संतोष कुमार // साहित्य और समाज का रिश्ता गहरा और पुराना है। समय और परिस्थितियों के अनुसार समाज के साथ साहित्य भी यात्रा करता करता है। साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों में कथा (कहानी) एक महत्वपूर्ण विधा है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इस का स्वरूप उस समाज के अनुसार रहा है।
भारतीय साहित्य में भी वह विभिन्नता हमें देखने को मिलती है। हिन्दू यानी ब्राह्मण समाज के साहित्य में यह पुराण विधा थी, जो आज के अधुनातन स्वरूप में उपन्यास और कहानी के रूप में किवदंती और प्रक्षिप्त की राह पर मुंतजिर है। लेकिन इसी भारतीय परिवेश के आदि निवासियों की साहित्य विधा यथार्थ और सत्यनिष्ठा के साथ दलित यानी आजीवक साहित्य के रूप में ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार समाज और साहित्य का अनुगमन कर रही है। इस समानांतर साहित्य संघर्ष में दूसरे कौम की साहित्य विधा का विचलन भी आजीवक साहित्य के मार्ग में अवरोधक बनते हैं और उनकी मौलिक रचनात्मक शैली में विचलन पैदा करते हैं। ताकि उनका स्वभाविक विकास रूक जाए। इस के लिए वे दलितों के भीतर से जरखरिद गुलामों का उपयोग करते हैं।
इसी तहकीकात में हमें दलित साहित्य के कुछ कहानियों की तह में जाना है। और देखना है कि - वह दलित कौम की समस्या, समाधान और विकास में कहाँ तक सही हैं और कहां तक उलझी हुई हैं। "गांव के लोग" पत्रिका में कुछ दलित कहानियों को हम अपने अध्ययन के केन्द्र में रखते हुए कहानियों के वास्तविक तत्वों का समाज और इतिहास की कसौटी पर परखेगें। "जनवरी - फरवरी, 2021" का 'गांव के लोग (दलित विशेषांक)' का अतिथि संपादन डा. एन. सिंह और अरुण कुमार ने किया है। जिस में तेरह कहानियां संकलित हैं।
क. 'पूत भतारहिं बैठी खाए'
उक्त पत्रिका में श्यौराज सिंह 'बेचैन' की कहानी 'किस्सा कलावती' का छपी है। कहानी इस मायने में महत्वपूर्ण है विधा यह कि - संस्मरणात्मक शैली में है। इस कहानी में आरक्षण और उस की प्राप्ति के लिए संघर्ष तथा दलित जीवन की गरीबी, दयनीयता को प्रदर्शित की गई है। इसी बहाने लेखन ने 'सवर्ण आरक्षण' पर भी ध्यान दिया है। कहानी शुरू होती चन्द्रावती के बेटे श्याम रतन से जो अपने खानदान में पहला ग्रेजुएट है। यह पात्र कलावती से सीधे जुड़ा है क्योंकि यह कलावती की बेटी चन्द्रावती का बेटा है। इस तरह से श्याम रतन कलावती का धेवता(पोता/नाती) है। इस कहानी के सारे पात्रों का जो संवाद है वह लेखक के जीवन दशा और विचारों से संबंध रखते हैं, जैसे। श्याम रतन जब विश्वविद्यालय में क्लर्क की नौकरी का साक्षात्कार दे रहा होता है उसी दरम्यान उससे जाति प्रमाण पत्र की मांग जी जात, । जो उसके पास अनुपलब्ध होती है।
ऐसे में, उससे पूछा जाता है - "क्या तुम सवर्ण नहीं हो?"196
तो वह जवाब देता है -" जी, यह सवर्ण-अवर्ण क्या होता है? मैं नहीं जानता हमारे यहाँ कोई(किसी) प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होती सिवाय बीपीएल कार्ड के।"196 आगे वह कहता है -" तो क्या कम आया वाला यदि सवर्ण नहीं है तो उसे गरीब नहीं माना जाएगा। साहब हमारे पास गरीबीरेखा से नीचे होने का प्रमाण है।"196 यहां सवाल उभरता है कि - बेचैन जी का यह दलित पात्र किस ग्रह का निवासी है, जिसे अपने बाप दादा की जाति और पहचान का पता नहीं है? दलित होने के नाते उसे जातिय पहचान का अनुसूचित जाति प्रमाण के बिना स्कूल, कालेज में दाखिला कैसे मिला? क्योंकि यह कहानी आजाद भारत के समय की है। आगे जब उसे मना कर दिया जाता है तो कहता है - "साहब मेरा आरक्षण"196 तो यहां जो बात उभर के आती है वह यह है कि - बेचैन जी का दलित पात्र 'आर्थिक आधार' पर आरक्षण चाहता है। यह भाषा किसी दलित की नहीं हो सकती। यहां द्विजों की चाल रही है कि - प्रतिनिधित्व की लोकतांत्रिक प्रणाली को किसी भी माध्यम से रिड्यूस कर दिया जाए। इस काम में मार्क्सवादी द्विजों(उदारवादी) ने ज्यादा जोर दिया और अपने शागिर्द दलित पिछड़ों के दिमाग में इस बात डाला। प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन अपने शुरुआती दिनों में ऐसे लोगों की ही सोहबत में रहे थे। हो सकता है बेचैन जी वह सुप्त विचार यहां श्याम रतन के माध्यम से व्यक्त हो रहा हो!
