यातना के ईश्वर

 

संतोष कुमार// 'ई-तेजपत्रिका' में 11 मई, 2020 को 'हे! ईश्वर तुम बुद्ध क्यों नहीं हुए' शीर्षक से सुमित चौधरी एक कविता लिखे हैं, यही कविता अपनी फेसबुक वाल पर 13, मई को लगाए हैं। लेखक शायद दलित ही हैं परन्तु अपने इतिहास, धर्म, दर्शन से कटे हुए। हां, जे. एन. यू में अध्ययन करने के कारण हो सकता है मार्क्सवाद की नहर में गोते लगाते हों। 


परन्तु खुद मार्क्स यहूदी धर्म के थे, वे और उनके परिवार के लोग जरूर 'यहोवा' के गीत गाए होंगे।


      सुमित ब्राह्मण धर्म दर्शन के अभिशप्त चिंतन की गिरफ्त में हैं। इसीलिए ईश्वर को अपने यहां पैदा न होने से दुःखित हैं,

             "हे! ईश्वर

          तुम क्यों नहीं जन्मते

          किसी किसान के यहाँ

          क्यों नहीं पैदा होते किसी मजदूरनी की कोख से

          क्यों नहीं होते दक्खिन टोले का चमकटिया?"


पता होना चाहिए सुमित को कि-जो दक्खिन दिशा का चमकटिया (चमार) है। वह अपने धर्म-दर्शन और इतिहास के साथ केंद्र में है। उस का ईश्वर पेट से पैदा नहीं होता, सृष्टि का नियंता है। कबीर, रैदास उसी के गीत गाए हैं, सुख और दुख की घड़ी में। द्विजों के ईश्वर पेट से पैदा होते हैं, वे ही प्रभु हैं, वे ही बुद्ध भी।

संकट यह है कि चमार की उप जातियां धोबी, पासी, भंगी खुद को चमारों से अलग समझती हैं। वे अपने भाई की बात नहीं सुनते, अपने धर्म-दर्शन, इतिहास को नहीं गहते। पराई परंपरा और धर्म, विचार धारा की शरणागत हो जाते हैं। वे अपनी गुलामी को अपनी योग्यता समझते हैं। फिर कौम की आजादी कैसे संभव हो? जब तक किसी लेखक को अपनी कौम का इतिहास बोध नहीं होता वह ऊलजलूल भ्रामक बातें लिखता रहता है। उसमें गंभीरता, स्थिरता का अभाव रहता है।


  यह अभाव ही है कि सुमित कहते हैं -


        "हे! ईश्वर

        × × × × × ×

  तुमने क्यों चुनी विनाशी कुल क्षत्रिय"


द्विजों के राम और बुद्ध दोनों क्षत्रिय राजकुमार कुमार थे। एक को ब्राह्मण से नहीं बनी उसने अपनी नई पहचान के साथ धर्म खड़ा किया। केवल इकलौते क्षत्रिय बुद्ध नहीं थे जो धर्म खड़ा किये- अनीश्वरवादी धर्म के रूप में जैन धर्म भी था, जिसका तीर्थंकर क्षत्रिय ही था। इन्होंने अपने हिस्से की आधा-अधूरी लड़ाई ब्राह्मण से लड़ी। दलित उन्हें अपना पुरखा क्यों मानें? दलितों के पुरखा मक्खली गोसाल थे जिन्होंने ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों से लोहा लिया। और 'नियति' का दर्शन दिया। जन्म और मृत्यु पर इंसानों का वश नहीं चलता है। किस मुगालते में सुमित हैं जो ईश्वर से शिकायतें कर रहे हैं - यहां-वहां क्यों जन्म लिए ईश्वर?

अगली लाइन में खुद को ही काट रहे हैं -


             "हे! ईश्वर

          तुम बुद्ध क्यों नहीं हुए?"


ईश्वर कोई इंसान थोड़ी है! हां लेकिन इंसानों ने खुद को भगवान जरूर घोषित कर लिया है। वे इनके 'भगवान बुद्ध' ही तो हैं जो क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। जिन क्षत्रियों को कोस रहे हैं, उन्हीं मे से एक क्षत्रिय राजकुमार की शरणागत क्यों हुए जा रहे हैं? इस 'चौधरी' टाइटल का क्या मतलब है? चौधरियों की चाबुक किस दलित स्त्री पुरुष की देह पर नहीं पड़ी है?


     सुमित खुद इसकी शिनाख्त अपनी कविता 'नानी की पीठ' में किये हैं। 11 अगस्त, 2019 को अपनी फेसबुक वाल पर उक्त कविता लिखें हैं-


            "बहुत चौड़ी होती है

             महिलाओं की पीठ

   बिल्कुल जमींदार की आंगन की तरह

           जिसे हर वक्त रौंदा जाता है"

अपनी एक लाइन में सांमत और उसकी व्यवस्था की पोल खोल दिये हैं, सुमित। लेकिन इन्हें भारतीय समाज की संरचना में व्याप्त जमींदार, सांमत, चौधरी और क्षत्रिय की पहचान नही है। यह वही लोग हैं जो दलित स्त्रियों की पीठ के साथ अन्य अंगों पर जोर आजमाते हैं। क्या आए दिन अखबारों की खबरें चीख-चीख कर इसका साक्ष्य नहीं देती हैं?

     इन क्षत्रिय, ठाकुर, जमीदार, सांमत, चौधरियों की क्रूर अत्याचार को लेखक अपनी नानी की पीठ पर देखे हैं-

         "मैंने बचपन में

       अपने नानी के पीठ को

  नीले रंगों में सना हुआ देखा था

 जैसे बंजर जमीन का जुता हुआ टुकड़ा"


अब कहने को क्या रह जाता है वे सारे जुल्म 'नानी की पीठ' पर नीले रंगों में उभर आए हैं। ठाकुर का बच्चा ऐसे थोड़े ही बुधिया के पेट में पला था। शोषण की जड़ें अंतहीन गहराई से जुड़ी हैं, जिसे ब्राह्मणों के 'कामसूत्र' और 'मनुस्मृति' खाद पानी देते हैं।

       जब तक दलित अपने इतिहास बोध के साथ स्वतंत्र आजीवक पहचान नहीं ले लेता। पराई विचार धारा के चिन्तन में जमीदार पीठ पर चाबुक देता ही रहेगा। अच्छा होगा सुमित अपने घर को समृद्ध करें, करने को बहुत कुछ है। पीटे और लुटे हुए दर्शन को कंधा देने से गर्दन ही छिलेगा, हासिल कुछ नहीं होगा।

दिनांक 17 मई, 2020 

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