स्वतंत्र चिन्तन की नई दिशाएं

 प्रत्येक समाज के अपने बुद्धिजीवी और दार्शनिक होते हैं, जिनका अपने समाज से सरोकार भी होता है। डा. अम्बेडकर दलित समाज के बुद्धिजीवी थे, सावरकर द्विज समाज के , डा. इकबाल मुस्लिम समाज और डा. रामदयाल मुंडा आदिवासी समाज के। एक समय में सभी ने अपने-अपने क्षमता अनुसार कार्य किया। लेकिन कोई व्यक्ति अपने समाज और धर्म से ऊपर नहीं होता है। सामाजिक इतिहास के मूल्यांकन में समय सापेक्ष उनके चिन्तन प्रणाली का मूल्यांकन भी होता है। यही स्वभाविक चिन्तन का विकासक्रम होता है।



    आस्थाओं का भी अपना महत्व है जब वह सीधे धर्म और अध्यात्म से जुड़ा मामला होता है। लेकिन दर्शन उसके अवयव और तात्विक चिन्तन के महत्व को प्रश्नांकित और व्याख्यित करने की जुगत भी करता है। मेरा वक्तव्य अपने समाज के जन सरोकार से ही जुड़ा होता है। समाज, धर्म, दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान और जीव विज्ञान मेरे प्रिय विषय हैं। साहित्य में मैंने अनुसंधान किया है। इसलिए जीवन के मुख्य तत्व इंसानियत और मनुष्यता के अस्तित्ववाद (जीव) को मैंने चुना है क्योंकि मेरा समाज इन्हीं संवेदनाओं को व्यवहार में जीता है।

आज सोशल मीडिया और भारतीय राजनीति के केंद्र में दलित समाज और डा. अम्बेडकर की प्रासंगिकता जन स्वीकार्य है।

लेकिन महानताओं की इस श्रेणी में समाज के अधोपतन को मैं कैसे नजरअंदाज कर दूं? भारतीय सामाजिक संरचना के कई आयाम और विभाग हैं, कुछ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, कुछ उस पायदान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दलित कौम इसी संघर्षरत विभाग का समाज है। जिसकी अपनी स्वतंत्र चिन्तन प्रणाली की परम्परा है, स्वतंत्र सांस्कृतिक आधार है और स्वतंत्र राजनीतिक दिशाएँ भी हैं। समय-समय पर अनेकों बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों ने उसे गतिशीलता भी प्रदान किया है। कईयों ने विचलन भी पैदा किया है। यह बात तब लोगों को समझ में आएगी जब उनके पास दृष्टि होगी, जिसे सद्गुरु रैदास और कबीर पारखी नजर कहते थे।

              बात, बाबा साहब डा. अम्बेडकर से शुरू करना चाहता हूं। मेरे समाज के अधिकांश लोग ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं सोच पाते हैं इसलिए वे प्रगामैटिज्म यानी 'प्रभाववाद' में गोते लगाते हैं। जब भी वे बात करना शुरू करते हैं तो डा. अम्बेडकर से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म कर देते हैं। उन्हें डा. अम्बेडकर से पहले और उनके बाद में कोई इंटरेस्ट नहीं है! सोचिए, क्या यह स्वाभाविक असर है? क्या दुनिया की समाज व्यवस्थाएं व्यक्ति या समुदाय के स्तर पर इन्हीं चिन्तन प्रणालियों से विकसित होती हैं? जाहिर है नहीं। तब दलितों के हिस्से में यह कौन सा रोग लग गया है?

आखिर, अम्बेडकरवाद आज के राजनीतिक और सामाजिक विकास में कहाँ तक सहायक है, इस पर बात करने से लोग क्यों कतरा जाते हैं? पोस्ट-अम्बेडकर थाट के वरिष्ठ विचारक प्रो. भूरेलाल सही कहते हैं कि, - 'अम्बेडकरवादियों के पास अपनी परम्परा से विकसित कोई मौलिक, स्वतंत्र और ऐतिहासिक चिन्तन नहीं है। जो कुछ चिन्तन के नाम पर है, सब उधार का चिन्तन है।' 


