कैलाश दहिया
कुछ लोग अपने आप को विद्वान समझते हुए अपनी वाचालता में इस हद तक आगे बढ़ जाते हैं कि उन्हें सही और गलत का अहसास तक नहीं रहता। डॉ. सतरुद्र प्रकाश ऐसे ही व्यक्ति का नाम है। इस जेएनयू से पी-एच.डी धारी ने रैदास -कबीर साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. भूरेलाल जी से संवाद के नाम पर उन्हें गालियां ही नहीं दीं बल्कि आजीवक महापुरुषों के प्रति भी अपशब्दों का प्रयोग किया है। ऐसे लगता है इस ने जैनों-बौद्धों से गाली देने का कापीराइट ले लिया है। आगे बढ़ने से पहले यहां दिनांक 24 नवंबर, 2024 की फेसबुक पोस्ट रखी जा सकती है, ताकि पाठकों-शोधार्थियों को प्रमाण उपलब्ध रहे। वैसे भी इस जैसे कभी भी अपनी लिखी पोस्ट हटा सकते हैं। 'अजीवक (आजीवक) लेख श्रृंखला' नाम से इस की पोस्ट कुछ ऐसे है :
"अजीवक लेख श्रृंखला-1"
प्राचीन काल से ऐसे लोग होते रहे हैं जिन्होने अपने समय अकर्मण्यता, असंगत विमर्श, ऊट-पटांग की बकवास करके अपने समय के विचारकों तथा समाज को सही दिशा देने वालों के समक्ष चुनौती खड़ी करते रहे।
ऐसा परम मूर्ख हुआ था भगवान बुद्ध और महावीर के समय में। उसका नाम था मक्खलि गोसाल। इस व्यक्ति को बुद्ध-महावीर के अलावा किसी ने तवज्जो नहीं दिया। जैन आगमों में इसका उल्लेख केवल इतना है कि पहले ये जिन् महावीर के साथ था, लेकिन उनके साथ ये महावीर की तरह संयमित और मितभाषी न रह पाया। फिर ये बुद्ध के पास आया। गोसाल की मूर्खतापूर्ण बातों की वजह से बुद्ध ने इसे उपेक्षित किया। लेकिन ये गाली-गलौच पर उतरा तो बौद्धों ने इसे कूटना चाहा। बुद्ध ने अपने शिष्यों अनुयायियों को ऐसा करने से मना किया और कहा कि इसे जाने दो। जैनियों बौद्धों ने इस कुतार्किक मूर्ख को भाव न दिया तो इसने खुद को महावीर की तरह दिगम्बर रखते हुए नंगा घूमने लगा। बोलने लगा कि मैं भी जिन हूँ, अर्हन्त हूँ। महावीर मेरा शिष्य है। शिकायत लेकर जैनी लोग जब महावीर के पास गये तो एक बार उन्होने इस पर मुंह खोला और बोले कि ऐसे मूर्खों पर बिल्कुल ध्यान ना दें।
भगवान बुद्ध के संघ में भिक्खुगण चारिका करते हुए भीख नहीं माँगते थे बल्कि जो गृहस्थ बौद्ध थे वे खुद श्रद्धा से उन्हे भोजनदान करते थे। गोसाल ने इस पद्धति को "आजीविका का उपाय" घोषित किया। बुद्ध के ही विचार व पद्धति के आधार पर गोसाल ने लोगों को आह्वान किया कि बहुजन हित में चारिका ना करो बल्कि स्वतंत्र भ्रमण करो। भोजनदान के लिए भिक्षापात्र लेकर ना चलो। "अजीवक" रहो। परमेश्वर हर जीव सा ध्यान रखता है। इसलिए पात्र सहित खुद भोजन उपलब्ध कराएगा।