खैर, एक बात इस कहानी में ओर आई है। वह कहानी कहने वाले के बारे में है। वह कोई और नहीं खुद बेचैन जी ही हैं। लिखते हैं - "बेशक कलावती उसकी मां सूरजमुखी की भांति अब इस दुनिया में नहीं है।... कलावती की जिन्दगी उसकी मां की जिंदगी जैसी कष्टकर रही है। उसने कई बार उनकी बातों को, यादों को और जज्बातों को लिखा है। लेकिन उनकी कहानी मुकम्मल कर कभी छपने (को) नहीं दी।" 196
मानव विकास में सत्ताओं और व्यवस्थाओं का बेहद महत्व रहा है। शुरुआती चरण की 'मातृसत्ता' पिता की पहचान को निगल रही थी। लेकिन पिता की पहचान आ जाने से संतान की मनोदशा में खुशहाली का संचार हुआ है। दलित समाज में 'मातृसत्ता' आज भी कायम है। यही कारण है कि - वह दूसरे कौमों से बार-बार पराजित हो रहा है। इस कहानी के केंद्र में भी 'मातृसत्ता' ही है। तभी तो श्याम रतन को अपने बाप दादा की पहचान नहीं है!
कलावती का विवाह रघुवीर से हुआ था। इन दोनों से दो बेटे और तीन बेटियां पैदा हुई थीं। कलावती की 40 वर्ष की अवस्था में ही रघुवीर की मृत्यु हो गई थी। इस विकट घड़ी में उसके चचिया ससूर काले राम सबल बने थे। घटना बेचैन जी की आत्मकथा से सीधे जुड़ती है क्योंकि इन के पिता के मृत्यु के बाद उन के बब्बा भी इन की मां को इसी तरह आश्वासन दिये थे। लेकिन अपनी कौम में प्रचलित पुनर्विवाह का वरण इनकी मां दो बार की थीं। लेकिन कहानी यहां उलट है। लोग कलावती की दशा को देखकर पुनर्विवाह की सलाह दे रहे हैं तो वह अस्वीकार कर देती है। जब घर में कोई पुरुष न हो तो उस घर की स्त्रियों पर दूषित दृष्टि लोगों की रहती है।
इसीलिए मातृसत्ता के साथ पितृसत्ता की दरकार होती है। क्योंकि वह अपनी मां-बहनों की रक्षा करते हैं।
जब कलावती विधवा पेशन के लिए प्रधान के पास जाती है तो वह कहता है - "अरी, अभी तो तू जवान है। भले तेरे पाँच बच्चे हो गये हैं मगर तेरी देह तो अभी काली घोड़ी सी चमक रही है।"198 यही वह कुदृष्टि है जिस से कोई भी पति रक्षा करता है। एक बात प्रधान ने सही कही है कि - "किसी जरूरतमंद की हाथ पकड़ ले जिंदगी की नैया किनारे लग जाएगी।... वैसे भी गांव की आबो हवा अच्छी नहीं है। एक का हाथ नहीं पकड़ेगी तो अनेक आंखें तेरा रोज इम्तेहान लेंगी।" 198 इसी दरम्यान एक अनहोनी यह घटित होती है कि - "रामभजन लोध के बेटे ने उसकी बेटी पर बुरी नजर डाली है। उसने बिरादरी के चौधरी खड़गी जाटव से कहा- मैं विधवा हूँ। मेरे बच्चे छोटे हैं। मेरे साथ कोई मर्द नहीं है तो क्या ये दबंग लोग मेरे बच्चे को चैन से जीने नहीं देंगे?"198 इस पर खड़गी चौधरी ने इज्जत बचाने की गारंटी दी।
