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Santosh kumar |
रमणिका गुप्ता ने दलित साहित्य का जीतना नुकसान किया है, उस की भरपाई नहीं की जा सकती। वे दलित कौम में अपराधी की तरह जानी जाएंगी और उन का सहयोग जिन दलित लेखक/लेखिकाओं ने किया है, वे भी उतने ही दोषी हैं। ऐसे में आजीवक साहित्य के मूल्यांकन में इनको माफ नहीं किया जा सकता! क्योंकि धर्म, दर्शन, इतिहास और साहित्य का बहुत बड़ा योगदान होता है किसी भी स्वतंत्र कौम के निर्माण के लिए। आने वाली नई पीढ़ियों का मस्तिष्क इन्हीं सब तत्वों से निर्मित होता है। आजीवक युवक-युवतियों पर साहित्य ज्ञान का पहला प्रभाव ही दिशा-हीन पड़ जाए तो यह गलत प्रभाव आजीवन उनके मस्तिष्क में घर बनाए रखता है। ऐसे में समाज दार्शनिकों का कर्तव्य बनता है कि दलित (आजीवक) कौम के हीत में जो साहित्य उपयोगी है, उन का मूल्यांकन करें।
रमणिका गुप्ता दलित साहित्य के बारे में कहती हैं - "दलित के पास न जमीन है, न धन, न अपनी भाषा है और न ही संस्कृति।"1 अब क्या कहा जाए - दलित गूंगा पैदा होता है? दुनिया के हर बालकों की तरह दलित बच्चा भी किलकारी लेता है और यह सत्य है, धरती की छाती पर बल भर अठखेलियाँ करता है सारी दुनिया के बच्चों की भांति। बुद्ध के पहले से ही चली आ रही 'चर्म-सभ्यता' की 'आजीवक संस्कृति' ने हर काल में अपना प्रभाव छोड़ा है। अशोक का जन्म ही आजीवक बालक के रूप में हुआ था। मध्य काल में रैदास और कबीर शूरवीर की तरह हिन्दू और मुसलमानों से लोहा लेते रहे। इस गौरवशाली संस्कृति को देखने के लिए रमणिका गुप्ता जी को अपने आंखों में ममीरा लगा लेना चाहिए था! यह अपने समय के सब से मौलिक चिन्तक डा. धर्मवीर को भुलाने की साजिश ही है, जैसे प्रेमचंद स्वामी अछूता नंद को भुलाए थे। हद तो तब हो जाती है जब दलित साहित्यकार श्यौराज सिंह 'बेचैन' कहते हैं - "अंतिम सांस तक लड़ने वाली जुझारू महिला थीं रमणिका गुप्ता"2 इन की पत्नी रजत रानी 'मीनू' एक कदम आगे बढ़ कर कहती हैं -"दलित साहित्यकार को बनाने में हंस की कोई खास भूमिका नहीं रही। खासकर दलित स्त्री साहित्य की। इससे ज्यादा तो योगदान रमणिका गुप्ता ने किया। उन्होंने दलित साहित्य आंदोलन खड़ा किया है।"3 द्विज लेखकों की खुशामद में बजरंग बिहारी तिवारी को दलित साहित्य का सबसे बड़ा खोजकर्ता घोषित करती हुई ये आगे कहती हैं -"डाॅ. बजरंग बिहारी तिवारी ने देश की सभी भाषाओं के दलित साहित्य की खोज की है।"4 तब क्यों न हिन्दू रमणिका गुप्ता इन सरीखे दलितों को कहें -"ये दोनों... परजीवी हैं। यानी दूसरों पर आश्रित हैं।"5
सच यह है कि अपनी जमीन का निर्माण करना पड़ता है, कोई यूँ ही अपनी खेती किसी को खैरात में नहीं दे देता है। रमणिका गुप्ता अपनी द्विज संस्कृति की सच्ची योद्धा होकर बखूबी दलित साहित्य को गुमराह किया, जिस के चपेट में आकर बड़े-बड़े दलित लेखक/लेखिकाएं अपने नैतिक मूल्यों का परित्याग किया। क्योंकि रमणिका गुप्ता खुद कहती हैं - "नैतिकता में मेरा कोई विश्वास नहीं"6
नूतन कुमारी के पूछने पर रमणिका गुप्ता ने दलित लेखक /लेखिकाओं के नाम गिनाए हैं जिनमें से डा. धर्मवीर का नाम ऐसे गायब है जैसे पुनर्जागरण काल के दलित योद्धा स्वामी अछूता नंद जी को गायब किया गया था।
देंखे,