"जीविका के लिए घर न छोड़ो, चीवर के लिए कोई उम्मीद समाज से ना पालो। बल्कि पूरी तरह निर्वस्त्र ही घूमो और जीविका विहीन यानि "अजीवक" रहो। मूूर्ख गोसाल का एक-दो जगह उल्लेख बौद्धों के पालि ग्रन्थों में मिलता है। चूँकि ये ज्यादातर लड़ता था जैनियों से, इसलिए चार-पांच वाक़ये प्राकृत भाषा के जैन आगमों में मिलते हैं। लेकिन बाद में ये व्यक्ति और इसका विचार विलुप्त हो गये। इसका कोई एक भी चेला ना हुआ। चूंकि ये महा अनपढ़ उजड्ड और बेवकूफ था, इसलिए ना तो कोई पूजा-उपासना पद्धति विकसित कर पाया ना ही इसका कहीं कोई सिद्धान्त-दृष्टान्त ही उपलब्ध होता है! क्योंकि आजीवन ये व्यक्ति केवल गाली-गलौच करता घूमता रहा।
संस्कृत भाषा के तत्कालीन लेखकों विचारकों ऋषियों ने तो इसकी कुटाई की थी और जीविका विहीन इस "अजीवक" को नग्न विचरण करता देख अधर्मी, दुश्चरित्र, निर्लज्ज, मूर्ख और समाज को दिग्भ्रमित करने वाला नास्तिक घोषित किया। इस पर आपको संस्कृत भाषा में लिखी एक लाइन नहीं मिलेगी।
अपनी मृत्यु के बाद इस गोसाल की नौटंकी भारतीय परम्परा में कहीं नहीं दिखती। यहाँ तक कि लगभग 2500 सालों तक इस मक्खलि गोसाल का नाम तक जानने वाला कोई ना हुआ।
15वीं शताब्दी में उभरते हैं सन्त कबीर। ये खुद कहते हैं कि ये अनपढ़ रहे। इनके शिष्य ही इनकी बातों को दोहा शैली में लिपिबद्ध करते थे। कबीर साहेब ने कहीं किसी भी जगह गलती से भी इस जीविका विहीन स्वघोषित सिद्ध "अजीवक" का नाम नहीं लिया। हजारों कबीर दोहों में आप कहीं भी मक्खलि गोसाल का नाम नहीं पाएंगे। एक भी लाइन आपको "अजीवक" की नहीं मिलेगी।
सन्त रैदास का विचार हमें गुरु ग्रन्थ साहिब से प्राप्त होता है। इन्होने मीराबाई को दीक्षा दिया था। कहा जाता है कि गुरु नानक साहब ने युवावस्था में व्यापार के लिए प्राप्त धन से जिन्हे भोजन कराया था वो सन्त मण्डली सन्त रैदास की ही थी।
लेकिन आपको बता दूँ कि सन्त रैदास ने भी मक्खलि गोसाल का या "अजीवक" का कहीं कोई जिक्र नहीं किया। सिखों के दश गुरुओं ने भी कोई "अजीवक मक्खलि गोसाल" को नहीं जानता।
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मक्खलि गोसाल की तरह का एक उजड्ड, बेवकूफ, कुतार्किक, घमण्डी लेकिन पूर्णतः अव्यावहारिक व्यक्ति हुआ। ये साक्षर था। लेख की अगली कड़ी में इस सेकेण्ड मक्खलि गोसाल का वर्णन किया जाएगा।"
अब हम इस पर आगे बात कर सकते हैं। अपनी समझ में यह जो लिख रहा है, 'मक्खलि गोसाल, इस व्यक्ति को बुद्ध-महावीर के अलावा किसी ने तवज्जो नहीं दिया।' क्या इस पी-एच.डी धारी को इतनी भी समझ नहीं है कि जिन दो व्यक्तियों के इस ने नाम गिनाए हैं वे वर्णवादी द्विज परंपरा के बड़े धर्म चिंतक थे। यह दोनों चिंतक मक्खलि गोसाल को तवज्जो नहीं दे रहे थे। किसी को तवज्जो नहीं देने का अर्थ क्या इसे नहीं पता? फिर, ये कौन होते थे किसी को तवज्जो देने वाले? कल को तो यह कह देगा डॉ. धर्मवीर को नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने कोई तवज्जो नहीं दी, तो क्या इस से डॉ. साहब के विचार मान्य नहीं होंगे? यह अलग बात है कि महावीर और बुद्ध केवल गोसाल को कोस रहे थे, क्योंकि गोसाल ने संन्यास के किसी भी रूप को अस्वीकृत कर दिया था। तब यह मुनि और