कलावती इसी डर से अपनी दोनों बेटी चन्द्रावती और निहाल देवी का बाल विवाह कर दिया था। कहानीकार लिखते हैं कि - कलावती का वैवाहिक जीवन की शुरुआत सुखी और खुशी के माहौल में हुई थी। स्त्री- शिक्षा की इस कौम में चेतना नहीं थी। इसीलिए लड़कियां क्या, लड़के भी नहीं पढ़ते थे।"198 यहां लेखक की चेतना अबोध बालक सी लगती है। क्योंकि गुलामों का जीवन व्यवस्था और सत्ता सीन लोगों के अधीन रहता है, यह इन्हें पता होना चाहिए। यदि शिक्षा के प्रति इनमें चेतना नहीं थी तो श्याम रतन स्नातक कैसे कर सका? रही बात स्त्री शिक्षा की तो मां-बाप इसलिए डरते थे कि - लडकियों को...गैर जात के लोध, गुर्जरों के लड़के पढ़ने देंगे क्या?"198
इस कहानी में जो खास है, वह यह कि घर परिवार के सारे मर्द मर रहे हैं और और इनकी सारी औरतें जी रही हैं। यह कैसी मातृसत्ता है जो अपने पतियों को नहीं जीने दे रही है?
देखें यह मृत्यु दशा-
"कलावती को वंश चलाने की फिक्र थी, क्योंकि उस के दो देवर डोरी और राजू गरीबी और बेरोजगारी के चलते कुंवारे ही मर गये थे। और पति चालीस वर्ष की अवस्था में विधवा कर के चले गए थे।"196
" चन्द्रावती के पति पच्चीस साल बड़े थे। कलावती की बेटी चन्द्रावती जवान होने से पहले ही विधवा हो गई।"200
"दूसरी बेटी निहालदेई का पति पागल हो गया।"200
"बेटे रमेश की असमय दर्दनाक मौत हुई थी... पच्चीस साल की उम्र में।"200 रमेश काना था और उस की भी शादी हुई उसकी पत्नी चार बच्चों की मां बनी उस के बाद रमेश की मौत हो गई।
कलावती का छोटा बेटा अशोक अम्बेडकर का पुजारी हो गया था।
"अशोक पर कुछ ऐसी मार पड़ी कि वह पानी मांग गया। मार-पीट कर लोग भाग गए और कुछ ही देर में उस के प्राण पखेरू उड़ गए।"201
एक सवाल बनता है कि - यह कैसा परिवार है जहां दुखों का पहाड़ केवल पुरुष पर टूटता है और वे उस के नीचे दब कर मर जाते हैं? और उनकी हमसंगिन महिलाएँ सही सलामत बच जा रही हैं? इस कहानी में मातृसत्ता की बू आती है। जहाँ पुरुषों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। गरीबी बदहाली हर कौम में होती है। जहाँ स्त्री-पुरुष साथ-साथ दुख-सुख के भागी बनते हैं। एक साथ जीते हैं और मर जाते हैं। मगर यहां तो नारी सदा जीवतम् की स्थिति में है। कहानी के असली मर्म को समझने के लिए लेखकी की आत्मकथा 'मेरा बचपन मेरे कंधों' में जाना पड़ेगा। वहां उनकी बहन 'मायावती' की कथा कलावती से मेल खाएगी। मायावती लेखक की बहन हैं। मायावती की सास किसी गैर-मर्द(गांव की जमीदार) से बच्चा जनती है। ऐसे में उसके पति और पति से जन्में संतान की मृत्यु हो जाती है और गैर-मर्द से जन्में संतान को मायावती वरण करती है। यही है दलित के घरों की मातृसत्ता।
कहानी में ही नहीं इस कहानी के समाज में समस्या जटिल है। कहानी का यथार्थ यह कि लेखक उस परिवार से भिज्ञ हैं, जिस की कथा इन्होंने लिखी है। क्योंकि ये लिखते हैं - "एक बार 'दलित का दर्द' शीर्षक से 'अमर उजाला' के संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख छपा। केन्द्र में कलावती की कहानी का सार था। कितनों को झकझोरा। उन्हीं में से आगरा के एक कालेज में अंग्रेजी पढ़ाने वाले जितेंद्र कुमार कलावती के घर पहुंचे गए थे। उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर परिवार की कुछ सहायता की थी।"(201)