"हिन्दी में कई सशक्त महिला लेखिकाएं उभरी हैं। कौशल्या बैसंत्री, सुशीला टाकभौरै, विमल थोराट, कुंती, अनिता भारती, रजत रानी मीनू, सुमित्रा मेहरोल, अनामिका मित्र, कौशल पवार, रजनी तिलक, और रजनी दिसोदिया आदि... (पुरुष) लेखकों में तुलसीराम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, अजय नावरिया, रतन कुमार सांभरिया, श्यौराज सिंह बेचैन, बाबूलाल चांवरिया, जयप्रकाश, अरुष, कृत्यांश, प्रह्लाद चंद दास, विपिन बिहारी, रूपनरायण सोनकर गुलाब, दयानंद बटोही आदि।"7 सवाल यह नहीं है कि इनकी जीभ डा. धर्मवीर का नाम लेने में क्यों जल रही है? सवाल बड़ा यह है कि - 12 सितम्बर, 2005 को डा. धर्मवीर अपनी पुस्तक 'प्रेमचन्द : सामंत का मुंशी' का लोकार्पण कर रहे थे, जिस के विरोध में रमणिका गुप्ता के सह पर उक्त लेखक/लेखिकाओं में से कुछ लोग एक गिरोह बना कर उन पर जूते-चप्पल क्यों उछाले? रमणिका गुप्ता यहीं तक नहीं रूकी अपने चाकरों के गिरोह को इकट्ठा करके डा. धर्मवीर के विरोध में 'स्त्री नैतिकता का तालीबानीकरण' विशेषांक भी निकाला। अनिता भारती जो अब ठकुरानी बन गई हैं द्विज जार संस्कृति के पक्ष में होकर डा. धर्मवीर के विरोध में 'गर दलित पत्नी सताएं तो डा. धर्मवीर को बताएं' शीर्षक लेख लिखकर रमणिका फाउंडेशन में अपना रजिस्ट्रेशन कराईं। यही दलित लेखक/लेखिकाओं का वास्तविक चरित्र है।
तनीं हो तलवारें रण में तो
वह भरपूर चलेंगी
चाहे दुश्मन की सेना में
शामिल अपने ही क्यों ना हों
गर्दन तो उनकी भी कटेगी।
सवाल लाज़मी है, रजत रानी मीनू रमणिका गुप्ता को चरितार्थ करते हुए जब दलित लेखकों का नाम गिना रही थीं तब इन के जबान पर डा. धर्मवीर का नाम क्यों नहीं आया? क्या रमणिका गुप्ता के बनाए हुए दलित लेखिकाओं में से यह भी एक थीं या फिर रमणिका गुप्ता के मृत्युपरांत उन के आंदोलन को लीड कर रही हैं?
देखें,
"... जब नवे दशक के दौर में दलित साहित्य का उभार हो रहा था। कंवल भारती, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चौहान, डॉ. एन. सिंह, जयप्रकाश कर्दम, उसी दौर में श्यौराज सिंह बेचैन, मलखान सिंह और सुशीला टाकभौरै, रजनी तिलक लेखन में बहुत बाद में आयी थीं।"8
इधर के दलित विशेषांकों में तथाकथित बड़बोले लेखक/लेखिका रमणिका गुप्ता की तरह दलित साहित्य की चुनौतियां गिना रहे हैं, जो उन का रमणिकावादी होने का पक्का सबूत है। रमणिका गुप्ता द्विज मठाधीशी का एक चेहरा थीं। वे अपने लोगों से वादा कर चुकी थीं कि चाहे जो हो जाए मैं दलितों को उन के भगवान, धर्म और दर्शन को खड़ा नहीं करने दूंगी, हिन्दुत्व की रक्षा जैसे गांधी जी ने किया था वैसे ही तन-मन, धन से मैं करूंगी। जरूरत पड़ी तो उनके घर को उजाड़ दूंगी, उनकी स्त्रियों से ही उन्हें पिटवा दूंगी!
देंखे,
रमणिका गुप्ता के प्रवचन दलित चुनौतियों पर- "... अम्बेडकरवाद को धर्म न बनने देना और दलितों में किसी नए धर्म को पनपने या सृजित न होने देना। अन्यथा दलित आंदोलन दिशाहीन हो जाएगा। आजकल कुछ दलित लेखक अम्बेडकर और बौद्ध धर्म को नकारकर, कभी घोषाल(गोसाल) तो कभी चरक या चारवाक(चार्वाक), सुदर्शन या वाल्मीकि के धर्मों के नाम पर धर्म चलाने की चर्चा कर रहे हैं। इसे रोकना जरूरी है। "9 यानी रमणिका गुप्ता का साफ कहना है - डा. धर्मवीर को रोकना ही सबसे बड़ी चुनौती है। इस षडयंत्र को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इस के वायरस अभी भी दलित साहित्य में अपनी पहचान छुपाकर रह रहे हैं। उन्हें बेनक़ाब करना बेहद जरूरी है। ये खुसपैठिए ही मुनाफिक हैं जो आजीवक साहित्य इतिहास को बेचने का काम करते हैं। जो महिला नैतिक रूप से गिरी हुई हो उसका साथ किस लिए? इन लेखकों के लेखन का क्या औचित्य?