 आइए स्वतंत्र नजरिये से अम्बेडकरवाद के खोल में घुसते हैं -

'अम्बेडकर' व्यक्ति का नाम है, समाज का नहीं। डा. अम्बेडकर अपने जीते-जी इस अवधारणा को विकसित नहीं किये थे। हां, उन्हें अधिनायकत्व, पर्सनल कल्ट और हिरोइज्म में भी आस्था नहीं थी। वे लोकतांत्रिक विचार के व्यक्ति थे। तब, 'अम्बेडकरवाद' को सैद्धांतिक मंजूरी कहाँ से मिला और कैसे विकसित हुई? यह गंभीर और गहरा सवाल है। 60 के दशक में मराठी दलित साहित्य साम्यवाद से गठजोड़ कर के अधिनायकवाद की तर्ज पर 'अम्बेडकरवाद' को लेकर आया। 'दलित पैंथर' का उभार भी इसी वैचारिक आंदोलन का हिस्सा था। जिसका पतन राजनीतिक स्वार्थ और व्यक्तिगत सत्ता लोभ में परिणत हो गया और दूसरे चरण में गांधीवाद से होते हुए संघ का शरणागत हुआ हुआ। इसीलिए हिन्दू संस्कृतीकरण की योजना में अम्बेडकर, सावरकर और विवेकानंद को शामिल किया गया है। 

उत्तर भारत में एक दूसरे प्रकार की विचारधारा तैयार हो रही थी। जो कहीं सुलग रही थी तो कहीं भभक रही थी। इस आग के नियंता मान्यवर कांशीराम साहब थे। बामसेफ के द्वारा उन्होंने समूचे भारतीय समाज को हिला डाला था। लेकिन उन्होंने व्यक्ति के नाम पर दल या संगठन को विकसित न कर के सामाजिक स्वीकृति की समाजबोधक संस्थाओं को खड़ा किया, जिसमें कई समाज को समाहित करने की क्षमता थी। यह बुद्ध का 'महायान' नहीं था और न ही डा. अम्बेडकर का नवयान था। यह अलग प्रकार का विकसित और भविष्योन्मुखी आइडियोलाजी थी। जिसने उत्तर प्रदेश जैसे राज्य पर 4 बार शासन भी किया किन्तु कांशीराम साहब के प्रभाव के कम होते ही व्यक्तिगत अधिनायकत्व की शुरुआत भी असर करने लगी इस द्वंद्वात्मक विचार प्रणाली में स्वाभाविक छूट रहा था, बहुत कुछ टूट रहा था। और फिर, महाराष्ट्र की पराजय 'अम्बेडकरवाद' ने बहुजनवाद को समेट लिया। लोग अपने को समाज में प्रवाहित करने की बजाय अपने में समाज को प्रवाहित करने की काल्पनिक सोच में डूब कर अपना विध्वंस करने लगे।


अम्बेडकरवाद दलित चिन्तन का स्वाभाविक मार्ग नहीं है, 

अम्बेडकरवाद को स्वीकारने में दलित समाज के ऐतिहासिक जडों को कटना पड़ता है। दलित जनसमुदाय यह नहीं चाहता था कि 'पूना पैक्ट' हो। दलित समाज की चेतना पलायन और धर्मांतरण को तो कतई नहीं स्वीकारने को तैयार थी। लेकिन अपने नाविक के प्रति विश्वास ने उन्हें किसी अनजान और पराये तट पर उतार दिया। इस तट से बाबू मंगूराम मुंग्गोवालिया गोहराते रह गये कि वहां अपना घर नहीं है! मराठी दलित साहित्य ने यह गुनाह किया, उसने डा. अम्बेडकर का ऐतिहासिक मूल्यांकन न करते हुए 'अम्बेडकरवाद' की धारणा को मजबूत और आस्थावान बनाया। सद्गुरु रैदास, कबीर और मक्खली गोसाल को त्याग कर बुद्ध की शरण में, उनकी संगत में और बुद्ध के धर्म में अपनी जड़ों को तलाशने लगे! बुद्ध ने उनके सोचने की क्षमता पर तीन बार कसम (त्रिशरण) देकर ताला लगा दिया। अब लोग आंख मूंद कर 'जय भीम, नमो बुद्धाय' गाने लगे। दुनिया में बुद्ध और अम्बेडकर की महानता की गाथाएं लिखने लगे और उनका समाज और वर्तमान शक्ति का स्रोत राजनीति गलने लगी। यही अम्बेडकरवाद है, यही कुछ दलितों का सोचने-विचारने का जीवन स्रोत है!

