दलित विस्थापन का दर्द

 

लित और आदिवासियों के हिस्से में प्राकृतिक संसाधनों पर हिस्सेदारी नहीं है। उसे सत्ताओं ने समय-समय पर उसकी भूमि से बेदखल किया है। विस्थापन की इस पीड़ा को झेलते हुए उसकी जिन्दगी खानाबदोश की तरह हो गया है। उत्पीड़न, शोषण, पलायन और बेदखली की समस्या दलित जीवन का अंग बन गया है। वह एक शहर से दूसरे शहर और अंतत: सरकारी बेदखली से फूटपाथ आ जाता है। ऐसा ही वकाया उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में 'बेतियाहाता' मुहल्ले का सामने आया है। उस भूमि पर हजारों परिवारों का बसेरा है किन्तु दलित मुहल्ले को उजाड़ने के लिए बिहार और राज्य की सरकारें नोटिस दे रही हैं। कई पीढ़ियों से बसे इस मोहल्ले के लोग कहाँ जाएंगे, उनका बसेरा कहाँ बसेगा? राज्य मौन है! राज्य अपने नागरिकों के हीत के लिए कार्य करता है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि राज्य दलितों को नागरिक नहीं मानता है और राजा महाराजा ही उस राज्य के स्थाई नागरिक हैं!


क्या है 'बेहतियाहाता' का इतिहास?


आजादी से पहले, ब्रिटिश हुकूमत से भी पहले इस देश में राजा-महाराजाओं की जागीरें हुआ करती थीं, वे ही जनता से जमीन के जोत पर महसूल(टैक्स) वसूला करते थे। बेतिया स्टेट भारत के बिहार राज्य का दूसरी सबसे बड़ी जमीदारी थी। 1765 में जब ईस्ट इंण्डिया कंपनी ने दिवानी का अधिग्रहण किया तो बेतिया राजा के पास सबसे बड़ा क्षेत्र था। और इसके पास सैकड़ों गाँवों को नियंत्रित करने की क्षमता थी। इस राजवंश का इतिहास भी रोचक है। ये भूमिहार ब्राह्मण थे। इनकी जमीदारी इसलिए भी बची रही कि इन्होंने ईसाईयत को स्वीकार कर लिया। इस क्षेत्र में उच्च द्विज जातियों के साथ, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों ने भी ईसाईयत स्वीकार किया। भारत में इन्हें सीधे रोमन कैथोलिक धार्मिक आदेश से फ्रायर्स माइनर कैपुचिन के आदेश से मिशनरियों द्वारा स्थापित किया गया था। और इस ईसाईयत जाति की सामुदायिक शक्ति तब और प्रबल हुई जब राजा ध्रुपसिंह ने जोसेफ मैरी बर्लिन से अपनी बिमार पत्नी को ईलाज द्वारा ठीक कराया। इस बेतिया स्टेट में बड़ा रोमन कैथोलिक चर्च भी बना जिसे ईसाई मिशन के पोप बेनिडिक्ट 16वें का वरदहस्त हासिल था।


बेतिया स्टेट का अंतिम जमीदार और बिहार राज्य


राजा हरेन्द्र सिंह बेतिया स्टेट के अंतिम जमीदार थे। इन्होंने सन् 1883 में अपने पिता राजेन्द्र किशोर सिंह बहादुर का स्थान लिया। तात्कालिन बंगाल के गवर्नर आगस्टस रिवर्स थाम्पसन से सनद सम्मान मिला। राजा साहब अंग्रेजी हुकूमत के लाडले थे क्योंकि इन्होंने उनकी जीवन शैली ही नहीं अपनाई थी बल्कि उनके मिशन में भी बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था। इसी का नतीजा था कि 1 मार्च, 1889 को भारतीय साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित आदेश का नाइट कमांडर बना दिया गया। बंगाल विधानसभा के सदस्य भी थे। थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। राजवाडों का यही इतिहास रहा है, ये विदेशी शक्तियों के आगे नतमस्तक हुए हैं। 1893 में हरेन्द्र सिंह की मृत्यु के बाद उनके वारिस के रूप में दो रानियाँ ही बची थीं। बड़ी रानी शिवरत्नाकुंवर ने गद्दी संभाली लेकिन 1896 में उनकी मृत्यु के बाद छोटी रानी जानकी कुंवर वारिस बनी लेकिन वह अयोग्य थीं। इसलिए 1897 में बिहार सरकार ने 'कोर्ट आफ वार्डस' के तहत अधिग्रहण कर लिया। बेतिया के जंगल को भी बिहार राज्य सरकार ने 1953-54 में 'निजी संरक्षित वन अधिनियम 1947' के तहत अपने राज्य में मिला लिया।


