"पराधीनता पाप है जान लेहू रे मीत, पराधीन बेदीन से कौन करे हैं प्रीत" - सद्गुरु रैदास
जिस राजनीति पार्टी के पास कोई वैचारिक आधार नहीं होता है, वह सत्ता में अल्पकालिक ही बने रह पाते हैं। समाज की मजबूती का अंदाजा भी सत्ता वर्चस्व से ही लग जाता है। यदि कोई समाज मजबूत है, उसके पास अपना धर्म, दर्शन और वैचारिक आधार है तो उसका राजनीति में वर्चस्व भी कायम रहेगा। दलित, समाज के स्तर पर अभी कमजोर ही है, वैचारिक शून्यता के क्या कहने वह तो बुद्ध के 'शून्यवाद' से खुश है। लोकतंत्र में जिस समाज की तादाद अधिक होती है, उसका ही राजनीति कद मजबूत माना जाता है और वही सत्ता में भी बना रहता है। लेकिन भारत में यह लोकतंत्र उलट जाता है, अल्पसंख्या वाला समाज राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करता है और बहुसंख्यक समाज राजनीतिक गुलाम बना रहता है। इस लोकतांत्रिक गणित को साहब कांशीराम समझ चुके थे इसीलिए बहुसंख्यक जातियों को एक करने में जुट गये, इस जुटान का प्रतिफल यह निकला कि वे उत्तर प्रदेश में राजनीति सत्ता आसानी से प्राप्त कर सके। इससे विरोधी वर्ग के वर्चस्ववादी शक्तियों में खलबली मच गई और वे इन बहुसंख्यक जातियों में विभाजन करने में सफल हो गये!
आप सोचेंगे, यह कैसे हो गया? यह इसलिए हो गया कि इन जातियों के पास एक साथ रहने के लिए कोई ठोस आधार नहीं था, कोई मजबूत ठौर नहीं था। इसे समझने के लिए सद्गुरु रैदास के उक्त पद की व्याख्या करनी होगी-
बहुजन जातियों के पास नैतिक आधार के लिए 'दीन' यानी ईश्वर नहीं' था। और जिनके पास पारलौकिक ईश्वर या धर्म नहीं होता वे 'बेदीन' होते हैं। टुअर(अनाथ) और कमजोर होते हैं, उन्हें पराधीन और गुलाम समझा जाता है। ऐसे गुलाम कौम से कौन प्यार करेगा, साथ देगा? इसीलिए अपने दीन के लिए एक हो जाओ, ईमान वालों और अपने दीन पर ईमान लाओ। सद्गुरु रैदास के धार्मिक और दार्शनिक पदों में धार्मिकता के साथ-साथ राजनीतिक दर्शन भी समाहित है जिसे आधुनिक संदर्भ के साथ व्याख्यित करना होगा।
पराधीनता का मूल पूना 'पैक्ट' और 'धर्मांतरण'
दलितों ने अंग्रेजों से अपनी राजनीतिक आजादी के हक "सिपरेट इलेक्ट्रोड" हासिल कर लिया था। किन्तु वर्चस्वादियों के सामंती सोच और दबाव में आकर डा. अम्बेडकर ने 24, सितंबर 1932 में महाराष्ट्र के पूणे में 'राजनीति समझौता' कर लिया।
इससे दलित सीटों पर चुने जाने वाले प्रतिनिधि वास्तविक न होकर विभिन्न राजनीतिक दलों के गुलाम होने लगे। यहीं वह बिन्दु है, जहाँ से स्वतंत्र दलित राजनीति की हत्या होनी शुरू हो गई। जिससे कालांतर में साहब कांशीराम जी से सामना हुआ। इसलिए वे (कांशीराम साहब) पोस्ट-अम्बेडकर राजनीति चिन्तन (Post-Ambedkar political thought) को विकसित करते हुए 'पूना पैक्ट धिक्कार' दिवस मनाना शुरू किया और इस को सैद्धांतिक आधार बना कर 'Era of stool age' (चमचा युग) नाम से पुस्तक लिखे। इस पुस्तक में जातियों की जनसंख्या और निर्वाचन क्षेत्र के गणित पर विशेष चर्चा की गई है। साहब कांशीराम को महाराष्ट्र में आंदोलन के दौरान ही अम्बेडकरवादी कहे जाने वाले दलितों से सामना हुआ, वे कांग्रेस और संघ में अपनी पराधीनता यानी पूना पैक्ट के लाभ से खुश थे। इसलिए उस भूमि को उन्होंने 'डिजर्ट' यानी बंजर कहा। बाद में महाराष्ट्र के दलितों ने बामसेफ का विभाजन कर के कांशीराम साहब को राजनीतिक हताशा में भेजने का उपक्रम किया लेकिन अदम्य जिजीविषा और आंदोलनकारी चेतना के धनी साहब कांशीराम ने अपने लोगों के साथ फिर से 'DS4' के नाम से संगठन खड़ा किया और 'बसपा' के नाम से उसका राजनैतिक उन्नयन हुआ।
