत मुक्ति नहीं पा सकता, सामूहिकता में ही उसका बल है।
राजनीति समाज से अलग होकर हवा में नहीं की जा सकती है। राजनीतिक व्यक्ति को समाज की नब्ज़ पकड़ने की कला आनी चाहिए, समाज की मनोदशा का अवलोकन करने आना चाहिए। उसे खुद के मनोवैज्ञानिक विकास और समाज के मनोवैज्ञानिक विश्वास से तादात्म्य स्थापित करना आना चाहिए। और यह सब संभव होता है, 'धर्म' और 'संस्कृति' से। भाजपा और आरएसएस हिन्दुस्तान में 'हिन्दू धर्म' और 'हिन्दू संस्कृति' की राजनीति करने का एकतरफा विश्वास हासिल कर चुके हैं।
विपक्ष के नेता कांग्रेस, सपा, आप, इत्यादि के पास 'अहिन्दू' होकर राजनीतिक करने की औकात नहीं है। इसलिए ये साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति करते हैं और क्षणिक सफलता के बाद स्थाई पराजय के शिकार होते हैं। बसपा के पास 2012 में सांस्कृतिक पृष्ठाधार बनाने की क्षमता थी। लेकिन उसने पराये बुद्ध और 'प्रासंगिक अम्बेडकर' के व्यमोह में फंसकर अपने कैडर के बौद्धिक विकास को अवरुद्ध कर दिया। उसे नई रणनीति और नये सामाजिक लोगों को जोड़ने और उनको प्रशिक्षित करने की जगह 'सैडो बामसेफ' को कमजोर कर दिया। आज दलितों के लिए राजनीतिक और वैचारिक क्षेत्र में 'अम्बेडकरवाद' यथास्थितिवाद का पर्याय बन कर रह गया है। इस सटीक टिप्पणी करते हैं प्रो. भूरेलाल, - "दलित चिंतन के इतिहास को 'अम्बेडकरवाद' तक सीमित करने की त्रासदी दलित कौम को झेलनी पड़ रही है। आगे तो यह त्रासदी बड़ी विडम्बना का रूप ले सकती है। लेकिन स्वतन्त्र आजीवक आंदोलन इसे आने नहीं देगा।"
अपनी स्वतंत्रता परम्परा और सांस्कृतिक धरोहर के मौलिक राजनीतिक दर्शन को विकसित करने के बजाय, वह क्षणिक प्रतिक्रियावादी अवयव में तब्दील हो गया। अब लगातार पराजय से उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं में हताशा की स्थिति बन गई है। लोगों में बसपा को लेकर कोई उम्मीद नजर नहीं आती है। गैर-दलित राजनीतिक पार्टियाँ बारी-बारी से नये चेहरों के साथ उपस्थित होती हैं और राज करतीं हैं। देश की जनता के मन में उपजे क्रांतिकारिता के भाव को समय के साथ नष्ट करती हैं। और समय अनुकूल पाकर अपनी पुरानी जड़ों को सत्ता सौंप देती है। यही दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' की योजना का निष्कर्ष है। इसलिए हम बार-बार कहतें कट्टरवाद से ज्यादा खतरनाक उदारवाद होता है! बुद्ध और गांधी उदारवाद के चेहरे-मोहरे हैं। इनके झांसे में आकर ही दलित भावुकता में अपना सर्वस्व लूटा बैठता है।
इसके बाद आती है 'स्वतंत्र वैचारिकता' की बात दलितों ने अपनी स्वतंत्र वैचारिकता की यात्रा पूरी करने के बजाय 'धर्मांतरण' और दूसरों की विचारधारा की ओर उन्मुख होता है। विरोधी उसके ही सामाजिक मूल्यों से अपना चेहरा साफ करता है और दलित समाज उस चमक में बहक जाता है। दिल्ली में केवल दलितों की हार हुई है, द्विजों की जीत हुई है। कांग्रेस और आप द्विज ही हैं। इनके हारने और जीतने से दलितों को राजनीतिक सत्ता हासिल नहीं होती है। एक तरफ आप लोंगो को और दृष्टिपात करने की जरूरत है, 'पूना पैक्ट' जीत रहा है, द्विजों का शागिर्द बन कर। यही आज का 'अम्बेडकरवाद' है। बसपा इसी 'अम्बेडकरवाद' से सत्ता पाने की उम्मीद रखती है। आप सोच सकते हैं बसपा किसी रणनीति की शिकार है!
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