डा. धर्मवीर के धार्मिक स्वतंत्रता की अवधारणा ने उदारवादियों समेत कट्टरपंथियों की नींद हराम कर डाली थी। क्या यह सच नहीं है - "ब्राह्मण अपनी बात ब्राह्मण धर्म के रूप में कहता है। क्षत्रियों ने अपनी बात बौद्ध धर्म के रूप में रखी है। इस में कुछ भी बुराई नहीं है। बुराई तब पैदा होती है जब दलित को अपनी बात दलित धर्म के रूप में नहीं रखने दी जाती। उस के सामने जान- बूझ कर पहचान की संकट खड़ा किया जाता है। लेकिन यह प्रत्येक दलित चिन्तक का कर्तव्य है कि वह अपने गुरुओं की बात संसार को समझाए कि उन के पास एक पृथक दलित धर्म है। दूसरे धर्मों के लोगों को भी उन की बात धैर्य से सुननी चाहिए।"10 कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि द्विजों की यह बर्बरता ही है कि दलितों के ऊपर अपना धार्मिक उपनिवेश बनाए रखना चाहते हैं।
आजीवक साहित्य की आलोचना में यह बुनियादी ढांचा के रूप होना चाहिए कि -
1. किसी दलित लेखक की रचना को 'कथनी-करनी' के कसौटी पर परख कर देखें।
2. दलित(आजीवक) साहित्य की संस्कृति, दर्शन, कला और सौन्दर्य का मूल्यांकन करने के लिए आजीवक इतिहास परिपूर्ण ज्ञान हो।
3.एक बात का प्रमुखता से ध्यान रखना होगा कि दलित साहित्य से अब रोने-धोने, हीनता, कुंठा क युग खत्म हो गया है। यदि कोई लेखक रोने-धोने और हीनता का आख्यान रचता है तो माना जाएगा कि आजीवक कौम को यह साहित्य कमजोर कर रहा है। ऐसे लेखक और रचना का तुरंत परित्याग कर देना चाहिए। चूंकि कमजोर समाज अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता।
4. आजीवक कौम को बुद्धि कौशल और युद्ध कौशल में पारंगत होना है ताकि अपने राष्ट्र और स्वतंत्र मूल्यों की रक्षा कर सके। ऐसे साहित्य की अपेक्षा भी होनी चाहिए।
5. आजीवक कौम सदियों से गुलामी और जहालत को झेलते हुए अपने अस्तित्व को बचाया है, उसे मालूम है कि गुलामी मौत से भी बत्तर चीज होती है। इसलिए साहित्य ऐसा होना चाहिए कि आजीवक कौम के नवयुवकों में नैतिकता, सदाचार के साथ शौर्य और वीरता का संचार कर सके।
6. आजीवक साहित्य में जारकर्म के लेखन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। क्योंकि कोमल बुद्धि बालक/बालिकाओं पर गलत प्रभाव पड़ता है। यह जगजाहिर है कि हिन्दू संस्कृति के लोग जारकर्म को जीते हैं उन के यहाँ के विधान में सदाचार के लिए दंड और व्यभिचार के लेखन के लिए पुरस्कार मिलते हैं। फिर ऐसी जगह पर आजीवक नैतिकता कैसे टिकेगी?
भाग दो
द्विज जार संस्कृति की महानायिका अपनी जीवन लिला को 'आपहुदरी' और 'हादसे' नाम की आत्मकथा में बखूबी लिखा है। जिस की आलोचना डा. धर्मवीर 'तीन द्विज हिन्दू स्त्री लिंगों का चिन्तन' नाम से एक पुस्तक लिख कर करी है। जो बचे-खुचे थे उनकी शिनाख्त कैलाश दाहिया ने 'आपहुदरी और उसके ऐय्यार इतिहास के हवाले' शीर्षक से एक लंबा लेख लिखकर कर दी है। लेकिन अभी कुछ सपोंले फन फैलाना चाहते हैं। वे नहीं जानते कि इन्सानों की बस्ती में उन के लिए कोई जगह नहीं है।
दलितों में दलित लगते नहीं, लेखक हैं अजय नावरिया जिन्होंने रमणिका गुप्ता के घर पर खाने के साथ शराब भर ही नहीं पिया बल्कि उनकी जार-संस्कृति के शिल्प सौंदर्य को आत्मसात भी किया है। ये खुद लिखते हैं - "मुझे वे अकसर रात्रिभोज पर बुला लेतीं या वहीं होता तो आग्रह करके रोक लेंती।...खाने से पहले अकसर वे शराब मंगवातीं। पहले वे खुद पिया करती थीं,...पर बाद में मेरे लिए शराब मंगवातीं।"11 ऐसे लोग दलित साहित्य का क्या भला करेंगे देखा जा सकता है। आगे नशे में झुमते हुए नावरिया लिखते हैं -"वे मुझसे अपेक्षा रखती थीं कि मैं उन्हें वैसे ही प्रेम करूं, जैसे राजेन्द्र यादव जी को करता हूं, राजेन्द्र यादव भी उनकी दुखती रग थे।"12 यह 'दुखती रग' क्या बला है? नावरिया खुद लिख रहे हैं -"वे प्रेम से ही परास्त होती थीं। ये उनकी दुखती रग थी।"13
रमणिका गुप्ता अपनी कविता में जी हुई जिंदगी अभिव्यक्त करती हैं -
"अंधेरा मेरे पंलग के नीचे छिपते - छिपते पकड़ा गया है...
