डा. संतोष कुमार |
डा. संतोष कुमार // दुनिया में दासों और गुलामों ने अंतहीन पीड़ा को सहा है। सभ्यता निर्माण में उनकी मनुष्यता को कुचला गया है। भारत में उन्हें दलित और आदिवासी के नाम से भी जाना जाता है। मार्क्सवाद की भाषा में, वे सर्वहारा हैं। सामंतवाद और जमीनदारी प्रथा के वे बधुंआ मजदूर हैं। लड़ाई उनकी सदियों पहले से विदेशी आक्रांताओ से रही लेकिन उन्होंने मनुष्यता को कभी मरने नहीं दिया। सिन्धु घाटी सभ्यता के पहरेदार रहे, सिकंदर की सेना के सामने राजा घनानंद के रूप में पहाड़ रहे, भारत की धरती की सुरक्षा में उन्होंने अपने प्राण वार दिये हैं! पर वे भी आज अस्पृश्य, अछूत और दलित हैं। हाय! और वेदना, हत्या और बलात्कार, सामूहिक जनसंहार और सामूहिक बलात्कार उन्ही के हिस्से में वर्चस्वादी शक्तियों के द्वारा हुआ है। प्राचीन धार्मिक इतिहास में बुद्ध से पहले महावीर के समकालीन चमर-कुम्हार मक्खली गोसाल ने आजीवक धर्म की स्थापना की थी और स्त्री स्वतंत्रता और समानता का पुनर्पाठ किया था। लेकिन संगठित धर्म और संगठित आक्रांताओ के द्वारा अपने कौम की हत्या पर वह रो उठे। एक दार्शनिक की पीड़ा और दर्द सद्गुरु रैदास कबीर के रूप में मध्यकाल में देखने को मिलता। उनके पदों में दलित जीवन के रागात्मक और संवेदनात्मक तत्वों का समावेश मिलता है।
रैदास,
पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन।
रैदास दास पराधीन को, सब ही समझै हीन।। (503)
कबीर,
कबीर इस संसार को, समझाऊं कै बार?
पूंछ पकड़े भेड़ की, उतरा चाहे पार।। (351)
उक्त दोनों पदों में मानव त्रासदी की पीड़ा और दर्द की झलक मिलती है। दोनों जाति भाईयों ने अपने कौम की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का दर्शन गढ़ा था। समकालीन हिन्दू मुस्लिम वर्चस्व को चुनौती पेश कर के मनुष्य के इंसानी भाव का दिग्दर्शन पेश किया था। जहां समानता और भाईचारा विद्यमान था। आधुनिक भारत में स्वामी अछूतानंद हरिहर और बाबू मंगूराम मुग्गोवालिया के संयुक्त जोड़ी ने दलितों का नेतृत्व किया और हिन्दू धर्म के फोल्डर से खुद को स्वतंत्र रखते हुए द्विजों के जाल को बेनकाब किया। गांधी के नेतृत्व में साफ्ट हिन्दुत्व और सावरकर के नेतृत्व में कट्टर हिन्दुत्व के बरक्स 'आदिहिंदू' पहचान के साथ अखिल भारतीय आंदोलन का सूत्रपात किया।
स्वामी अछूतानंद हरिहर,
आदिवंश का डंका बजाते ते चलो।
कौम को नींद से जगाते चलो।।
हम जमीं हिन्द के आदि सन्तान हैं,
और आजाद हैं, खूब संज्ञान हैं,...