ऐसे में, यथार्थ घटना को लेखक कल्पनाशील बना कर पेश किये हैं, जो कि ठीक नहीं है। इन्हें संस्मरण लिखना चाहिए था। और पूरा-पूरा यथार्थ विवरण देना चाहिए था। इसी दृष्टि से कहानी कलात्मक वस्तुस्थिति के अनुसार तो ठीक है परंतु इस में घटनाओं की प्रवाहता का अभाव है। कहानी कार कहना क्या चाहता है, इस कहानी के माध्यम से वह संदेश उलझ कर रह गया है। यह शैली एक दम इन की आत्मकथा 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर' की तरह है। जहाँ गरीबी का रोना व्यक्त हुआ है।
क्रमशः
04 अगस्त, 2021
#संतोष_कुमार
ख. दलित कहानी का गलत बयान
'गांव के लोग' पत्रिका के दलित विशेषांक, 2021 में प्रो. कालीचरण स्नेही जी की
कहानी 'शोधगंगा' छपी है। इस कहानी में विश्वविद्यालय विभागों में रिसर्च के लिए रजिस्ट्रेशन के संघर्ष दलित समाज के शोधार्थियों तथा उन के साथा बरती जा रही जातिभेद का बडी़ ही बेबाकी के साथ वर्णन किया गया है। इस का कारण यह है कि प्रो. कालीचरण स्नेही एक विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने इस समस्या को बड़ी ही नजदीक से देखा है। आज भी दलित स्कालरों के साथ विश्वविद्यालय में न जाने कितनी अमानवीयता बरती जा रही है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमूला और गोरखपुर विश्वविद्यालय में दीपक के साथ हुई घटना से जाना सकता है। देश के सभी विश्वविद्यालयों का हिन्दी विभाग एक तरह से 'हिन्दू मठ' का काम करता है। जहाँ साहित्य के नाम पर पुराण कथा और हिन्दू काव्यशास्त्र की परिपाटी चल रही है। ब्राह्मण इस काम को बड़ी ही चतुराई के साथ सरअंजाम देता है। दाखिल में सही तरीके से रिप्रजेंटेशन(प्रतिनिधित्व) की नियमावली का उपयोग न कर उनका दुरुपयोग होता है। भाई-भतीजावाद और शिष्य परंपरा की परिपाटी उच्च शिक्षा संस्थानों को खोखला कर करती है। जब कभी आरक्षण की वजह से इन की मजबूरी बनती है तो कुछ ऐसे लोगों रख लेते हैं जो इनकी मंशा के अनुरूप कार्य करते हैं।
बहरहाल, कहानीकार शोध पंजीकरण की चरण बद्ध प्रक्रिया और साक्षात्कार के संवाद से कहानी की वास्तविक वस्तुस्थिति से परिचय करवाते हैं। कहानी का मुख्य पात्र रुद्रप्रताप सिंह जेएनयू से पढ़ा हुआ है। इस अभ्यर्थी के सरनेम 'सिंह' टाइटल पर आपत्ति की जाती है और उस का कारण पूछा जाता है। तो वह कहता है कि - "पहली कक्षा में गांव के स्कूल में नाम लिखाने गए, तो वहाँ पर बहादुर सिंह जाटव प्रधानाध्यापक थे, उन्होंने मेरा नाम रुद्रप्रताप सिंह लिखा दिया, जबकि मेरा असली नाम धनीराम धानुक था।" (204) यहाँ टाइटल लगाने का जिम्मेदार बहादुर जाटव यानी चमार है। खैर, यह बहादुर सिंह जाति की हीनता से कुंठित व्यक्ति है। क्योंकि यह अपनी जातिय कुंठा से ही 'जाट' टाइटल को 'जाटव' और 'सिंह' के रुप में छुपा रहा है। रुद्रप्रताप 'हिन्दी की मार्क्सवादी कविता' पर सिनाप्सीस तैयार किया रहता है। जिसे साक्षात्कार के समय विभागाध्यक्ष देखर आग बबूला हो जाता है।