मेरे बिस्तर की चादर मुचक गई है।"14
यहीं से अभिप्रेरित हो नावरिया अपनी 'आवरण' कहानी में रम्या और दीपंकर के संभोग लिप्सा यानी जारकर्म की बानगी में लिखते हैं -"... मुचड़ी हुई चादर लाल हो गई थी"15
दुनिया की सारी संस्कृतियाँ त्याग बलिदान पर खड़ी हुई हैं। सहादत की बेदी पर कौम का सौदा नहीं किया जाता अन्यथा पीढ़ियां बर्बाद हो जाती हैं। इस दुरभिसंधि पर बल्ली सिंह चीमा की यह लाइन सटीक बैठती है -
"बहुत चालाक है दुश्मन उजालों को खबर कर दो
दिये के ठीक नीचे ही अंधेरा बैठ जाता है"16
हमें सोचना चाहिए कि आखिर क्या कारण है हमारे महापुरुष अपना सर्वस्व निछावर कर के एक मार्ग बनाते हैं लेकिन कुछ लोग व्यक्तिगत लाभ के लिए द्विजों के अस्त्र बन कर सब नष्ट कर देते हैं? अब आजीवक कौम के लोगों को समझ जाना चाहिए समय रहते भीतर के जयचंदों की शिनाख्त कर कड़ी से कड़ी सजा दें।
डा. धर्मवीर की यह बात सब से अहम है - "ब्राह्मण चिन्तन यही चाहता है कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में फर्क किया जाए। तब वह असली सामाजिक और धार्मिक की तरफ से चिन्तकों का ध्यान हटा कर आदर्श के बियाबान जंगलों में बहस करवाता है।"17
दिशाहीन युद्ध
कितना हास्यास्पद लगता है,
जब ब्राह्मण ब्राह्मणवाद से
लड़ने के लिए हुंकार भरता है
दलित धार मारकर जब
तलवार तानता है
रण में तब बाभन ज्ञान पोंकता है
देखो भाई सूरज ब्राह्मणवाद से लड़ना है
हम होके तुम्हारे साथ भरपूर लड़ेगें
तब से दलित ब्राह्मण माया के ऐन्द्रजालिक
कोटियों में भटक रहा है
दलित स्त्री पति के सहअस्तित्व की खातिर
ले कटार लड़ने चली
फिर ब्राह्मण द्विज स्त्री काया में प्रकट हुआ
ब्राह्मणी बोली - यह क्या अनर्थ कर रही हो!
खुद का चेतो तुम मेरे जैसी हो
'पितृसत्ता' से लड़ो
जो तुमको सदियों से
स्वछंद होने नहीं दे रहा है
आज से तुम्हारी पहचान
'दलित स्त्रीवाद' के रूप में होगी
ब्राह्मण को दुश्मन मानने वाले
अपने पतियों से लड़ो
वही तुम्हारा दुश्मन
यहीं से तुम्हारी मुक्ति है
सिरफिरा के निकली स्त्री
सदाचारिणी देखती रह गई
बहकी ऐसे की
देखो,
धर्मवीर पर पिल पड़ी
हाय-हाय घर तबाह हुआ है
कबीर घर जरा रहे हैं।
संदर्भ :-
1. युद्धरत आम आदमी की दलित साहित्य यात्रा (रमणिका गुप्ता से नूतन कुमारी की बातचीत), हंस, मई, 2019, 2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 2, पृष्ठ 44
2. भीड़ में अकेली: रमणिका गुप्ता, विपिन चौधरी, हंस, मई, 2019, 2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 2, पृष्ठ 53
3.डरे हुए लोग साहित्य का भला नहीं कर सकते, रजत रानी मीनू, कथादेश, सितम्बर, 2019, एल-57 बी, दिलशाद गार्डन, दिल्ली - 110095, पृष्ठ 58
4. वही
5. युद्धरत आम आदमी की दलित साहित्य यात्रा (रमणिका गुप्ता से नूतन कुमारी की बातचीत), हंस, मई, 2019, 2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 2, पृष्ठ 44
6. भीड़ में अकेली: रमणिका गुप्ता, विपिन चौधरी, हंस, मई, 2019, 2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 2, पृष्ठ 53
7. वही, पृष्ठ 46
8. वही
9. वही, पृष्ठ 49
10.कबीर : बाज भी, कपोत भी, पपीहा भी, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002, द्वितीय संस्करण :2008, की भूमिका से
11. आपहुदरी का प्रस्थान, अजय नावरिया, हंस, मई 2019, 2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 2, पृष्ठ 41
12.वही,पृष्ठ 43
13.वही
14. पाखी, अप्रैल 2019, बी-107,सेक्टर-63, नोएडा - 201309, गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश, पृष्ठ 158