ख्वाबे गफलत का पर्दा हटाते चलो।
आदि हिन्दू का डंका बजाते चलो।।
डा. अम्बेडकर से भी पहले से स्वामी अछूतानंद हरिहर का 'आदिहिंदू' का डंका अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य हासिल कर चुका था। दिल्ली में प्रिंस आफ वेल्स के स्वागत में स्वामी जी 17 सूत्री मांग रख कर दलितों के हकों को बुलंद किया था। लेकिन आजादी के बाद गांधीजी और डा. अम्बेडकर के राजनीतिक निगोशिएसन ने 'आरक्षण' को जन्म दिया। जिससे न को केवल दलितों की शक्ति क्षीण हुई बल्कि उनकी राजनीतिक जड़े भी डायल्यूट हो गईं। और 1956 में डा. अम्बेडकर के बौद्ध धर्मांतरण ने दलितों की सांस्कृतिक जमीन में मंट्ठा डालने का काम किया।
हिन्दू त्यौहारों को नव बौद्ध हिन्दू कल्चराईजेशन के तहत बुद्ध के नाम से कर रहे हैं, अपना रहे हैं जबकि उन्हें नहीं पता कि ब्राह्मण हिन्दुत्व के चेहरे के साथ अपने कल्चर वैल्यूज को स्वतंत्र अस्मिताओं के ऊपर थोप रहा है और पूंजीवादी गठजोड़ के तीज त्यौहारों के द्वारा इनका आर्थिक शोषण कर रहा है। इस काम में उसने मीडिया, सिनेमा और ग्लैमरस व्यक्तियों को हायर किया है। दीपावली, होली, दशहरा नवरात्र गणेश पूजा, छट्ठ और करवाचौथ जैसे त्यौहारों में से कुछ का तो धर्म से नाता है लेकिन सबने अर्थ की सत्ता स्वीकार कर के बाजार का प्रसार किया है। भारत की आर्थिक स्ट्रक्चर एक वर्ग के पास है। इससे न केवल सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है बल्कि राजनीति और लोकतंत्र भी प्रभावित होता है। साहब कांशीराम के द्वारा शुरू किए गए सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन आज अंतिम सांस गीन रहे हैं। इस का मुख्य कारण नेतृत्व की अयोग्यता और वर्चस्वादी सत्ताओं का पोलराईजेशन भी है। एक ओर जहां धर्म और कल्चर को राजनीति सत्ता के गलियारों में गठजोड़ हो रहा है। वहीं दलितों और आदिवासियों की राजनीति पार्टियां हताश और वेंटिलेटर पर पहुंच रही हैं। पिछड़ों की राजनीति मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुत्व को भी सहला रही है। और साथ ही भविष्य के सांप्रदायिक तनाव का बीज भी बो रही है।
दलितों के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक शोषण की जमीन हिन्दुओं की मानसिकता में विलयन की भांति विद्यमान है। पूर्वांचल के राज्यों में आदिवासियों के कत्लेआम की कहानी दुनिया से छिपी नहीं है। झारखंड और बिहार के राज्यों में नक्शलवाद के नाम पर निर्दोष आदिवासियों को सैनिक द्वारा हत्या उनके अभागे पन की बेबसी पर रो रहा है।
तो साथियों, बेहतर होगा कि हम अपना तौर तरीका बदल लें। जिस भयानक धर्मांतरण के अंधेरे में हम डूब रहे हैं, उसे हम अब हटा डालें, और उससे बाहर निकल कर स्वतंत्रत हो जाएं। जो नया सवेरा हमारे दरवाजे पर पहले से खड़ा है वह हमें मजबूत, विवेकवान और संकल्पबद्ध करेगा। आजीवक दर्शन ही हमे नया रास्ता दिखाएगा। हम अपने फालतू के सपनों को छोड़ दें और दूसरों के द्वारा थोपी गई पुरानी मान्यताओं को खारिज कर दें। हम निरर्थक स्तुतिगानों और घृणित हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर समय जाया न करें। इस ब्राह्मण धर्म और उसके शाखाओं को छोड़ दें जहां लोग बुद्ध और महावीर का नाम लेकर अहिंसा और शांति की बातें करते थकते नहीं लेकिन जहां भी दलित, आदिवासी मिलता है, हर जगह उसकी हत्याएं करते हैं-अपनी गली के नुक्कड़ से लेकर धर्म के दुनिया के हर कोने में। सदियों से तथाकथित आध्यात्मिक अनुभव के नाम पर पूरी मानवता का गला घोंटते रहे हैं। जरा उन्हें गौर से देखिए, राजनितिक वर्चस्व से लेकर धार्मिक संगठन के बीच झूल रहे हैं, साध रहे हैं, और सांस्कृतिक गुलाम बना रहे हैं।
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