भिक्षुक गाली देने, कोसने और तवज्जो नहीं देनेके सिवाय कर ही क्या सकते थे! तवज्जो नहीं देने का अर्थ यह भी है कि तवज्जो नहीं देने वाले को पता है कि सच्ची बात तो सामने वाला ही कह रहा है, लेकिन उसे मानना नहीं है। तवज्जो ना देना इसी रणनीति का हिस्सा है। क्योंकि, गोसाल ने इन वर्णवादी चिंतकों के चिंतन की धुरी को ही नष्ट कर दिया था। यहां बताने वाली बात यह भी है, जिस दलित व्यक्ति को द्विज तवज्जो दे, समझ जाइए वह दलितों के किसी काम का नहीं है। फिर चाहें वह नेता हो या लेखक। आज द्विजों के मंचों पर जो दलित लेखक देखें जाते हैं वे उन की चाकरी करते देखे जा सकते हैं।
इस की लिखत से यह भी पता चलता है कि तत्कालीन समय में महान गोसाल के विरोधी महावीर और बुद्ध ही थे। ब्राह्मण का तो नामोनिशान तक नहीं मिलता। ब्राह्मण केवल महावीर और बुद्ध के शिष्य के रूप में गोसाल को कोस रहा था, जैसे अब यह सतरुद्र कोस रहा है। इस में एक अन्य बात विचारणीय है, खुद को भगवान कहलवाने वाले महावीर और बुद्ध किसी 'परम मूर्ख' से उलझ रहे थे! यह इन तथाकथित भगवानों की समझदारी की निशानी तो नहीं मानी जा सकती। ऐसे लगता है ये भगवान भी इस सतरुद्र जितने ही मानसिक विकसित हुए थे। एक अन्य बात इसे बताई जा सकती है, जिस समय महान मक्खलि गोसाल अपना चिंतन दे रहे थे उस समय बुद्ध घुड़लिया चल रहे थे। इस के बहाने यह भी बताया जा सकता है, आजीवकों ने कभी भी यह दावा नहीं किया कि महान गोसाल का कोई महावीर नाम का शिष्य था, उल्टे जैनी लिखते रहे हैं कि गोशालक महावीर का शिष्य था। फिर, जिस व्यक्ति का कोई ''सिद्धांत- दृष्टांत" ही उपलब्ध नहीं होता तब उस व्यक्ति से महावीर और बुद्ध क्यों गाली-गलौच रहे थे? जहां तक वर्तमान में आजीवकों द्वारा बुद्ध की आलोचना की बात है, तो बताया जा सकता है डॉ. भीमराव अंबेडकर की वजह से हमें बुद्ध की आलोचना करनी पड़ रही है, अन्यथा बुद्ध से आजीवकों का किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं है। फिर, जब बौद्ध साहित्य में महान मक्खलि गोसाल के प्रति अपशब्द मिलते हैं तब बुद्ध हमारी आलोचना की जद में आ जाते हैं? यही नियम महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के प्रति अपशब्द बोलने वालों पर भी ज्यों का त्यों लागू होता है। हां, तार्किक आलोचना का स्वागत किया जा सकता है।
इस ने ज्यादा समझदार बनते हुए लिखा है, 'भगवान बुद्ध के संघ में भिक्खुगण चारिका करते हुए भीख नहीं माँगते थे बल्कि जो गृहस्थ बौद्ध थे वे खुद श्रद्धा से उन्हे भोजनदान करते थे।' अब इसे बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की लिखत से ही बताया जा सकता है, उन्होंने लिखा है :
"6. भिक्खा ही मात्र वह डोरी थी, जिससे भिक्खु और गृहस्थ परस्पर बंधे हुए थे।
7. भिक्खु तो भिक्खा पर निर्भर रहते थे और गृहस्थ उन्हें भिक्खा प्रदान करते थे।
8. गृहस्थ लोग संगठित नहीं थे।
....