15. आवरण, अजय नावरिया, कथादेश (दलित साहित्य विशेषांक), सितम्बर 2019,एल-57 बी, दिलशाद गार्डन, दिल्ली - 110095, पृष्ठ 80
16. उजालों को खबर कर दो, बल्ली सिंह चीमा, पाखी, अप्रैल 2019, बी-107,सेक्टर-63, नोएडा - 201309, गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश, पृष्ठ 70
17. कबीर : बाज भी, कपोत भी, पपीहा भी, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002, द्वितीय संस्करण :2008, पृष्ठ 19
दिनांक 09/04/2020
वैश्विक आपदा //दुनिया की सारी सत्ताएं धर्म और भाषा की ताकत से अपने वर्चस्व को कायम रखी हैं। भारत में भी अपने उपनिवेश आर्यों ने ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म और संस्कृत भाषा के द्वारा भारतीय मूल की हिन्दी भाषा पर अपना वर्चस्व कायम की हुई है। ये सत्ताएं प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित युद्ध की विभीषिका में भी अपने हित हो को केन्द्र में रखते हैं। इस समय पूरी दुनिया में 'कोविद-19' का कहर व्याप्त है। ऐसे में भारत की हिन्दू सत्ता डरे हुए लोगों में अपनी धार्मिक सत्ता का नया नैरेटिव गढ़ रही है। सारी दुनिया की मेडिकल साइंस बैक्टीरिया और वायरस की रोकथाम के लिए रिसर्च कर रही हैं लेकिन हिन्दू सत्ता निरीह जनता के अन्तर्मन में अपने धर्म और देवता की छवि प्रेषित कर रहे हैं। इस से हास्यास्पद क्या होगा कि 'ताली और थाली' पीटने के बाद वजीरे-आला 5 अप्रैल को 'दिया, मोमबत्ती और टार्च' जलाने की घोषणा कर रहे हैं! देश में लोग भूख, प्यास और वायरस के डर से मर रहे हैं किन्तु इन रक्त पिपाशुओं को अपनी सत्ता और धर्म ही सर्वोपरी लग रहा है।
भारत के 'आर्य' पूरी दुनिया में अपनी पहचान केवल अर्थ तक सीमित नहीं रखना चाहते। वे विभाजन की भेद नीति को धर्म के द्वारा पवित्र, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष भी दिखाते हैं। इन्होंने भेदभाव और पाखंड को उचित ठहराने के लिए धर्म तथा वैज्ञानिक लोक-विश्वासों का भी उपयोग किया। ब्राह्मण तर्क शास्त्रियों ने तर्क दिया 'शूद्र ब्राह्म के पैरों से उत्पन्न हुए हैं।' इसलिए उसे ब्राह्मण की धर्म व्यवस्था में गुलामी करनी पडे़गी। ब्राह्मण जीव-विज्ञानियों ने तर्क गढ़ा ब्राह्मण उन्नत नश्ल के होते हैं इसलिए वे अन्य लोगों के मुकाबले अधिक बुद्धिमान होते हैं। गैर- ब्राह्मण अविकसित, असभ्य और अनैतिक होते हैं। ब्राह्मण डाक्टरों ने अपनी धार्मिक चेतना से आरोप लगाया कि निम्न जाति के लोग गन्दगी में रहते हैं और बीमारियाँ फैलाते हैं - वे प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं। आज भी इस विकट परिस्थिति में उन को किड़े-मकोड़े से ज्यादा कुछ नहीं समझा जा रहा है, आखिर क्यों उन पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव हुआ? जबकि अन्य जमात के लोग विदेशों से एयरपोर्ट के रास्ते देश में आ जाते हैं पार्टी देते हैं और सत्ता के सैकड़ों नुमाइंदे उस में शामिल होते हैं, जबकि आयोजक 'कोविद-19' वायरस से संक्रमित पायी जाती है। क्या कारण है कि इमर्जेंसी के समय सामूहिक नमाज़ अदा की जा रही है, क्या कारण है कि मुठ्ठीजोड़ सत्ता की सरकार बनाने का जश्न होता है? क्या इस देश की हर परिस्थितियों में 'हिन्दू-मुसलमान' होता रहेगा?
सब जानते हैं यह भयानक दौर है, वायरस से कहीं अधिक लोग भुखमरी से मर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में 'ताली-थाली और दीया-बाती' शोभा देती है?