दूसरा, धक्का डा. अम्बेडकर द्वारा दलित कौम को 1956 में नागपुर में लगा, जहां उन्होंने बौद्ध धर्मांतरण किया। यह पूना पैक्ट से भी भयानक साबित हुआ और दलित एक कौम के रूप में मजबूत होने के बजाये 'दीन' की तलाश में बेदीन होने लगा। धर्म का सांस्कृतिक आधार ही व्यक्ति के सोचने और निर्णय लेने को गति देता है। ऐसे में, दलित बेदीन होकर आधुनिक शक्ति के आधार "राजनीति" को हासिल करने का स्वप्न देखने लगा। विभिन्न धर्मों में विभाजित दलित और आदिवासी समाज बिखर गया। तब, कांशीराम साहब ने धर्म की राजनीति के बजाया जाति की राजनीति को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया। लेकिन उनके पराभव ने "अम्बेडकरवाद" को फिर जीवित किया जिसमें पूना पैक्ट और बौद्ध धर्मांतरण को सही साबित किया गया और समाज में उसे जहर के रूप में बोया गया। यह विरोधी खेमों की रणनीति का हिस्सा भी था। उन्हें पता था धर्म की राजनीति से ही आगे सत्ता प्राप्त करनी है और लोकतंत्र में बड़ी हुजूम को विभाजित नहीं किया गया या उन्हें 'बेदीन' नहीं किया गया तो वे अपने 'दीन'(धर्म और ईश्वर) के उठ खड़े होंगे और उन्हें सत्ता से बाहर कर देंगे!
आज बसपा को कोई साथ देना नहीं चाहता क्योंकि यह 'बेदीन' हो चुकी है। सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और वैचारिक पराधीन कौम को कोई क्यों महत्व देगा? शक्ति जिधर होती है, प्रकृत्ति भी उधर होती है। एक छोटी जाति लाला केजरीवाल ने पल भर में ही दो राज्यों में सत्ता हासिल कर ली। क्योंकि उसे भी पता था दीन के सहारे ही राजनीति चलती है, बेदीनों को कौन पूछता है, इसलिए धार्मिक पूजारियों को वेतन देकर उन्हें खुश किया।
इसलिए मेरा कहना है, - हे! बेदीन वालों अपने 'दीन' (आजीवक) धर्म पर ईमान लाओ। जब धर्म और ईश्वर के लिए सब कुछ अपना निछावर कर दोगे उस दिन इस देश की सत्ता पर तुम काबिज होवोगे!
द्विजों का उदारवादी रूप कांग्रेस
'ब्राह्मण कथता है, करता कुछ नहीं' यह तर्क सटीक बैठता है, राहुल गांधी पर। बिहार में वे कल की जनसभा में दलित, पिछड़े और आदिवासियों की जातिगत जनगणना के आकड़े और जनसंख्या के हिसाब से उनको प्रतिनिधित्व देने की बात कर रहे थे। आरएसएस और भाजपा पर दलित, पिछड़ा, आदिवासी और संविधान विरोधी बता रहे थे। यह सामाजिक न्याय की वैचारिकी कांग्रेस या राहुल गांधी का मौलिक नहीं है। चार दशक पहले मान्यवर कांशीराम साहब ने 'बहुजन वैचारिकी' के तहत जिसकी 'जीतनी जिसकी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी' की बात कह चुके थे। इसी के तहत उन्होंने 'बामसेफ' जैसे बड़े संगठन का निर्माण किया था। लेकिन कांग्रेस के लोग अपने ही संगठन में वे दलित, पिछड़े और आदिवासियों को जगह नहीं देते हैं, यही उनके कहने और करने मे अंतर नजर आता है। अपने छात्र संगठन' NUSI के उनकी पार्टी के छात्र यूनिट के यूपी ईकाई की लिस्ट देखी जा सकती है। बसपा ने जिन सैद्धांतिक मुद्दों के तहत कांग्रेस कमजोर किया था। उन्हीं पुराने मुद्दों को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर के राहुल गांधी बसपा को खत्म करना चाहते हैं। इन्हें कुछ लोग सामाजिक न्याय का योद्धा बनाने तुले हैं!
