दलित साहित्य चिन्तन में अम्बेडकरवाद की सैद्धांतिकी और अम्बेडकरवादी राजनीति के पतन काल की पड़ताल करता यह लेख इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रो. भूरेलाल ने लिखा है :
बसपा के भीतर जो ब्राह्मण आए, उन्होंने दलितों का कितना भला किया..? सारे मलाईदार प्रोफाइल ब्राह्मणों को दिए गए और बसपा मूवमेंट को चाट-खा कर चलता किए। पिछड़े भी मंत्री बन कर आरएसएस की गोद में जा बैठे। दलितों को पांच किलो अनाज और कुछ को पक्की झोपड़ी के अलावे क्या दिया गया..? कल दलितों को मायावती ने जो दिया, आज वही आरएसएस-बीजेपी दे कर दलितों का राजनीतिक दोहन कर रहा है। मायावती ने एक भी ईमानदार और कर्मठ दलित को नेता बनाया हो तो बता देना। मायावती ने सेकंड जनरेशन लीडरशिप का निर्माण क्यों नहीं किया...? अपने को लगातार महारानी बनाए रखने के लिए न..? और कोई कारण हो तो बता देना। आज बहुजन आंदोलन नष्ट हो गया तो इसका सबसे बड़ा कारण second generation leadership का न होना है। अब बहुजन आंदोलन खत्म हो गया है। अब अरण्य रोदन करो और मायावती को देवी बना कर पूजो। यही ब्राह्मणवाद भी कहता है, आप भी कह रहे हो! 2024 के लोकसभा चुनाव में विकल्पहीनता की स्थिति में ही दलितों ने इंडिया गठबन्धन का साथ दिया। मायावती ने बहुजन आंदोलन को बेंचने-खाने का काम किया है। अपने भाई-भतीजे की कम्पनियां खड़ी की है। मायावती की दलित ठेकेदारी अब ख़त्म है।...1984 से ही दलित लगातार बसपा के साथ रहे हैं और तमाम हमलों के बाद आज भी हैं। दलितों ने बसपा को कमज़ोर नहीं किया। बसपा ही आज दलित समाज का राजनैतिक दोहन कर बीच मझधार में छोड़ दी है और आज दलित अपने दुश्मनों के लिए खुले शिकार बन गए हैं। बसपा के कथित मिशनरी नेता आज कहाँ हैं..? मायावती ने भी कभी दलितों पर होने वाले वाले अत्याचारों पर घड़ियाली आँसू बहाने के अलावे कुछ नहीं किया, कोई कारगर रणनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी।...जब अपनों और परायों में कोई बुनियादी भेद न रहे, तो फिर दलित क्या करें...जाटव साहब..? दलित मायावती के न कभी ग़ुलाम थे और न रहेंगे। मायावती का राजनीतिक चिंतन अम्बेकरवादी चिंतन से आगे क्यों नहीं बढ़ा..? डॉ.अम्बेडकर और उनकी राजनीति इतनी ही कारगर होती तो 1947 में ब्राह्मणों के हाथों में अंग्रेज सत्ता सौंप कर न चले गए होते। पूना पक्ष, बौद्ध धर्मान्तरण और कांग्रेसी राजनीति से आगे अम्बेडकर क्यों नहीं बढ़ पाए..? अम्बेकरवाद की सीमाओं पर भी कभी जाटव साहब चिंतन मंथन कर लिया करें। अम्बेकरवाद की सीमाएं ही कांशीराम और मायावती की सीमाएं क्यों बन गई हैं, इस पर कभी मंथन किए हैं..? अगर किए होते तो इस तरह भोले-शंकर जैसी बात न कर रहे होते।
अम्बेडकरवाद पर चलने वाले बहुजन आंदोलन को एक न एक दिन खत्म होना लाजिमी था, क्यों कि अम्बेडकरवाद 1947 में ही राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गया था। जिस दिन कांशीराम ने आँखें मूँदी, उसी दिन बहुजन आंदोलन खत्म हो गया था। कांशीराम अपने उत्तरार्ध में अम्बेकरवाद की सीमाएं समझने लगे थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके बाद तो मायावती ने अम्बेकरवाद के सबसे बड़े आदर्श उदार ब्राह्मणवाद को पूरी तरह लागू कर दिया और पार्टी के अंदरूनी स्ट्रक्चर तक में भी जगह दे दी। इससे अम्बेडकरवाद और मायावती, दोनों का सफाया हो गया। अब रुदाली के सिवा कुछ नहीं बचा। अब बुद्ध और अम्बेडकर पर आश्रित 'जाटववाद' की मौत होनी शेष है।
समझौते की राजनीति
समझौतों पर टिकी राजनीति का कोई भविष्य नहीं होता। डॉ. अम्बेडकर की राजनीति की इस त्रासदी को साहब कांशीराम नहीं समझ सके। उन्होंने डॉ. अम्बेडकर की राजनीति को उनके ख़िलाफ़ कांग्रेस की साजिश समझ कर उसे अपने मिशन का मूलाधार बना बैठे, जब कि यह डॉ. अम्बेडकर की राजनीति की आंतरिक कमज़ोरी भी थी। डॉ. अम्बेडकर की राजनीति का कोई फ्यूचर या विज़न था ही नहीं। कांशीराम साहब की डॉ. अम्बेडकर को ले कर भयानक ऐतिहासिक भूल थी, जिसका अहसास उन्हें बाद में होने भी लगा था और वह डॉ. अम्बेडकर की आंतरिक कमज़ोरियों को उजागर भी करने लगे थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जैसे उन्होंने एक बार कहा था कि "डॉ. अम्बेडकर ने जीवन भर पुस्तकें इकट्ठा करते रहे और मैंने पुस्तकों की जगह लोगों को एकत्रित किया।" काश, साहब कांशीराम डॉ. अम्बेडकर को केंद्र बना कर नहीं बल्कि स्वतन्त्र रूप से राजनीति करते तो आज उनके बहुजन आंदोलन की यह दुर्दशा और त्रासदपूर्ण अंतिम परिणति न होती।
प्रोफेसर भूरेलाल
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
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