दिनांक 03.04.2020
साहित्य समाज को दिशा देता है। क्योंकि उस को लिखने वाला उसी समाज का मनुष्य होता है। दलित साहित्य अपनी मूल प्रवृत्ति में ईमानदारी, सदाचार और नैतिकता का पक्षधर है, यूँ कहें की दलित संघर्ष की यही आंतरिक शक्ति है। इसी से ऊर्जा ग्रहण करके दलित यानी आजीवक आलोचना का मूल तत्व निर्मित होता है, जिस के आधार पर अच्छे साहित्य के चयन में बुरे साहित्य की पहचान होती है। और अपनी ध्वंसात्मक (Destructive) आलोचना के द्वारा हीन कोटि के लेखकों को दलित साहित्य से अलग किया जाता है। ताकि समाज में 'जार साहित्य' के माध्यम से गलत संदेश न जाए।
अजय नावरिया 30 मार्च, 2020 को अपने फेसबुक वाल पर लिखे हैं - "हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ और शीर्ष आलोचक, आदरणीय कँवल भारती को हंस में लिखे अपने लेख से लगातार ट्रोल किया जा रहा है।"1 कँवल भारती के लिखे टिप्पणी का स्क्रीन शाट अपने पोस्ट में अपलोड किये हैं, जाना जाए कँवल भारती क्या लिखे हैं - "दलित कहानी का यह नावरिया युग ही है। जिसे यह बात नहीं समझ में आती है, उसे दलित कहानी की दलित चेतना की समझ नहीं है।... अब जिसे जो समझना है, जो मानना है, जो आरोप लगाना है, लगाता रहे, मुझ पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता।"2
अब पूछा जाए कहानीकार और आलोचक महोदय से क्या 'जारकर्म' दलित चेतना है? यह कैसा मुनादी पिट स्थापना है? जबकि मक्खली गोसाल से लेकर कबीर, रैदास, डा. अम्बेडकर और डा. धर्मवीर तक सदाचार और नैतिकता का आंदोलन चला आ रहा है। क्या बाबा साहब के आदर्श वाला यही दलित साहित्य आंदोलन है? जबकि बाबा साहब कहते हैं - "दुराचार से दूर रहो"3
दरअसल द्विजों में एक प्रवृत्ति होती है literary hoax (साहित्यिक धोखाधड़ी) की यह प्रवृत्ति कुछ तथाकथित दलितों में भी पायी जाती है। इसीलिए डा. धर्मवीर कहते हैं -"कँवल भारती के दिमाग में यह क्या मामला है... मुझे मेरे जीवन काल में मेरे सामने प्रक्षिप्त कर रहे हैं।"4 अब क्या रहा जाता है कहने को? क्योंकि उन्हें खुद अपने समाज का भी डर नहीं है, वह जो कह दिए सो कह दिए। तभी तो, डा. धर्मवीर कहते हैं -"अपनी चमार जाति की कमजोरी का कँवल भारती के अलावा इतना पक्का सबूत आज की तारीख में मैं दूसरा पेश नहीं कर पाऊँगा।... मेरी इस कौम की गुलामी की और चिंतन की गरीबी का ये साकार मूर्त रूप हैं। ये डी. एन. ए. टैस्ट से बिलकुल घबरा गए हैं।"5 यदि साहित्य में जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता नहीं है तो उस का दलित साहित्य के स्वतंत्र चिंतन से क्या सरोकार? ये तो खालिस साहित्य के नाम पर निठ्ठलेपन का मूर्गा बांक है। अजय नावरिया के उसी पोस्ट पर कोई मुसाफिर बैठा द्वारा की गई टिप्पणी है -" वैसे, डाॅ. धर्मवीर को तो सवर्णों ने भी ट्रोल किया और दलित पिछड़ों ने भी, लेकिन उनका काम मौलिक और दीर्घकालीन महत्व का है, ऐतिहासिक है, बावजूद की उन्होंने अपने आलोचना कर्म में कुछ अतियाँ की, नादानियाँ भी डाली, खासकर दलित स्त्रियों की आलोचना करते हुए, प्रेमचंद की आलोचना करते हुए।"6 प्रेमचंद की आलोचना और जारिणी की भर्त्सना मुसाफिर बैठा को बर्दाश्त नहीं हो रहा। जाहिर है उनको द्विज जार संस्कृति पसंद है। डा. धर्मवीर की नादानियाँ और अतियाँ क्या हैं, मुसाफिर बैठा जी को खुल कर लिखना चाहिए? डा. धर्मवीर स्त्री चिंतन पर कहते हैं -" बाबा साहब ने किस जगह यौन-भ्रष्टता की वकालत की है? यदि दलित नारियाँ विवाह की मर्यादा, नैतिकता और यौन-निष्ठा को अपने लिए बेड़ियाँ मानेंगी तो फिर दलित समाज का उद्धार हो लिया!"7