11. लेकिन उन लोगों के लिए कोई अलग धम्मदीक्षा नहीं थी जो धम्म में तो दीक्षित होना चाहते थे, किंतु संघ का सदस्य नहीं बनना चाहते थे। इसका एक परिणाम था गृहत्याग करके गृह-विहीन (परिव्राजक) स्थिति में रहना।
12. यह एक गंभीर कमी रह गई। यह कमी उन कारणों में से एक थी जो अंततः भारत से बौद्ध धम्म के लुप्त हो जाने का कारण बनी।"(१)
देखा जा सकता है यहां खुद डॉ. अंबेडकर पशोपेश में पड़े हुए हैं। वे बौद्ध धर्म में गृहस्थों की स्थिति को समझ नहीं पा रहे हैं। वे यह नहीं समझ पाए कि बुद्ध ने घर क्यों छोड़ा था। अगर वे इस बात को समझ जाते तो उन्हें इस तरह की व्याख्या नहीं करनी पड़ती। ऐसे में इस सतरुद्र जैसों की क्या बात की जाए! इस के आगे इसे आजीवक का जन प्रचलित अर्थ बताया जा सकता है। आजीवक का एक अर्थ होता है अपनी भूख मिटाने के लिए खुद कमाना अर्थात किसी के आगे हाथ ना फैलाना, इसीलिए कबीर साहेब कहते हैं..
"मांगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख।
मांगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख।"(२)
कबीर यह भी कहते हैं..
"घर घर भिक्षा मांग कर, करे इकट्ठा धन्न।
सो पापी संसा रमे, जो खावे पर अन्न।"(३)
और, सदगुरु रैदास बताते हैं...
"रैदास श्रम कर खाइहिं, ज्यों लों पार बसाय।
नेक कमाई जो करे, कबहुं न निहफल जाय।।"(४)
तो जीव जब तक जीवित है वह खुद कमाता है, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता। उम्मीद है, ऐसे शठबुद्धि पी-एच.डी. धारी को यह भी समझ आ रहा होगा कि सदगुरु रैदास और कबीर साहेब किस तरह से आजीवक और आजीवक परंपरा के चिंतक हैं।
इस के यह कहने में कुछ भी दम नहीं है, 'लगभग 2500 सालों तक इस मक्खलि गोसाल का नाम तक जानने वाला कोई ना हुआ।' सर्वप्रथम तो इस से पूछा जा सकता है, इसे कैसे मक्खलि गोसाल के नाम का पता लगा? दूसरे, इसे यह भी बताना होगा, डॉ. अंबेडकर द्वारा बुद्ध का नाम बताए जाने से पूर्व कौन दलित बुद्ध का नाम जानता था? क्या इस ने और इस के परिवार में से किसी ने बुद्ध का नाम भी सुना था? इस संस्कृतधारी को थोड़ा इतिहास का अध्ययन कर लेना चाहिए। इस की आंखें खोलने के लिए बताया जा सकता है, आज भी महावीर की महानता सिद्ध करने के लिए जैनी महान गोसाल को कोसते देखे जा सकते हैं। अच्छी बात यह है कि दलितों को अपने महान पुरखे और उन के चिंतन, धर्म-परंपरा का पता चल गया है। अब ये अपनी आजीवक परंपरा पर काम कर रहे हैं। बीच-बीच में इस जैसी खरपतवार भी पैदा हो ही जाती है। खरपतवार का क्या करते हैं सभी को पता है।