अगले दिन चयन न होने पर "रुद्रप्रताप सिंह ने विश्वविद्यालय के गेट पर डा. अम्बेडकर जी का बड़ा चित्र लगा कर भूख हड़ताल आरम्भ कर"(205) देता है। इस आंदोलन में उसे राहुल बौद्ध नाम के छात्र नेता से सहयोग मिलता है। राहुल अपने छात्र संगठन 'तथागत विद्यार्थी परिषद (टीवीपी)' से जुड़े छात्र/छात्राओं के साथ मिलकर रुद्रप्रताप सिंह को न्याय दिलाता है। और 'जय भीम लाल सलाम' का नारा बुलंद करता है।
इस कहानी की मुख्य समस्या है, बुद्ध और मार्क्सवाद से है। पहली बात तो दलितों का धर्म 'बौद्ध धर्म' नहीं है। दूसरी बात दलितों की विचारधारा 'मार्क्सवादी' नहीं है। इस दृष्टि से कहानी की मूल अंत: प्रेरणा ही गलत ट्रैक पर चलती नजर आती है। कालीचरण स्नेही जी भलीभांति परिचित हैं कि - दलितों का धर्म आजीवक है। उस धर्म के पुर्नसंस्थापक डा. धर्मवीर हैं। इसी आजीवक धर्म के ऐतिहासिक महापुरुषों की विचारधारा ही 'दलित विचाराधारा' है। जो कहीं से आयातित नहीं बल्कि मूल चेतना से अन्तर्भूत है। ऐसे में, धर्मांतरण की धार्मिक गुलामी की चेतना दलित कहानी में वर्णित करने से सीधे लेखक की वैचारिक चेतना पर सवाल खड़ा होता है।
भाषाई दृष्टि से-
बुद्ध
तथागत
मार्क्सवाद
बाहरी मूल के हैं। इन का दलित कौम से कोई नाता नहीं है। हां, हमारे बाबा साहब डा. अम्बेडकर का बौद्ध धर्म में रूचि होने के कारण अपनी धार्मिक पहचान से कट कर दूसरे धर्म का वरण जरूर किये थे। लेकिन इस का मतलब यह थोड़े है कि भारत के सारे दलित 'बौद्ध' हैं। ब्राह्मण वैसे भी सारे दलितों को अपने हिन्दू धर्म गिनती करता है। असल वजह अपनी पहचान का है। जो पुरखों से मिलती है और उसे अपने कंधों पर आगे लेकर चलना पड़ता है।
2️⃣
कहानी 'सुरंग' दयानंद बटोही की है। यह भी 'गांव के लोग' में पत्रिका में छपी है। यह कहानी पुरानी है। इस कहानी में अतिश्योक्ति का पूरा वर्णन है। फिर भी यह कहानी दयानन्द बटोही की आत्म कहानी है जिस का सूत्र वे इसी कहानी के अंत में दिये हैं। कहानी में पात्र का नाम नहीं है लेकिन वह 'हरिजन' है, ऐसा दर्ज है। इस कहानी का दलित पात्र पीएचडी में रजिस्ट्रेशन के लिए जद्दोजहद करता हुआ दिखाई देता है। जहाँ उसे एडमिन देने से मना कर दिया जाता है। इसी मायूसी में वह छात्र नेताओं का सहयोग लेता है। जहाँ कालीचरण स्नेही का मुख्य पात्र दलित नेताओं से सहयोग लेता है वहीं दयानंद जी का मुख्य पात्र उदारवादी द्विज छात्र नेताओं का सहयोग लेता है और अपना पंजीयन करवाता है। अपना विषय 'हिन्दी साहित्य में अछूत साहित्यकारों का योगदान' चुनता है।
इस तीन पेज की कहानी में बीस बार गांधी के 'हरिजन' शब्द का प्रयोग लेखक द्वारा हुआ है। आखिर इस शब्द से इतना लगाव क्यों है? यह लेखक ही जानें। उच्च शिक्षा हासिल करने वाले दलितों की दशा क्यों खराब है? क्योंकि उन में जाति की हीनता, कुंठा और ऐतिहासिक ज्ञान का अभाव है। दयानंद जी की कहानी 'सुरंग' द्विजों के सहयोग से उनकी भाषा और व्यवस्था के सुरंग में गोते लगाती है।