दरअसल, ऐसे दलितों में वैचारिक परिपक्वता की कमी है। डा. धर्मवीर ने इसीलिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उदारवाद को देखा था। बुद्ध, गांधी और राहुल गांधी आज उदारवाद के बड़े चेहरे हैं। इनसे यदि दलित अपनी भावनाएं जोड़ कर देखेगा तो वह गहरे खंदक में गिरेगा। उससे उसका प्रतिनिधित्व छिन लिया जाएगा। उसको बोध कराया जाएगा तुम अयोग्य हो, तुम बैठे रहो तुम्हारे लिए हम राजनीतिक संघर्ष कर रहे हैं, इसलिए सिर्फ तुम मेरा साथ दो, सत्ता मुझे सौंप दो! कट्टरपंथ से तो आप दो-दो हाथ तुरंत कर सकते हैं, परिणाम चाहे जो हो! लेकिन उदारवाद आपके सोचने की क्षमता पर वार करता है जिससे आप मुठभेड़ भी नहीं सकते। और एक समय बाद आप खुद उसे अपना सर्वस्व सौंप देते हैं, वही आपकी नजर में योग्य, न्यायिक योद्धा लगने लगता है। यही हाल आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी भारत की है। एक ओर जहाँ हिन्दुत्ववाद धार्मिक घेरे में लेकर उनका दोहन कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर भाजपा से घृणा करने वाले, उसे हारा हुआ देखने वाले उदारवाद के साथ अपनी शक्ति खो रहे हैं। उन्हें स्वतंत्र रूप से यह बोध होने ही नहीं दिया जा रहा है कि द्विजों की यह पुरानी रणनीति है, आप को फांस कर शक्तिहीन करने की।
जब कांग्रेस सत्ता में थी तब ख्याल नहीं आया? अब आप सत्ता से बाहर है तो खतरा महसूस हो रहा है। यदि आप के कहने में थोड़ी भी सच्चाई हो तो अपने कांग्रेस शासित राज्यों में आरएसएस पर प्रतिबंध लगायें! यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो कबीर की भाषा में 'ब्राह्मण वाद वदे सब झूठे' साबित होंगे? आप दलित और आदिवासियों के मनोविज्ञान से खेलना चाहते हैं, अपने ही समाज विशेष की आलोचना कर के। इसी तरह आर्य समाज भी हिन्दू धर्म की कट्टरता की आलोचना कर के धर्मांतरण को रोकने में सफल हुआ था।
यह सही है कि कांग्रेस और भाजपा सर्प के उस जिह्वाग्र के समान हैं जो बाहर से अलग दिखता है लेकिन अंदर से एक होता है।
मैं राहुल गांधी की तुलना बुद्ध से करता हूँ तो कुछ दलितों को बूरा लगता है। खासकर बसपा के 'जय भीम, नमो बुद्धाय' वाले दलितों को। कुछ दलित कांग्रेस और सपा को अपना राजनीतिक उद्धारक मानते हैं जैसे धर्म के क्षेत्र में वे बुद्ध को मानते हैं।
जबकि अपने समय में राहुल गांधी की तरह बुद्ध ने भी ब्राह्मण धर्म की आलोचना कर के मक्खली गोसाल के 'आजीवक धर्म' को कमजोर किया था। लोग बुद्ध के बहकावे में आ गये थे। जैसे मोदी और भाजपा की आलोचना कांग्रेस-सपा और राहुल गांधी के द्वारा करने पर बसपा के लोगों ने वोट कर दिया था।
जिस तरह राहुल गांधी दलितों के राजनीति और वैचारिक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते, उसी तरह बुद्ध भी दलितों के धार्मिक और वैचारिक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। यह बात दलित और आदिवासी जितनी जल्दी समझ लें उनके लिए बेहतर होगा।
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