ऐतिहासिक तथ्य यह है कि आजीवक धर्म के संस्थापक महान मक्खलि गोसाल को जैन और बौद्धों ने गालियां दी हैं। इसका पता इन के ग्रंथों को पढ़ कर चल जाता है। इस बात को यह ऐसे बता रहा है मानो कोई दूर की कौड़ी खोज कर लाया हो! इस तथाकथित पी-एच.डी.धारी को इतनी भी समझ नहीं है कि विरोधी तो गालियां देगा और कोसेगा ही। तो, ऐसी पी-एच.डी. का क्या किया जाए? एक तरह से इस बात को ना समझने वाला मूर्ख की श्रेणी में आ जाता है। क्या इसे पता नहीं कि वर्तमान में भी संस्कृतधारी ब्राह्मण आलोचकों ने कबीर साहेब को कितनी गालियां दीं और कोसा है। इन द्विजों के गाली देने और कोसने से कबीर साहेब की महिमा कम नहीं हो जाती। असल में, यह तो नियम है कि हमारे जिस चिंतक को ये सनातनी वर्णवादी जितनी गालियां देते और कोसते हैं वह वास्तव में दलितों का उद्धारक होता है। वही दलितों का महापुरुष होता है। फिर, इन वर्णवादियों की चापलूसी करते हुए कुछ दलित भी पैदा हो जाते हैं जो अपने महापुरुषों को 'परम मूर्ख, कुतार्किक मूर्ख, अधर्मी, दुश्चरित्र, निर्लज्ज, उजड्ड, बेवकूफ' और न जाने कितनी तरह की गालियां देते देखे जा सकते हैं। इन जातिवादियों की सीख में ही कुछ दलित स्त्रियों ने तो डॉ. धर्मवीर पर 12 सितंबर, 2005 को 'प्रेमचंद- सामंत का मुंशी' के लोकार्पण कार्यक्रम में जूते-चप्पल तक चलाए थे। इन वर्णवादियों और इन के गुलाम दलितों की बदतमीजी और अभद्रता पर आजीवकों की पैनी नजर है। इन्हें इतिहास के हवाले किया जा रहा है। यही काम था जो अब तक हो नहीं पाया था। इसे आजीवक लगातार अंजाम दे रहे हैं। इस सतरुद्र की एक-एक हरकत और सोच पर हमारी पैनी नजर है। दरअसल, ऐसे दलित 'जारकर्म के सिद्धांत' की लपेट में झुलसे होते हैं। इस जैसों के 'अक्करमाशी' होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
यह लिखता है, 'इस पर (गोसाल) आपको संस्कृत भाषा में लिखी एक लाइन नहीं मिलेगी।' बताइए, यह संस्कृत को प्रमाण माना रहा है, कैसा चमार है ये? इस नवजात संस्कृतधारी को इतना भी नहीं पता की संस्कृत किस धर्म की भाषा है! इस की जानकारी बढ़ाने के लिए बताया जा रहा है कि संस्कृत ब्राह्मण जाति, ब्राह्मण नस्ल, ब्राह्मण वर्ण- अर्थात ब्राह्मण धर्म की भाषा है। अपने धर्म में ब्राह्मण अपने से इतर धर्मपुरुषों का उल्लेख क्यों करेगा? अगर करना भी पड़ गया तो उन के खिलाफ ही लिखेगा। ज्यादा ना बता कर इसे काम दिया जा सकता है कि यह ब्राह्मण ग्रंथों में महावीर और बुद्ध के प्रसंग ढूंढ कर उन पर काम करे। वैसे, कल को कोई मूर्ख कह देगा कि ईसाई और इस्लाम धर्म की किताबों में महावीर और बुद्ध के नाम नहीं मिलते, तब क्या यह मान लें कि ये धर्मपुरुष अस्तित्व में ही नहीं थे! फिर, महावीर, बुद्ध और ब्राह्मण ने कब अपने विरोधियों का सम्मान किया है। यह जरा इस पर भी रिसर्च करे तो इस के ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे। दरअसल यह जिन नौटंकीबाजों की संगत में है यह उन के जैसी ही भाषा बोल रहा है। वैसे यह ब्राह्मण की भाषा में स्वामी अछूतानंद, बाबू मंगूराम और डॉ. अंबेडकर का नाम खोज पर उस पर एक लेख लिख कर सामने आए। ब्राह्मण की छोड़िए, इसे डॉ. भीमराव अंबेडकर की लेखनी में स्वामी अछूतानंद और बाबू मंगूराम का नाम खोजना चाहिए। तब शायद इस के दिमाग के बल्ब जलें।