04 अगस्त, 2021
#संतोष_कुमार
हिन्दी एक भाषा है और हिन्दुस्तान एक देश। हिन्दी भाषी क्षेत्र में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं ठीक उसी प्रकार जिस तरह हिन्दुस्तान देश में विभिन्न तहजीब के लोग रहते हैं। इस 'हिन्दी' और 'हिन्दुस्तान' शब्द का 'ब्राह्मण धर्म' और उसकी 'संस्कृत भाषा' से कोई संबंध नहीं है। हां, एक समय था जब इस देश पर तमाम विदेशी लोगों ने अपनी भाषा, साहित्य, धर्म और संस्कृति के साथ राज किया। लेकिन ब्राह्मण समेत सारे विदेशी तहजीबों से मुक्त अपनी मूल अस्मिता के साथ आज भी दलित यानी आजीवक कौम संघर्षरत है।
इस देश में सबसे ज्यादा जाति, नश्ल, भाषा का संक्रमण हुआ है। फिर भी सब विभिन्न कोटरों में अलग थलग हैं। क्योंकि विभेद कारी संस्कृति के लोग सत्ता से गठजोड़ कर के संसाधनों पर काबिज हैं। दूसरी तरफ आजीवक कौम के अंदर मुनाफिकों की पैदावार लगातार पनपती रही है। जिससे कारण आजीवक कौम के योद्धाओं का मार्ग अवरुद्ध हुआ है। नेक नियति की कवायद जब हाजिर होती है तो यैसे लोग अपने आकाओं के शरणागत हो जाते हैं।
वक्त की नब्ज़ का
रूधिर हूँ
इतिहास के किले का प्राचीर हूँ।
जो तूने रखे हैं
इरादे बांधने का
बोलता हुआ मैं
मौन हूँ
लड़ता रहूंगा मैं
जंग, अन्याय के खिलाफ
कटे जाएं हाथ-पावं तो
दांत से जंगे इबारत लिखूँगा
कोई भी कौम सदाचार, ईमानदारी और अदलो-इंसाफ को दरकिनार कर के एक कदम भी नहीं चल सकती है। इस दृष्टि से दलित यानी आजीवक दर्शन आगे बढ़ रहा है। जहाँ, माता-पिता और संतान की लौकिक अवधारणा है। हया को बेच कर कोई भी स्त्री अपनी स्वतंत्रता नहीं पा सकती और बेहया होकर कोई व्यक्ति समाज या साहित्य का नेतृत्व नहीं कर सकता। कमी सब में होती है मगर उस में सुधार की आवश्यकता मौलिक गुण है जिससे परहेज नहीं किया जा सकता है।
लोग तालिबान को कोस रहे हैं लेकिन भारतीय सत्ता में बैठे सामंती मानसिकता के लोगों से अनभिज्ञ हैं। बोलने और लिखने की आजादी पर पहरे लगाना, सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाना, पेगासस साफ्टवेयर से निजी जानकारी लेना यह किस श्रेणी में आता है? यह तानाशाही नहीं तो और क्या है? सच में, यह ब्राह्मणशाही है जो मनुशाही से प्रेरित है। इस कट्टरपंथ का केन्द्रीय कार्यालय नागपुर है। इन्हें भारतीय संविधान और उस के निकायों (खासकर सेनाओं) पर भरोसा नहीं है। इसीलिए ये लोग हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी लेते हैं। इन के धर्म में स्त्री पर प्रतिबंध ही है। स्वीय विधि में कोई हिन्दू स्त्री तलाक नहीं ले सकती, विधवा पुनर्विवाह नहीं कर सकती, सात जन्मों का पट्टा भी है। ऐसे में, स्त्री की स्वतंत्रता की कामना कैसे की सकती है?
1 टिप्पणियाँ
Very nice
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