संतोष कुमार// सपा और डा. विरेन्द्र यादव की सोच एक जैसी है। इनमें 'स्वतंत्र दलित चिन्तन' की समझ कभी विकसित नहीं हो सकती। ये केवल चमारों के राजनीतिक और साहित्य नेतृत्व को हड़पना चाहते हैं। इन्हें डा. धर्मवीर याद नहीं आ सकते, याद तो केवल कायस्थ प्रेमचन्द ही आएंगे! कारण यह है, गांधीवाद के साथ प्रेमचन्द अपने साहित्यिक आंदोलन के द्वारा चमारों के साहित्यिक, सामाजिक और राजनीति आंदोलन का विरोध कर रहे थे। उसी की चरम परिणति 'रंगभूमि', 'गोदान' और 'कफन' है। डा. विरेन्द्र यादव अपने फेसबुक पोस्ट पर गोदान की चंद लाइनों के द्वारा प्रेमचंद को याद कर रहे हैं -
"फिर याद आए प्रेमचंद।
"हमारी इज्ज़त लेते हो तो ,अपना धरम हमें दो"
"झगडा कुछ नही है ठाकुर,हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगें, या उनका और अपना रकत एक कर देंगें . सिलिया कन्या जात है ,किसी--न-किसी के घर जायेगी ही .इस पर हमें कुछ नहीं कहना है; मगर उसे जो कोई भी रखे हमारा होकर रहे .तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते ,मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं. हमें ब्राह्मण बना दो ,हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है .जब यह समरथ नही है ,तो फिर तुम भी चमार बनो .हमारे साथ खाओ-पियो ,हमारे साथ उठो -बैठो . हमारी इज्ज़त लेते हो, तो अपना धरम हमें दो."---हरखू चर्मकार की इस ललकार को प्रेमचंद ने आज से लगभग नौ दशक पूर्व १९३६ में 'गोदान' में दर्ज किया था."
लेकिन प्रेमचंद के साथ मुझे स्वामी अछूता नंद हरिहर याद आते हैं, जो उम्र में प्रेमचंद से एक वर्ष बड़े थे। दलित साहित्य के वास्तविक प्रस्तोता और चिन्तक थे।
जाना जाय दलित साहित्यकार होने के नाते उनकी राजनीतिक और वैचारिक चेतना क्या थी?
1927 में कानपुर में 'आदि हिन्दू सभा' के मंच से अपने लोगों के लिए पूर्ण स्वराज की मांग करते हुए कहते हैं कि - "भारत के हिन्दू-मुसलमानों के साथ - साथ अछूतों को भी आजादी चाहिए, आजादी के ही हकदार अछूत हैं, जिनके श्रम और शक्ति पर देश का उत्पादन तथा उत्थान निर्भर है, जो धरती का सीधा चीर कर अन्न उगाते हैं। दुख की बात है कि वही नंगा, भूखा और शोषित है। पशुओं से भी बदतर जिन्दगी जीने को मजबूर है। मुट्ठी भर सवर्ण हिन्दुओं ने उन्हें उनके श्रम के बदले गुलामी की बेड़ियाँ पहना रखी है। असली आजादी के हकदार यही अछूत हैं।"1
लेकिन 1936 में प्रेमचंद 'गोदान' के माध्यम से उत्तर भारत के चमारों की भद पीट रहे हैं। जिसे डा. वीरेंद्र यादव हरखू की ललकार कह रहे हैं! यदि गोदान में हरखू चमार की जगह हरखू यादव होता और सिलिया अहिरीन होती तो वे इस ललकार के साथ प्रेमचंद को याद कर पाते? जाहिर है जबान हलक में अटक जाती और प्रेमचंद की ऐसी-तैसी करने बैठ जाते। तब मुझे पोस्ट-अम्बेडकर चिन्तन के महान लेखक डा. धर्मवीर याद आते हैं। एक शोधार्थी होने के नाते मेरे अध्ययन के अनुभव यही कहते हैं कि 'कबीर' और 'प्रेमचंद' पर ऐतिहासिक नजरिए जिस आलोचनात्मक स्थापना को डा. धर्मवीर ने स्थापित किया है, वह ज्ञात सैकड़ों वर्षों में किसी ने नहीं किया था। दलितों को प्रेमचंद के अध्ययन