इस संस्कृतधारी को एक काम और दिया जा सकता है, यह संस्कृत में रैदास और कबीर के पक्ष में लिखी कोई एक बात दिखा दे या संस्कृत किताबों में इन के पद ही दिखा दे। संस्कृतधारियों ने सदगुरु रैदास और कबीर साहेब को कोसा ही नहीं बल्कि गालियां दी हैं। बुद्ध और महावीर कोई अलग नहीं हैं। इन के दिलों दिमाग में महान मक्खलि गोसाल के प्रति अपशब्द भरे हुए हैं। अगर हम इतिहास में और पीछे जाएंगे तो ऐसे सनातनी वर्णवादी हमारे महापुरुषों को कोसते और गालियां देते मिलेंगे। यह यहां तक है कि इन संस्कृतधारी लेखकों ने हमारे पुरखे शम्बूक की गर्दन तक काटी है और एकलव्य से अंगूठा लिया है।
यह संस्कृत में महान गोसाल का नाम ढूंढने में असमर्थ पा रहा है। ऐसे में इसे एक काम और दिया जा रहा है। यह एक अन्य जेएनयूधारी डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब 'अकथ कहानी प्रेम की- कबीर की कविता और उनका समय' में डॉ. धर्मवीर का नाम ढूंढ कर दिखाए। प्रसंगवश बताया जा सकता है कि यह भारी भरकम प्रक्षिप्त किताब अग्रवाल महोदय ने महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के विरोध में लिखी है। इस के ज्ञान चक्षु खोलने के लिए बताया जा सकता है कि ब्राह्मण ने ऐसे ही अपना एक पुराण महान मक्खलि गोसाल के विरोध में ही लिखा है।
यह तो ब्राह्मण से भी चार कदम आगे बढ़ गया है और लिख रहा है, '15वीं शताब्दी में उभरते हैं संत कबीर। ये खुद कहते हैं कि ये अनपढ़ रहे। इनके शिष्य ही इनकी बातों को दोहा शैली में लिपिबद्ध करते थे।' अब बस पूछना यही है, यह खुद किन-किन अनपढ़ों की बातों को लिपिबद्ध कर रहा है? इस के कुछ मार्गदर्शकों के नाम तो सामने आ ही चुके हैं। जिन पर काम किया जा रहा है। असल में,
इसे गलतफहमी हो गई है कि 'उटपटांग की बकवास करके' हमारे समक्ष चुनौती खड़ी करेगा! इसे पता होना चाहिए कि नवबौद्धों-अंबेडकरवादियों समेत ब्राह्मण, बौद्ध और जैनों की जुबान आजीवक बंद कर चुके हैं। समझदारी दिखाते हुए क्षत्रिय आलोचक नामवर सिंह ने चुप्पी साध ली थी। उन के कुछ शिष्यों को नींद में बड़बड़ाने की बीमारी लगी हुई है। अब दलितों में इस के जैसे 'मुनाफिक' आईने के सामने खड़े होकर गाली देने का अभ्यास कर रहे हैं।