जिसे अंधविश्वास, पाखंड और गुलामी के खिलाफ अपने मौलिक सृजन के साथ आगे बढ़ना था। वह दूसरों का मुखापेक्षी, प्रतिक्रियावादी और प्रतिरोध के स्वर के साथ औजार बन गया। उदारवादी द्विज बुद्धिजीवी इसमें हवा देने का काम किये और कमजोर दलितों को लेकर हामी भरवाये। लेकिन उत्तर भारत में दलित दर्शन के मजबूत स्तंभ डा. धर्मवीर के ऊभार ने व्यक्ति के बजाय दलित कौम की समूची परम्परा का ऐतिहासिक मूल्यांकन किया और खाली स्पेश को आजीवक चिन्तन प्रणाली के तहत क्रमबद्धता की लयता से सुशोभित किया। यह काम आसान नहीं था। मार्ग में अनेक बाधाएँ थीं, सवाल उठाये हैं तो जवाब दें, समस्या खोजे हैं तो समाधान दें, इस तरह की बातों के बीच उन्होंने तादात्म्य के साथ काम किया। धर्मान्तरण दलितों की धार्मिक पहचान नहीं है तो क्या है, दलितों का धर्म? इस पर उन्होंने भारतीय दर्शन के वर्चस्वादी स्कूलों से मुठभेड़ किया और इतिहास में दफ्न 'आजीवक' धर्म को खोज लिया। यही दलितों की धार्मिक पहचान बनी। 'दलित' शब्द की नकारात्मक अर्थ को 'आजीवक' शब्द में कन्वर्ट करने की बात की। 'हिन्दू कोड बिल' से दलित के वैयक्तिक समस्याओं के समाधान नहीं होते हैं क्योंकि यह द्विजों की धार्मिक परम्परा से बनी है।

इसलिए उन्होंने 'दलित सिविल संहिता 2007' प्रस्तुत किया।

उन्होंने डा. अम्बेडकर की 'प्रभाववादी व्याख्या' भी किया। 


सवाल, समाज और धर्म का था। राजनीति तो समाज का बाई प्रोडक्ट होता है। कोई भी समाज अपनी समस्याओं की पूर्ति हेतु ही राजनीति के साधन का उपयोग करतार है। समाज मजबूत और संगठित नहीं है तो राजनीति दिवास्वप्न की तरह होते हैं। यदि धर्मांतरण से गैर-द्विज कौम बिखरी नहीं होती तो साहब कांशीराम को 'दलित, पिछड़े, आदिवासी और अन्य अल्पसंख्यक' शब्द की जरूरत क्यों पड़ती? उन्होंने ने इन बिखरे हुए लोगों को उनके अतीत और असल वजूद का बोध करा दिया। उन्हीं बिखरे समाज की शक्ति को संगठित करने के दार्शनिक डा. धर्मवीर ने आजीवक धर्म में आने को कहा। यह आज के परिवेश में सोचेंगे तो हास्यास्पद लगेगा लेकिन गहराई से सोचेंगे तो मजबूती महसूस होगी। इस्लाम को मोहम्मद साहब के द्वारा लिख देने से लोगों ने नहीं स्वीकारा, ईसाईयत बाईबल के लिख देने से नहीं फैला और सिख धर्म 500 वर्षों तक धर्मांतरण की गुलामी को इंजोय करते हुए आगे नहीं बढ़ा! इन समाज ने कितनी तकलीफें झेली, पीड़ा और दुख सहा, जरुरत पड़ने पर तलवार उठाया, सब इतिहास में दर्ज है। उसके एक चौथाई के बराबर ही उक्त समाज अखिल भारतीय स्तर पर संगठित होकर कोशिश कर के तो इस देश की शासन सत्ता पर उसका कब्जा और दुनिया में उसकी एक अलग ही पहचान होगी! हाँ, इसके कुछ साइड इफेक्ट भी होंगे उस पर बातें फिर कभी। 

डा. संतोष कुमार 

24 जनवरी, 2025


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