से पहले डा. धर्मवीर द्वारा लिखी पुस्तक 'प्रेमचन्द :सामंत का मुंशी' और 'प्रेमचन्द की नीली आँखें' अवश्य पढ़नी चाहिए। उसके उपरांत प्रेमचन्द की सारी प्रगतिशीलता के आवरण का अनावरण हो जाएगा। प्रेमचन्द ने सिलिया, मुलिया और बुधिया नाम की चमारी पात्रों के द्वारा समूची चमार जाति के स्त्री का अपमान किया है। क्योंकि प्रेमचंद के मामा स्वयं एक चमारी को रखे हुए थे। और प्रेमचन्द अपने निजी जीवन में भी एक रखैल रखे हुए थे। जिसे वे अंतिम समय में शिवरानी के समक्ष कबूल भी किये थे।
अब गोदान के उस उद्धरण पर आया जाए जिसे डा. वीरेंद्र यादव ने ललकार के साथ प्रेमचंद को याद किया है। डा. धर्मवीर इसी तरह के बोल को शांत करने के लिए ही 2010 में 'प्रेमचन्द की नीली आँखें' में जवाब लिख दिया था। प्रेमचंद ने "सिलिया का चरित्र खड़ा कर के चमारों की जाति खूब उछाली है। 'गोदान' की सिलिया बहकती फिरती है। एक बार सिलिया का मुंह सोना के पति मथुरा के मुँह के पास आ गया था, और दोनों की साँस और आवाज और देह में कम्पन हो रहा था। सहसा सोना को भनक पड़ गई। सिल्लो पीछे हट गई। इस पर सोना ने सिलिया को जो सुनाई है, उससे ज्यादा चमार कौम की बेइज्जती क्या होगी? सोना ने कहा है - 'अब तो तुम मेरी आँखों में हरजाई हो, निरी बेसवा अगर यही करना था, मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही है ; क्यों किसी को लेकर बैठ नहीं जाती; क्यों अपने घर नहीं चली गई? यही तो तेरे घर वाले चाहते थे। तू उपले और घास लेकर बाजार जाती, वहाँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपए की ताड़ी पीता, फिर क्यों उस ब्राह्मन का अपमान कराया, क्यों उसके आबरू में बट्टा लगाया? क्यों सतवंती बनी बैठी हो? जब अकेले नहीं रहा जाता, तो किसी से सगाई क्यों नहीं कर लेती; क्यों नदी - तालाब में डूब नहीं मरती? क्यों दूसरों के जीवन में विष घोलती है? आज मैं तुझसे कह देती हूँ कि अगर इसी तरह की बात फिर हुई और मुझे पता लगा, तो हम तीनों में एक भी जीते न रहेंगे। बस, अब मुँह में कालिख लगाकर जाओ। आज से मेरे तुम्हारे बीच कोई नाता नहीं रहा।' ये सब चमार जाति के फजीते हुए हैं जो प्रेमचंद ने गोदान में सिलिया का चरित्र खडा कर के किए हैं।
चमारों की तरफ से सिलिया एक बदतमीजी लड़की है। उस ने मातादीन से सम्बन्ध क्यों बनाए? उस का मातादीन से विवाह नहीं हुआ था, उस ने अपनी किस अक्ल के आधार पर अपने उदर में मातादीन का गर्भ धारण किया? जब उसे खूब पता था कि मातादीन से उस का विवाह नहीं होने वाला है तो वह उस गलत डगर पर क्यों चली? क्या उसे समाज की वास्तविकताओं का तनिक भी भान नहीं है? क्या वह उस गांव में नहीं रह रही थी? क्या उसे जात-बिरादरियों के बारे में पता नहीं था? क्या वह हिन्दुस्तान के उस गांव में विदेश से आई थी? जिस लड़की को इतना भी नहीं पता कि चमारों से ब्राह्मण घृणा करते हैं, मातादीन ब्राह्मण से सैक्स-सम्बन्ध बना कर वह लड़की अपनी बिरादरी की इज्जत ही उतार रही थी। अपने माँ-बाप की इज्जत उन लड़कियों ने सँभाली है जो उनकी मदद से अपनी शादी करती हैं। चमार सिलिया से खुश कैसे हो जाएंगे? उस की मां उसे मारने पर उतारू थी। सीधा सवाल है, सिलिया चमारों में इज्जत कैसे पाएगी? उसने चमारों की इज्जत उछाली और उछलवाई है। प्रेमचंद ने इस पात्रा के द्वारा चमारों के घर का फजीता कर के रख दिया है।"