बताइए, इस को इस बात का ऐतराज है कि हम सदगुरु रैदास और सदगुरु कबीर साहेब को आजीवक कह रहे हैं। इसे इतनी भी समझ नहीं है कि दलितों की परंपरा क्या है, और अपनी परंपरा में कोई किस तरह से बढ़ता है? दलितों की महान परंपरा आजीवक धर्म के रूप में मेच्योर होती है। इस आजीवक धर्म परंपरा में वर्ण व्यवस्था, संन्यास और पुनर्जन्म की धज्जियां उड़ाई गई हैं। लौकिक जीवन में इस में विवाह को एक सामाजिक समझौता माना गया है। जिस में तलाक की अनुमति है। अपनी इस दलित परंपरा में रैदास, कबीर और अंबेडकर तीनों आजीवक ठहरते हैं। यह अलग बात है कि इन में डॉ. अंबेडकर अपने परंपरा को छोड़कर विदेशी परंपरा के धर्मनायक बुद्ध की शरण में जा गिरते हैं। इधर, इस शताब्दी के प्रारंभ में महान चिंतक डॉ. धर्मवीर अपनी आजीवक परंपरा को खोज निकालते हैं। वे सिद्ध कर देते हैं कि रैदास और कबीर आजीवक हैं। जबकि डॉ. अम्बेडकर जड़ों से कटे हैं। इस सच के सामने आने से नवबौद्ध के रूप में धर्मांतरित दलित बौखला जाते हैं। प्रकाशन की दुकान चला रहे नवबौद्ध सदगुरु रैदास और कबीर साहेब पर झूठी और प्रक्षिप्त किताबें लिखवाते हैं। सम्यक प्रकाशन तो जोर लगा देता है कि इन महान आजीवक पुरुषों को कैसे बौद्ध सिद्ध किया जाए। इस अक्षम्य अपराध में ये ब्राह्मणों से मिल जाते हैं। इतना ही नहीं ये हमारे इन आजीवक महापुरुषों की भी नहीं सुनते।
यह कह रहा है कि 'कबीर साहब ने कहीं किसी भी जगह गलती से...संत रैदास ने भी मक्खलि गोसाल का या "अजीवक'' का कहीं कोई जिक्र नहीं किया।' अब कोई इस तथाकथित डाक्टर से पूछे कि भीमराव अंबेडकर से पहले किस दलित महापुरुष ने खुद को बौद्ध कहा है? जहां तक सदगुरु रैदास की बात है तो वे कहते हैं:
"इस जग में साधो, बहुत गए झक मार।
......
बहुत से ज्ञानी ज्ञान कथै हैं, आप ही बने करतार।।
नही पता हम कहां जाहिंगे, बोलैं
बिना विचार।।"(५)
ऐसे ही कबीर साहेब कहते हैं :
"वै कर्ता नहिं बुद्ध कहाए, नहीं असुर संहारा।
ग्यान हीन कर्ता के भरमे, माये जग भरमाया।।"(६)
इस पी-एच.डी.धारी को इतनी भी समझ नहीं है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन किया था अर्थात वे अपने मूल धर्म को छोड़ कर किसी दूसरे धर्म में गए हैं। जैसे आज भी कोई दलित ईसाई और मुसलमान धर्म परिवर्तन कर लेता है, ऐसे ही डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्मांतरण किया है। धर्मांतरण का अर्थ धर्म परिवर्तन ही होता है। दूसरे धर्मों में गए दलित वहां आज भी चौराहे पर खड़े मिलते हैं। उन की पहचान वहां आज भी दलित के रूप में ही की जाती है। इधर, हम सिद्ध कर रहे हैं कि अपनी महान परंपरा में हम आजीवक हैं। आजीवक हमारा मूल धर्म है जो हमारे खून और सांसों में बसा हुआ है। किसी माई के लाल में इसे गलत सिद्ध करने की कुव्वत नहीं है। अपनी महान आजीवक परंपरा में डा. धर्मवीर ने आत्मबलिदान किया है।
