दलित साहित्य अपने अपील में सत् का आग्रही रहा है। भोगे हुए यथार्थ और जीवन संघर्ष का साक्ष्य देकर आगे बढ़ा है। द्विज साहित्य के कपोलकल्पित और मनोरंजक शैली के बरक्स कटु जीवन यथार्थ का चिरंतन अभिव्यक्ति पेस करता है, दलित साहित्य। जहाँ, जीवन की सरलता है, प्रकृति का सानिध्य है और नव भारत निर्माण का स्वप्न है। ऐसे में 'संस्कृत' भाषा और 'कामसूत्र' के culturlization literature (संस्कृतिकरण-साहित्य) का Libertine aesthetics (अनैतिक सौन्दर्यशास्त्र) कहीं नहीं ठहरता है। क्योंकि सद्गुरु रैदास और कबीर के ethical aesthetics (नैतिक सौंदर्यशास्त्र) का civilization (सभ्यता) समाज को नैतिक जिम्मेदारियों से लबरेज किया हुआ है।
कबीर कहते हैं - 'संस्कृत है कूप जल' यहां इसका आशय यह है कि, - जिस तरह ठहरा हुआ पानी गंदा होता है, उसी तरह भाषा और समाज है! यदि उस गंदे पानी से समाज संचालित होगा तो तमाम व्याधियां उत्पन्न होंगी। सील, सदाचार और नैतिकता गृहस्थ जीवन के सौंदर्य हैं जिसे हम 'एथिकल ऐस्थेटिक' कहते हैं। साहित्य में, मूलतः दलित यानी आजीवक साहित्य में आलोचना, समीक्षा या मूल्यांकन का जो आधार है, वह उक्त सिद्धांत पर ही आधारित है। दलित लेखक के कथनी और करनी को एक करके देखना है। यह कठोर जरूर है लेकिन बदचलन की लेखनी के लिए यह कारगर अस्त्र है। इससे ठीक यह होगा कि गलत प्रभाव से समाज को बचाया जा सकता है।
द्विजों की भांति दलित यह तो नहीं कहेगा कि - स्वत: सुखाय के लिए लिख रहा। हाँ, कुछ दलित लेखक ऐसे भी होंगे जो द्विजों के सानिध्य और उनके धर्म, दर्शन, साहित्य से प्रभावित होकर दलित दर्शन के मूल तत्व से Inferiority (हीनता) महसूस करेंगे। ऐसे में उनका लेखन immorality (अनैतिकता) की पराकाष्ठा को प्राप्त करेगी। और ऐसे साहित्य के अध्ययन से आम जनमानस पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है! यदि अपराध मन में पनपते हैं तो साहित्य में पनपने वाले अपराधों को सबसे पहले अंकुश लगाने की जरूरत है। हम देखते हैं कि कड़े प्रावधान होने के बावजूद भी अपराध नहीं रुक रहें हैं। आखिर भारतीय मानस का मस्तिष्क कहां से अपराध का ज्ञान प्राप्त कर रहा है? वह कौन सा स्रोत है, जहाँ से यह विकृतियां फैल रही हैं? इसलिए हमें संस्कृति के रेसे-रेसे को उधेड़ कर देखना होगा, कहीं तो चूक है। यदि पूरी संस्कृति ही चूकों से भरी पड़ी है तो ऐसी मरी हुई संस्कृति को सत्ता-केंद्रों से तुरंत हटा देना चाहिए। फिर हमें भारतीयता की रीढ़ 'आजीवक सभ्यता' को देखें, जहाँ माता-पिता के संवेदनाओं (imotion) की बाढ़ है। इस सस्कृति की लयता प्रकृति से जुड़ती हुई अपनी भाषा 'हिन्दी' के साथ भारतीय लोगों के धमनियों में सदियों से प्रवाहित हो रही है, जिसे सत्ता के केन्द्र में आकर खुद को apply करने की जरूरत है।
दिनांक 13/01/2020 डा. संतोष कुमार
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