कैसे अम्बेडकरवादी लेखक और आलोचक हैं जो न Historical vision (इतिहास बोध) से कुछ सीखते हैं, न ही अपने महापुरुषों की कुछ सुनते हैं? दलित यानी आजीवक चिंतन की आधारभूत स्वतंत्र संरचना आजीवक धर्म और दर्शन में ही निहित है। जब तक दलित साहित्य के लेखक ब्राह्मण धर्म और दर्शन के Linguistic prejudices (भाषिक पूर्वाग्रहों) से ग्रसित रहेगा तब तक स्वतंत्र लेखन नहीं कर सकता। अजय नावरिया के उक्त पोस्ट पर सुमित कुमार ने सवाल किया है - "अभी कुछ दिन पहले नावरिया जी की एक कहानी हंस में छपी थी जिसमें भूत जैसा कुछ था। यह दलित साहित्य की कौन सी प्रवृत्ति है? जवाब में नावरिया लिखते हैं -" भूत नहीं मनोलोक कहते हैं... मन का संसार। ये magical realism है।... दलित साहित्य में...ये युक्ति है, प्रवृत्ति नहीं।"8 अब कौन इन्हें समझाए, मनुष्य की युक्ति कब प्रवृत्ति में बदल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता! परन्तु ये अपने लेखन में जारकथा को 'मैजिकल रियलिज्म' के नाम से चलाएंगे। दलित साहित्य में इन्हें 'जारकर्म' का भोग उचित लगता है।
ऐसे में मुझे अपनी एक पंक्ति याद आ रही है -
"मैं जानता हूं तेरे रेशमी शब्द जाल को
तू हताश है- सदाचार से"
संदर्भ:-
1. अजय नावरिया का फेसबुक वाल 30 मार्च, 2020
2. वही
3. दूसरों की जूतियाँ, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002 प्रथम संस्करण :2007, पृष्ठ 82
4. डी. एन. ए. के टैस्ट का कँवल भारती पर प्रभाव, डा. धर्मवीर, बहुरि नहिं आवना, संयुक्तांक, अंक 14, जुलाई - दिसंबर, 2014, पृष्ठ 34
5. वही, पृष्ठ 36
6. अजय नावरिया के 30 मार्च, 2020 के फेसबुक पोस्ट पर टिप्पणी
7. दूसरों की जूतियाँ, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002, प्रथम संस्करण :2007, पृष्ठ 81
8. अजय नावरिया का 30 मार्च, 2020 का फेसबुक वाल से
दिनांक 31/03/2020
कामसूत्र की दलित पैदावार
'मनुष्य की युक्ति कब प्रवृत्ति में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। दलित साहित्य में आजकल 'जारकर्म' को 'मैजिकल रियलिज्म' के नाम से प्रयोग किया जा रहा है।'
दलित कौम को छिन्न-भिन्न करने के लिए द्विजों द्वारा लिखित रूप दो ग्रन्थ लिखे गए - 'मनुस्मृति' और 'कामसूत्र' मनुस्मृति पर तमाम विमर्श हुए और एक नया शब्द गढ़ा गया 'मनुवादी' जो कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का ही एक रूप है। परन्तु कामसूत्र पर नहीं चर्चा किया गया जिससे घर तबाह हो जाता है। उसी आधार पर आगे बढ़ा जाए तो 'कामसूत्रवादी' शब्द प्रयोग किया जा सकता है। साहित्य हो या समाज कामसूत्र के दो अराजक तत्व होते हैं -'जार-जारिणी' जिसे 'नायक-नायिका' भी कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि द्विजों की जार संस्कृति से दलित यानी आजीवक कौम को मुक्त होना है।दलित साहित्य में दो कहानीकार द्विज जार संस्कृति के गिरफ्त कहें या गुलामी करते नज़र आते हैं।एक नाम हैं अजय नावरिया जिन्होंने' आवरण कहानी लिखी है। नायक 'दीपंकर' अंग्रेजी का प्रोफेसर है और नायिका 'रम्या' स्टूडेंट, दोनों छुट्टियां बिताने कहीं ठंडे प्रदेश में गए हैं जहां एक दूसरे के साथ खुलकर रोमांस (जारकर्म) करते हैं। दीपंकर शादीशुदा है मगर ग्यारह वर्ष से पत्नी के साथ नहीं है। इन ग्यारह वर्षों में अनेक स्त्रियों के साथ हमबिस्तर हुआ है, ऐसा वह खुद स्वीकारता है।
कहानी 'आवरण' के लेखक अजय नावरिया खुद ही दलित प्रोफेसर हैं, देखने में दलित लगते भी नहीं हैं। तब, क्या वे खुद नायक के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं? यदि उन्हें पत्नी से प्रेम नहीं था तो 'तलाक' ले लेते उसके उपरान्त मनपसंद साथी से विवाह करते। लेकिन नहीं गली के कुत्ते की भांति मुंह मारना था इधर-उधर। जाना जाए गैर-जिम्मेदार और बेईमान प्रवृत्ति के लोग निट्ठलपन में विवाह और घर का विरोध करते हैं और 'जारपन' में जीते हैं। ऐसे में उनके लेखन में भी वही विचार अभिव्यक्त होते हैं। तब दलित साहित्य इन समाज और साहित्य के अपराधियों से कैसे निपटे? जाहिर है, ऐसे लोग द्विजों के चाकर हो जाते हैं जिनके माध्यम से ब्राह्मण अपनी लड़ाई लड़ता है। इसीलिए ऐसे साहित्य और लेखक को द्विज परंपरा का 'खरपतवार' मानकर उखाड़ फेकना चाहिए।