प्रसंगवश, यहां बताया जा सकता है कि धर्म परिवर्तन की बात पर डॉ. अंबेडकर ने कहा था, 'दुर्भाग्य से वे एक हिंदू अछूत के रूप में पैदा हुए थे। इसे रोकना उनके सामर्थ्य में नहीं था...। उन्होंने घोषणा की कि मैं... एक हिंदू के रूप में नहीं मरुंगा।' (७) उन की इस बात पर 'एक सिंधी हिंदू ने डॉ. अंबेडकर को अपने खून से पत्र लिखा एवं उन्हें हिंदू धर्म छोड़ने पर जान से मारने की धमकी दी।'(८) यहां देखा जा सकता है कि डॉ. अंबेडकर खुद को अछूत ही कह रहे हैं ना कि बौद्ध। यह अलग बात है कि वे खुद को हिन्दू बता रहे हैं, जबकि कबीर साहेब की 'ना हिन्दू ना मुसलमान' हुंकार जग प्रसिद्ध है। और, यह पैदा होना ही 'नियति' है, जिसे डॉ. अंबेडकर समझ नहीं पाए। जहां तक सिंधी हिंदू द्वारा जान से मारने की धमकी देने की बात है तो, अगर डॉ. अंबेडकर कहते कि वह अछूत के रूप में पैदा हुए हैं लेकिन मरेंगे वे अपनी परंपरा के धर्म में। तब कोई सिंधी हिंदू उन्हें ऐसा पत्र लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता था।
धर्म चिंतन परंपरा में यह बात बताने लायक है कि किसी भी धर्म परंपरा का साहित्य उस के लोगों द्वारा लिखा जाता है ना कि किसी अन्य परंपरा की उस में घुसपैठ कराई जाती है। यही वजह है कि दलित अर्थात आजीवक परंपरा के साहित्य में द्विज घुसपैठ करने की तिकड़म भिड़ाते रहे, जिस पर डॉ. धर्मवीर सख्ती से रोक लगा कर गए हैं। अब यह सतरुद्र बताए कि बौद्ध धर्म और परंपरा का साहित्य किस दलित ने लिखा है? और क्या इसे चमार रैदास और जुलाहे कबीर के साहित्य की समझ नहीं है?
आखिर में, यह जान लें , जिन्हें यह साक्षर कह रहा है उन के सामने 'दुनिया में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और डिग्री होने की ढोल पीटे जाने वाले' व्यक्ति भी अनपढ़ ही सिद्ध हो रहे हैं। कबीर साहेब ने इस जैसों के लिए कहा है- ''कूकर सम भूंकत फिरै, सुनी सुनाई बात।।"(९) मैं इस की अगली पोस्ट का इंतजार कर रहा हूं जिस में इस ने दावा किया है कि यह डॉ. धर्मवीर पर कुछ लिखेगा।
*****
संदर्भ -
१. भगवान बुद्ध और उनका धम्म, बोधिसत्व बाबा साहेब डॉ. बी आर. आंबेडकर, सम्यक प्रकाशन 32/3 पश्चिम पुरी नई दिल्ली 110063, 22 वां संस्करण : मार्च 2014, पृष्ठ -379-81)
२, ३, ४, ५, ६, ९
महान आजीवक कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली, 110002, प्रथम संस्करण : 2017, पृष्ठ - 343, 343, 525, 509, 407, 354
७, ८
डॉ. आंबेडकर : आत्मकथा एवं जनसंवाद, संपादक : डॉ. नरेंद्र जाधव, प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली 110002, प्रथम संस्करण : 2017, पृष्ठ -113, 114
0 टिप्पणियाँ