गोरखपुर में बेतिया स्टेट का विवाद


अब इतने दिन बीत जाने के उपरांत बिहार सरकार ने एक अध्यादेश पारित कर के बेतिया स्टेट की जमीन खोजने का उपक्रम किया है। उनके दस्तावेज के हिसाब से गोरखपुर और बस्ती मंडल में 125 एकड़ भूमि बेतिया स्टेट की है। जो गोरखपुर, महराजगंज, बस्ती और कुशीनगर जिलों में अवस्थित है। सबसे अधिक गोरखपुर में लगभग 51 एकड़ भूमि निकली है, जिस पर पूरा शहर बस चुका है और अब उस मुहल्ले का नाम ही 'बेतियाहाता' है। कुछ भूमि खाली है। और अधिकांश पर उत्तर प्रदेश राज्य के सरकारी आवास और कार्यालय का निर्माण है। उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य की सरकारों ने अपने में बात कर के केवल दलित और पिछड़ों के बसावट को ही उजाड़ने का उपक्रम कर रहे हैं। इस बाबत बिहार राजस्व परिषद के अध्यक्ष के. के. पाठक और बिहार राज्य सरकार द्वारा नामित राजस्व अधिकारी बद्री प्रसाद गुप्ता ने बेतियाहाता मुहल्ले के आराजी संख्या 238-40 पर काबिज 41 दलित परिवारों को बेदखली का नोटिस दे दिया है। जबकि 1500 परिवारों का कब्जा उस भूमि पर है। तब क्या दलित ही बिहार और राज्य सरकारों की आंखों में किरकिरी बने हुए हैं? क्या यही न्याय है? एक जातिय वर्ग को बसाया जाय और दूसरे वर्ग को उजाड़ा जाए? पहले विदेशी ताकतें इन को बेदखल करती थीं। और अब देशी ताकतें सामंती धौंस दिखा कर इन मजलूमों को बेघर करने पर तुली हैं।


बताते चलें कि 'शहर के बेतियाहाता में 50.921 एकड़ से अधिक भूमि बेतिया स्टेट की है। इनमें मंडलायुक्त आवास परिसर समेत, आस-पास अधिकारियों के आवास, आवास विकास कालोनी, स्कूल, सड़क और पानी की टंकी के अलावा करीब सात-आठ एकड़ जमीन पर निजी मकान बन चुके हैं।

सरकारी आवास और निर्माण के मामले में शासन स्तर पर सहमति बन चुकी है। लेकिन निजी निर्माण खाली कराना बिहार राजस्व परिषद की प्राथमिकता में है। यह परिषद है या कोई निजी ठेकेदारी का बिल्डर? इसे केवल सात-आठ एकड़ में बसे उन दलित मुहल्लों को उजाड़ना है जो चंद जमीन के टुकड़ो पर बने झोपड़ियों में अपना बसेरा बनाये हुए हैं! उन बंगलों और कोठियों पर क्यों नहीं बिहार राजस्व परिषद बुलडोजर चलावा रही है जिस पर द्विजों का कब्जा है?


देश में दलित और आदिवासियों को बेदखल करने के लिए राज्य और निजी कंपनियों, गुडों और बिचौलियों के सांठ-गांठ से वर्चस्व का एक पूरा जाल बिछा हुआ है। जो बन रही प्रतिरोधी शक्ति को कुचलने का काम करती है। धीरेन्द्र प्रताप का निवास भी उस मुहल्ले में है। वे दलितों को आत्मरक्षा के कौशल के लिए छोटा सा अकादमी चलाते हैं लेकिन स्थानीय द्विज नेताओं की आंखों में किरकिरी बने हुए हैं। उनको बेदखली के नोटिस से पहले फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार करने का फरमान उत्तर प्रदेश से जारी हुआ है। उन्हें पता है कि धीरेन्द्र प्रताप के रहते उस जमीन को खाली कराना आसान नहीं है।


DrSantosh Kumar

8 फरवरी, 2025


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