द्विज परम्परा की एक कहानी मुझे याद आती है 'निम्फोमैनियाक' जिस की लेखिका नीधि श्री हैं। इस कहानी की नायिका प्रोफेसर है पति से अलग रहती है। अपने ही शोधार्थी के साथ 'जारकर्म' में लिप्त है। कुछ समय बाद शोधार्ती से जब विवाह का प्रपोजल रखती है तो मना कर देता है, अंततः अवसाद से ग्रस्त नायिका आत्महत्या कर लेती है। 'आवरण' कहानी का नायक और लेखक इसी 'Nymphomaniac' रोग से ग्रसित नज़र आते हैं।
'आवरण' कहानी का संवाद देखें,
1. "सेक्स के लिए ठीक हूँ, पर शादी के लिए नहीं।"
2. "... वे उठ खड़े हुए रम्या का हाथ पकड़कर उठाया।... उससे लिपटकर वे उसे बुरी तरह चूमने लगे।... बहुत तेजी से अपने कमीज के बटन खोले और कमीज उतारकर एक तरफ फेंक दी। पेंट की बैल्ट खोली और पेंट उतार फेंकी, फिर अंत:वस्त्र भी। अब वह एकदम निर्वस्त्र थे।"
3. "वह उन्हें बुरी तरह चूम रही थी और उनका शरीर तन गया, कठोरता से।"
4. "पहली बार तुम खुद उतारो आवरण"
5. "... स्तानाग्र को मुंह में भर लिया... 'ओह माँ' ... रम्या धीमी आवाज में चिल्लायी।... मुचड़ी हुई चादर लाल हो गई थी, जगह-जगह से।"
तो यह है कहानीकार महोदय का दलित और दलित स्त्री विमर्श। जो व्यक्ति व्यवहारिक जीवन में ईमानदार नहीं है, उसके लेखन और भाषण से दलित साहित्य और समाज से क्या सरोकार? इन्हें ही कंवल भारती 'कलावादी' कहानीकार मानते हैं। और इन्हें उक्त कथा में 'रहस्यात्मक रोमांच' दिखी रही है।
कर्दम की कामुक कहानी
जयप्रकाश कर्दम की कहानी 'चक्रव्यूह' में दो पात्र हैं 'रूपा' और 'अशोक' दोनों हायर सेकंडरी स्कूल में एक साथ पढ़ते हैं। रूपा गरीब है लेकिन बेहद सुन्दर है। उसकी सुंदरता उसके जी का जंजाल बन जाता है। राह चलते लोग छेड़ते हैं। अंत में उस क्षेत्र का गुंडा सत्तन पहलवान रखैल बनाने के लिए प्रपोज करता है। ऐसी विकट परिस्थिति में पुलिस के पास न जाकर नायिका वेश्यावृत्ति करने के लिए अपना विज्ञापन देती है। और उस का भांडू बनता है नायक अशोक। अब लेखक महोदय से प्रश्न बनता है- क्या दलित बेटियाँ बलात्कार के डर से वेश्यावृत्ति करेंगी? यदि व्यक्तिगत जीवन में लेखक महोदय उसकी माँ की जगह होते तो क्या वे यह स्वीकृति देते? आगे और पूछा जाए जो उस का हमदर्द बना है अशोक वह रूपा से विवाह कर के क्यों नहीं उस का रक्षा करता है, भांडू बनना क्यों स्वीकार करता है। इस निट्ठलपन का लेखन दलित कौम को कहा लेकर जाएगी यह स्वत: देखा जा सकता है!
कुछ संवाद देखें-
1. "मैं अपना कौमार्य बेचना चाहती हूं"
2. "देखो तो कितनी सुन्दर है... इतनी सुन्दर लड़की कौन छोड़ेगा।"
3. "अच्छा, दलित समाज की है..., तभी तो... आर्थिक अभाव किसी भी व्यक्ति से कुछ भी करा सकता है"
जयप्रकाश कर्दम 'हंस' के नवम्बर, 2019 अंक में यह कहानी सात पेज में लिखे हैं। और यही कहानी 'कथा क्रम' पत्रिका के अक्तूबर-दिसम्बर, 2019 अंक में चौदह पेजों में 'वर्जिन' नाम से छपी है। नायिका का नाम बदलकर 'सुनीता' कर दिये हैं। क्या यह कहानी लेखन के प्रति ईमानदारी है? हो सकता लेखक कल को शब्दों का कूड़ा पाथते हुए इसे 'उपन्यास' का रूप दे दें!
इस 'वर्जिन' कहानी में नायक अशोक के रूप में अभिव्यक्त कहानीकार की बानगी देखिए - "गुंडों से अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखना सम्भव नहीं है, और बिकना ही एकमात्र विकल्प है तो क्यों न अपनी कीमत पर बिका जाए।" देखा जा सकता है ऐसे लोग कौम के लिए सहादत दे सकते हैं? जाहिर है, दुश्मन से अपनी कीमत बताकर बिक जाएंगे। दलित स्त्री को वस्तु मानकर क्रय का विज्ञापन देते हुए कहानीकार कल्पना करता है कि वह वेश्यावृत्ति के माध्यम से समानता कायम करेगा-
"... मैं अपना कौमार्य बेचना चाहती हूं।... उम्र 17 साल, रंग गोरा, कद 5' 3', सुन्दर, स्लिम आकर्षक, वर्जिन, कौमार्य (का) सबसे ऊंची बोली लगाने वाले किसी भी देश, नश्ल, जाति, के व्यक्ति को बेचा जा सकेगा। स्वस्थ और युवा व्यक्तियों को वरीयता दी जाएगी।"
एक कहानीकार 'जारकर्म' के द्वारा जातिवाद, छुआछूत खत्म करेगा और दूसरा 'वेश्यावृत्ति' के द्वारा। यही इन का दलित लेखन है।
संदर्भ :- 'कामसूत्र को जीता दलित कहानीकार' से उद्धृत।
दिनांक 26/03/2020 - संतोष कुमार
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