2 मातादीन ब्राह्मण और सिलिया के प्रपंच से तंग आकर चमारों ने सिलिया से विवाह कर ने के लिए कहा तो वह अपने ब्राह्मणत्व के नष्ट होने की दुहाई देकर इंकार कर दिया। इसपर नाराज चमारों ने मातादीन ब्राह्मण के मुँह में हड्डी ढूंस दिया। यहां लडाई इज्जत की हो रही है लेकिन सिलिया ब्राह्मण की पवित्रता के लिए अपनी इज्जत दाव पर लगाई हुई है। वह अपने कुनबे के विपरीत ब्राह्मण मातादीन के लिए अपने लोगों से लड़ बैठती है। यह तो कथा पात्रा है। हकीकत में अनिता भारती ने व्यवहारिक किरदार ऐसे प्रेमचंद के बचाव में डा. धर्मवीर से लड़ बैठी थीं। और डा. धर्मवीर पर जूते चलवाई थीं। इन्हीं की कड़ी में खटीक जाती की डा. प्रियंका सोनकर प्रेमचन्द के बचाव पक्ष में आकर लिखती हैं -
1."निस्संदेह प्रेमचन्द की पूरी सहानुभूति और संवेदना दलित-शोषित-उत्पीडित वर्ग के साथ थी। प्रेमचंद द्वारा दलित साहित्य की भावभूमि तैयार करने के योगदान को कोई नकार नहीं सकता।"
2...प्रेमचंद सवर्ण लेखकों की पंक्ति से निकल कर दलितों के पांत में शामिल हो सकते हैं। उनके कुछ सीमाओं और अंतर्विरोधों के कारण उन्हें दलित विरोधी या 'सामंत का मुंशी' कहने की हिमाकत न करें।
3. प्रेमचंद सामंत के मुंशी नहीं बल्कि दलित मुक्ती आंदोलन के सक्रिय सिपाही हैं। वे दलित नहीं हैं लेकिन उन का लेखन दलितों के लिए सच्चे हम सफर का लेखन है।
4. 'प्रेमचंद की नीली आँखें' और उनको 'सामंत का मुंशी' कहना एक सच्चे लेखक के प्रति अन्याय ही
होगा।"3
उपरोक्त कथन में देखा जा सकता है एक दलित स्त्री की सोच क्या है? वे किस तरफ हैं! जाहिर है वह मातादीन और सिलिया की पक्षधर हैं इसलिए प्रेमचन्द के लेखन को 'हम सफर' मान रही हैं। और अपने दलित लेखक को दुश्मन। इनके लिखे से जाहिर होता है कि डा. धर्मवीर द्वारा लिखित दोनों पुस्तकों का अध्ययन इन्होंने नहीं किया है। लेकिन इन्हे क्या प्रेमचंद खटकीन जाति का सिलिया या बुधिया जो नहीं न बनाया है! लेकिन सच तो यह है कि दुख और उत्पीड़न समूची दलित स्त्रियों ने भोगा है। सामंत की कुदृष्टि किन स्त्रियों पर रही है ये लेखिका को जरूर ज्ञात होगा। 'कफ़न' कहानी में प्रेमचंद चमारों के पूरे कुनबे को बुधिया द्वारा बदनाम कर रहे हैं। इसलिए अपनी आलोच्य पुस्तक 'प्रेमचंद :सामंत का मुंशी' में दलितों के गुलामी के बारे में डा. धर्मवीर लिखते हैं -
"संसार में कौमें की-कई तरह से गुलाम बनाई जाती हैं। भारत के दलितों के हिसाब से तीन प्रकार की गुलामियों का जिक्र मिलता है।... यदि बात इन तीन पक्षों तक सीमित रहती तो यह दलितों की पूरी गुलामी नहीं थीं। दलितों को एक चौथे प्रकार की गुलामी अतिरिक्त दी गई है जो इस प्रकार है।
4. बलात्कार और जारकर्म के द्वारा उन की स्त्रियाँ उन से छीनी गईं।
यह सब से बड़ी गुलामी है कि उनकी स्त्रियां उन से छीन ली गई और छीनी गई उन स्त्रियों के माध्यम से अपनी सन्तान उन पर थोप दी गईं। यह मार्क्सवाद से आगे की बात है जिस की वर्ण-व्यवस्था के आधुनिक विश्लेषणों में पहली तीन बुराईयों का जिक्र खूब होता है लेकिन इस की असली और चौथी बुराई के नाम पर विद्वान लोग मुंह ढक कर सो जाते हैं।"4 इसी चौथी समस्या पर सवाल बनता है कि सिलिया यदि गर्भधारण (जो कि करी हुई थी) कर बच्चा जने तो उसका बाप कौन होगा? ब्राह्मण मातादीन तो उसको विवाह करने से रहा? आखिर में सिलिया की हालत क्या होती है, उसको संदर्भों सहित डा. धर्मवीर व्याख्यित करते हैं -"मातादीन सिलिया की झोपड़ी को अपने 'देवी का मंदिर' कहता है। सिलिया कहती भी है - 'मंदिर है तो एक लोटा पानी उड़ेल कर चले जाओगे।' लेकिन हम खूब जानते हैं कि मातादीन के मना करने पर भी सच में क्या होने वाला है। यह चकला और कोठा बनेगा। गाँव वाले और आसपास के लोग बाद में इसे ही माता मैया का मठ कह कर किसी महिने की पूर्णिमा को या अमावस को चढ़ावा चढ़ाने लगेंगे। यही रखैलों की कहानी है और भारत में भरी पड़ी है। साहित्य के पाठ के भीतर कैसे रहा जाए? यह दड़बा तोड़ा ही जाना है क्योंकि झूठा है, विशेषकर, प्रेमचंद की नक्कासी का यह चौखटा छोटा, आवतरित और पूर्णतया विक्षेपित है।"5 सच यही है कि जो गुलाम है वही अपनी लड़ाई लड़ सकता है, चाहे वह साहित्यिक हो या सामाजिक या राजनीतिक। गैर जब भी आप की तरफ होगा शौकिया ही होगा! 20-30 के दशक में उत्तर भारत में चमारों ने सामाजिक और राजनीतिक चेतना के साथ अपनी आवाज बुलंद करी थी। जिस की जद में प्रेमचंद समेत गांधी तक थे। इसे ही रलाने के लिए प्रेमचंद द्वारा साहित्य के माध्यम से चमारों के नाम से रंगभूमि, गोदान और कफन में कुपात्र गढ़े गए! बताया जाए प्रेमचन्द जिस काल में थे। उस समय दलितों का नेतृत्व स्वामी अछूता नंद हरिहर और डा. अम्बेडकर के हाथों में था। और प्रेमचंद अंधे चमार को नायक बना रहे हैं? गजब की कुदृष्टि पाई थी, इस कथा सम्राट ने! इतिहास के अंधो से संवाद करना बेवकूफी होती है। क्योंकि वह यथार्थ से अलग पुराण या गपोड़ कथता है। इसलिए प्रेमचंद दलित जन-जीवन से दूर खड़े बाह्य लेखक हैं। जिनका दलित जीवन के सरोकार और संवेदना से कोई मतलब नहीं है।
डा. वीरेंद्र यादव हरखू और सिलिया को अपनी जाति का यादव मान कर प्रेमचंद की जीतनी गुणगान करनी हो करें लेकिन उनके उक्त उद्धरण से चमारों की बदनामी होती है। ठीक ही डा. धर्मवीर लिखते हैं - "प्रेमचंद द्वारा सृजित चमारों की इस लड़की ने चमारों की पूरी बेइज्जती की है और करवाई है, वह भी एक धोखेबाज ब्राह्मण के लिए। यह संभव भी नहीं था कि कोई ब्राह्मण किसी चमारी से शादी करेगा। इसलिए, कोई चमार नहीं चाहेगा कि उन के घर में सिलिया जैसी लड़की दुबारा पैदा हो। उस ने कौम की कोई इज्जत नहीं बढ़ाई, सारा काम नामोशी का किया है। वह प्रेमचंद के 'गोदान' की हीरोइन हो, लेकिन किसी दलित लेखक या दलित लेखिका की कलम से उसकी अपनी रचना में ऐसी पात्रा का सृजन नहीं हो सकता।"6
संदर्भ-1.स्वामी अछूता नंद हरिहर संचयिता, संपादक कंवल भारती, स्वराज प्रकाशन 7/14, गुप्ता लेन, अंसारी रोड दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002, पृष्ठ 35
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